प्रशांत भूषण का ट्वीट पढ़ रहा था। अंत में लिखा क्रूर से क्रूर बादशाह भी ज्यादा दिन नहीं टिकता। मैंने सोचा ये ज्यादा दिन क्या हैं। कितने होते हैं। अपना बादशाह तो बहुत चतुर चालाक है। उसे ट्वीट के आशय का भी खूब भान है । वह जानता है सत्ता का नशा कैसा होता है और उसकी मियाद कहां तक जा सकती है। और इससे ज्यादा उसे यह भी पता है कि जनता का नशा कैसा होता है और जनता को किस नशे में कब तक झुमा कर और बरगला कर रखा जा सकता है। ऐसी सोच का बादशाह तो हमने सत्तर सालों में एक भी नहीं देखा। लेकिन जो नहीं देखा उसे देखना भी अद्भुत है। जब उकता जाएं तो प्रशांत भूषण का ट्वीट याद करके तसल्ली कर लीजिए। दिमाग को देर तक असर करने वाली दवा मिलेगी।
हम अगर गफलत में रहना चाहते हैं तो कोई हमारा क्या बिगाड़ सकता है। विधानसभाओं के चुनाव सामने हैं। सबसे पहले कर्नाटक का चुनाव है। कांग्रेस की बल्ले बल्ले हो रही है। फिर भी बीजेपी जीत जाए तो कई तरह के हक्के बक्के विश्लेषण होंगे और अंत में ईवीएम तो है ही। लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं होने जा रहा। कांग्रेस को बढ़त है। लेकिन क्या हमारी चिंता विधानसभा चुनाव हैं या होनी चाहिए । यकीनन हां, लेकिन उससे ज्यादा अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव जिस पर पूरे देश की ‘गोटियां’ सजी हैं। सारे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस या क्षेत्रीय दल जीत भी जाएं लेकिन लोकसभा चुनावों में सब परास्त हो जाएं तब बादशाह की राजनीतिक उम्र और लंबी जाएगी।‌ उसके बाद आप उसका स्याह चेहरा देख सकते हैं। इस बात से तो देश का गरीब तबका भी वाकिफ हो गया है कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में किस किस को वोट डालना है। यह उसे गोदी मीडिया ने अच्छी तरह समझा दिया है। देश की बयार फिलहाल गोदी मीडिया चला रहा है। वह कितना बेशर्म है यह वह स्वयं भी जानता है। पर नौकरी करनी है तो हुक्मउदूली करनी ही होगी। सो वह दिन रात करता है। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी अपना काम कर रही है उसे इससे फर्क नहीं पड़ रहा कि लोगों के दिमागों में कितना गोबर जा रहा है। ये लोग अपनी ट्रेनिंग पर सौ टका खरे उतरे हैं। लेकिन हमारा सोशल मीडिया क्या कर रहा है। और हमारे डिजिटल चैनल।
हमारे डिजिटल चैनल पर होने वाली चर्चाएं जागे हुए लोगों को संतुष्ट करने के लिए होती हैं । हमने कहा चाय की चुस्कियों और आईपीएल में देश डूबा है तो गलत क्या कहा है। मेरे जैसे लोग, जो काफी संख्या में हैं पूछते हैं कि इन चर्चाओं से हमें अंततः मिलता क्या है या क्या मिल रहा है। हमारा कितना ‘ज्ञानवर्धन’ हो रहा है। यह सवाल निश्चित रूप से उस समय इतनी दृढ़ता से नहीं पूछा जाता जब किसी लोकतांत्रिक सरकार की सत्ता होती और देश के संविधान, अभिव्यक्ति की आजादी आदि पर कोई खतरा नहीं होता दूसरे अर्थों में जनता की अपनी पसंदीदा सरकार होती और सामान्य जनजीवन सुखी और समृद्ध होता। तब इतने सवाल किसी चर्चा पर नहीं उठते। हम कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक सरकार तो ये है ही । पर हम यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि इसका लोकतांत्रिक होना कितना लोकतांत्रिक है। सवाल यह है कि हमारी चर्चाओं के विषय क्या होते हैं। विषय वही होते हैं जो सत्ता सामने रखती है । इस सत्ता को उखाड़ फेंक सकने वाले सारे मुद्दे बड़ी साफगोई से दरकिनार किए जा रहे हैं और उनकी एवज में जो विषय लाये जा रहे हैं वे ही चैनलों के विषय भी बन रहे हैं गोया डिजिटल चैनल भी गोदी मीडिया के चैनलों की राह पर हैं। इन चैनलों के एंकरों की गम्भीरता इनके चाय के बड़े बड़े मगों की आड़ में छिप जाती है। कुछ पैनलिस्ट तो नाश्ता करते करते चर्चा में शामिल हो जाते हैं। ये लोग नहीं जानते कि ये कितने फूहड़ और भद्दे लग रहे हैं। खासतौर पर जब इनके फ्रेम में इनके चेहरों पर इनके चाय के मगों का ग्रहण लग जाता है। किसी के चाय पीने से किसी को क्या एतराज हो सकता है और इसे किसी समीक्षा का विषय भी कैसे बनना चाहिए। बड़े बड़े स्टूडियो में हर एंकर और हर पैनलिस्ट के सामने कप- प्लेट में चाय होती ही है। और वह भी ज्यादातर विदेशी चैनलों में , जहां से यह प्रथा शुरु भी हुई है और हम तो वैसे भी उनकी हर बात की नकल करने के आदी हैं। पर हमारी नकल कितनी फूहड़ होती है विषय यही है। आपको चर्चाएं करनी है क्योंकि वह आपका नशा है। सत्ता की चौसर पर आप खेल रहे हैं और हमें कुछ ‘सारगर्भित’ नहीं दे रहे। आपके वही वही पैनलिस्ट वही वही बातें कर रहे हैं तो जनता क्यों देखें । फिर लाखों (??) देखने वालों से दान देने और सदस्य बनने की रोज़ रोज़ अपील ! इससे आपकी पोल तो खुल ही रही है। अपील नये सदस्यों से की जाती है जो हैं ही नहीं। क्योंकि हर कोई जानता है आपकी चर्चाएं और आपकी बातें सीमित लोगों तक पहुंच रही हैं । ऐसा आप कुछ नहीं कर रहे कि मोदी का ‘असली’ वोटर आप की चर्चाएं सुन कर जाग उठे । मैंने अनेक लोगों से इन चैनलों के नाम लेकर पूछा तो ज्यादातर ने बताया कि हम जानते तो हैं पर देखते नहीं । प्रादेशिक चैनलों को वहां के लोग देख कर संतुष्ट हैं और उसी पर बहस भी करते हैं। जैसे महाराष्ट्र के मराठी चैनलों के दर्शक हिंदी के ये डिजिटल चैनल ना के बराबर देखते हैं । रवीश कुमार को पसंद करने वाले हर प्रदेश में बदसतूर उन्हें देखते हैं। रवीश ने जो नौकरी सीरीज, और आंदोलनों आदि की कवरेज एनडीटीवी में रहते कीं वे नीचे के लोगों तक पहुंची । इसलिए रवीश इन चैनलों के बरक्स मजबूती से खड़े हैं । अजीत अंजुम भी इसी श्रेणी में हैं जो आज भी बहुत देखे जाते हैं। यदि आप सामान्य से सामान्य जनता से नहीं जुड़े और वह भी इस सत्ता के दौर में तो खुशफहमी पाले रहिए। चाय की चुस्कियां लेते रहिए, आईपीएल में मस्त रहिए। बताते रहिए कि मेरे पास कितनी गाड़ियां हैं तेरे पास कितनी हैं। मेरे पास कितने कुत्ते बिल्लियां हैं और तेरे पास कितने। ये वे लोग हैं जो आंदोलनों की बात तो कर सकते हैं पर आंदोलनों की जमीन तैयार नहीं कर सकते। 44 डिग्री गर्मी में AC मकानों से निकलने की बजाय मोदी को एक टर्म और दे देने में क्या बुराई है। जो विधि का विधान है वह तो होकर ही रहेगा। ऐसा भी ये लोग मान सकते हैं।किसान आंदोलन में शामिल होना एक बात है और उस पर चर्चा करना एक बात। हमने जो सवाल उठाए रवीश कुमार उन सबसे दूर और अलग हैं। चैनल जब फूहड़ हो जाएं तो वे भांड हो जाया करते हैं। किसी एक दिग्गज से इंटरव्यू लेना लाख गुना बेहतर है बजाय घिसे पिटे चार छः लोगों को सुनने के । फिलहाल जग जाहिर है कि जनता मोदी के खिलाफ नहीं खड़ी है । कम से कम लोकसभा चुनाव में तो नहीं खड़ी दिखती। बेशक उनका वोट प्रतिशत कितना ही कम हो । आज भी औसत बुद्धि का व्यक्ति नहीं जानता कि वोट शेयर और सीटों में क्या अंतर है। तो यह हमारी बात थी। आजकल बहुत लंबा हुआ जा रहा है । इसलिए बात को यहीं समाप्त करना होगा। कई चीजें छूटी हैं। खासतौर पर अभय दुबे शो, सिनेमा संवाद और ताना बाना। तीनों पर टिप्पणी अनिवार्य है लेकिन सीमा में रहना भी जरूरी है। दर्द सिर्फ इतना ही है कि चौबीस में हम फिर इसी सत्ता को आते देख रहे हैं। तो उसके बाद क्या होगा बहुत कुछ हम सब जानते हैं बहुत कुछ और, तब देखेंगे।

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