साल के आखिरी दिनो में ऐसी हैरान करने वाली खबर भी आएगी, उम्मीद न थी। क्योंकि बचपन से अब तक जो देखते-बूझते आए थे, उसके मुताबिक किसी की तस्वीर अगर डाक टिकट पर छप जाए तो वो व्यक्ति, इमारत, संस्था, कला या आयोजन ऐतिहासिक हो जाता था। ऐसे डाक टिकट भारत सरकार जारी करती थी और माना जाता था कि डाक टिकट के रूप में यह एक प्रकार से राष्ट्र का कृतज्ञता ज्ञापन है।

लेकिन कानपुर से जब यह खबर आई कि उसी डाक विभाग ने दो घोषित अपराधी अंडरवर्ल्ड माफिया छोटा राजन और कुख्‍यात गैंगस्टर मुन्ना बजरंगी के डाक टिकट भी जारी कर दिए तो लगा कि मानो अब गैंगस्टरों को भी ‘अमर’ करने का यह कोई ‘अभिनव’ प्रयास है। पता चला कि ये डाक टिकट विभाग द्वारा 3 साल पहले शुरू की गई, ‘माय स्टैम्प योजना’ के तहत जारी किए गए थे। यानी अर्जी लगाओं, 3 सौ रू. जमा करो और मनचाहा डाक टिकट निकलवा लो।

ये खबर वायरल होने के बाद हड़कंप मचा और आनन-फानन में विभाग ने लापरवाही के आरोप में एक कर्मचारी को सस्पेंड कर दिया। खास बात यह है कि ये डाक टिकट भी कानपुर के मुख्य डाकघर से जारी हुए थे। उत्तर प्रदेश के पोस्‍टमास्‍टर जनरल वीके वर्मा ने माना गलती हुई है और इसकी जांच शुरू कर दी गई है। उन्होंने कहा कि डाक टिकट जारी करने से पहले वर्मा ने कहा कि निजी डाक टिकट जारी करने के पहले की जो आवश्‍यक प्रक्रिया है, उसका अनुपालन किए बिना ही जिम्‍मेदार कर्मचारी ने डाक टिकट जारी कर दिए।

इस मामले में सख्‍त कार्रवाई की जाएगी। डाक विभाग ने छोटा राजन और मुन्ना बजरंगी के 5 रू. वाले 12-12 टिकट जारी कर दिए ताकि लोग इनका उपयोग डाक भेजने के लिए कर सकें। दोनो डाक टिकटों के लिए नियमानुसार 600 की फीस चुकाई गई। उल्‍लेखनीय है कि डाॅन छोटा राजन मुंबई की एक जेल में बंद है और गैंगस्टर मुन्ना बजरंगी की 2018 में उत्‍तर प्रदेश की बागपत जेल में हत्‍या कर दी गई थी।

बजरंगी पर भाजपा विधायक कृष्‍णानंद राय समेत आधा दर्जन से अधिक लोगों की हत्‍या का आरोप था। खुलासा हुआ कि यह काम दरअसल एक दैनिक अखबार के रिपोर्टर ने किया था, जो बताना चाहता था कि ‘माय स्टैम्प योजना’ में कितनी पोल है। रिपोर्टर ने जब दो गैंगस्टरों की तस्वीरें डाक टिकट विभाग के सम्बन्धित अधिकारी को दिखाई तो उसने पूछा कि ये कौन है ( अधिकारी छोटा राजन और मुन्ना बजरंगी को नहीं पहचानता था) रिपोर्टर ने कहा- ‘मेरे परिचित हैं।

यह सुनकर अधिकारी संतुष्ट हो गया। दोनो की तस्वीरों वाली डाक टिकटें छप भी गईं।‘माय स्टाम्प योजना’ दरअसल डाक टिकटों के निजीकरण की योजना है। क्योंकि डाक विभाग जो डाक टिकट छापता या जारी करता है, उसकी एक निश्चित प्रक्रिया है। कुछ साल पहले तक किसी पर डाक टिकट निकल जाना एक ऐतिहासिक घटना हुआ करती थी। ऐसे डाक टिकट निकलवाना आसान नहीं था।

लेकिन तकनीकी प्रगति ने जिस तरह से पत्र लिखने और भेजने को भी इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया है, उसी तरह डाक टिकट भी अब भूले‍ बिसरे गीतों की माफिक हो गए हैं। कोई नई पीढ़ी का बच्चा आपसे ये सवाल करे कि ये डाक टिकट होता क्या है तो आपको हैरान नहीं होना चाहिए। ई-मेल और सोशल मीडिया के बढ़ते चलन के बाद देश में डाक टिकटों की ‍बिक्री तेजी से गिरने लगी तो सरकार के मन में यह विचार आया कि क्यों न आम लोगों और कारपोरेट को भी अपने डाक टिकट जारी करने का मौका दिया जाए।

इससे कुछ पैसा भी मिलेगा। मोटे तौर यह विचार अपनी सेल्फी खींचने जितना रोमांचक था। अपनी या अपनों की तस्वीर डाक टिकट के रूप में छपे और चिटिठ्यों पर चिपके, इससे ज्यादा मजेदार बात और क्या हो सकती है? ‘माय स्टैम्प’ वास्तव में भारतीय डाक विभाग का कारोबार बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किया गया एक ब्रांड है। इस योजना को मोदी सरकार ने भले लागू किया हो, लेकिन पहली बार इस योजना को यूपीए 2 सरकार के समय दिल्ली में 2011 में आयोजित विश्व फिले‍टैलिक प्रदर्शनी (इंडीपेक्स) में प्रदर्शित किया गया था।

दो साल बाद इसे तमिलनाडु में लागू किया गया। 2017 में यह योजना पूरे देश में लागू हुई। आम तौर पर लोगों का इसका स्वागत किया। हालांकि व्यक्तिगत डाक टिकट और कारपोरेट माय स्टाम्प योजना में काफी अंतर है। कारपोरेट को यदि अपना डाक टिकट जारी करवाना है तो उसे 12 लाख रू. जमा कराना होंगे। जबकि व्यक्तिगत डाक टिकट के लिए फीस 300 रू. है।

बदले में आप को विभाग निश्चित संख्या में डाक टिकट की शीट मुहैया कराता है। अगर साल 2020 की ही बात करें तो अधिकृत जानकारी के अनुसार डाक ‍विभाग ने कुल 14 डाक टिकट जारी किए, जबकि माय स्टैम्प योजना के तहत 30 डाक टिकट जारी किए गए। इनमें राम जन्म भूमि मंदिर का माॅडल और मप्र विधानसभा भवन भी शामिल है। ‘माय स्टैम्प योजना’ के तहत विभाग अब तक करीब डेढ़ सौ डाक‍ ‍टिकट जारी कर चुका है, जिससे महकमे को 5 करोड़ रू. तक का राजस्व मिला है।

लेकिन डाक टिकट केवल पैसा कमाने का जरिया है या होना चाहिए, यह विचार ही मूलत: दोषपूर्ण है। यह वैसा ही है कि घर के पूजा घर का खर्चा चलाने के लिए कोई देव प्रतिमाअों का मोल धातु के मार्केट रेट पर लगाने की कोशिश करे। क्योंकि डाक टिकट केवल कागज पर छपी कोई विशिष्ट तस्वीर ही नहीं होते, वो किसी देश, समाज का इतिहास, धर्म, कला, संस्कृति, सभ्यता, जलवायु, वनस्पति, वन्य संपदा का परिचायक भी होते हैं।

शायद इसीलिए भारत में डाक टिकटों के 166 सालों के इतिहास से देश की ऐतिहासिक घटनाओं और भारत के सर्वांगीण विकास की कहानी को भी बखूबी समझा जा सकता है। आजाद भारत का पहला डाक टिकट ‘जय हिंद’ था। बाद में भारतीय मंदिरों व अन्य धर्मस्थलों पर भी डाक टिकट जारी हुए।

हो सकता है कि जब ‘माय स्टैम्प’ योजना लागू की गई होगी, तब यह किसी के दिमाग में नहीं आाया होगा कि इस सुविधा का इस तरह दुरूपयोग भी हो सकता है। यह तर्क गैर वाजिब कैसे होगा कि जब फलानेचंद की तस्वीर डाक टिकट छप सकती है तो किसी कसाब, भिंडरावाले, माल्या या विकास दुबे की क्यों नहीं छप सकती? पैसा तो वो भी या उनके परिजन दे सकते हैं।

योजनाकार शायद ये भूल गए कि डाक टिकट डाक विभाग जारी करता है, जो भारत सरकार का विभाग है। उससे मिली कोई भी स्वीकृति सीधे तौर पर भारत सरकार से मिली स्वीकृति है। व्यक्तिगत डाक टिकट महज मजे के लिए खींची गई सेल्‍फीभर नहीं है, वह आपकी शख्सियत या पहचान पर लगने वाली सरकारी मुहर भी है। और यह मुहर इस तरह से नीलाम कैसे की जा सकती है या उसे किया जाना चाहिए?

यह कोई बीते जमाने में चूरन वाले नोटों के जरिए किया जाने वाला झूठमूट का ‘व्यापार’ खेल नहीं है। भले गलती यह से हुआ हो, लेकिन जब विभाग डाॅन छोटा राजन या गैंगस्टर मुन्ना बजरंगी के डाक टिकट जारी करता है तो यह उनके आपराधिक कृत्यों की घोषित स्वीकृति है। ऐसे ‘माय स्टैम्प’ में हम किस भारत की तस्वीर बूझें? बहरहाल इस चौंकाने वाली घटना के बाद सरकार को इस तरह की निजी डाक टिकट योजना पर पुनर्विचार करना चाहिए।

इसे बंद न भी करें तो उसके लिए बेहद सख्‍त नियम-कायदे होने चाहिए। ऐसे डाक टिकट घटना बनें न कि ‘दुर्घटना।‘इसी संदर्भ में मशहूर अमेरिकी काॅमेडियन स्टीवन राइट का एक तंजिया वाक्य याद आता है। स्टीवन ने सवाल किया था कि वो अपराधियों की तस्वीरें पोस्ट आॅफिस में क्यों लगाते हैं? वो डाक टिकटों पर सिर्फ अपनी तस्वीरें क्यों नहीं डालते हैं ताकि डाकिया डाक भेजते समय उनकी तलाश कर सके? हमारे डाक विभाग ने इस बात को बहुत गंभीरता से तो नहीं ले लिया?

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

‘सुबह सवेरे’

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