shivratriबीते कुछ महीनों से कश्मीर घाटी में प्रत्येक शुक्रवार को अलगाववादियों के कहने पर एक आम हड़ताल होती है, लेकिन शिवरात्रि के कारण उस हफ्ते के शुक्रवार का आह्‌वान रद्द कर दिया गया. दरअसल, कश्मीरी पंडितों के त्योहार हीरथ के मद्देनज़र हुर्रियत नेताओं ने यह कदम उठाया. पंडितों ने शुक्रवार को शिवरात्रि मनाई. मुसलमान हमेशा से कश्मीरी पंडितों के इस त्यौहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं. सदियों की इस संयुक्त संस्कृति में कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों ने हमेशा एक-दूसरे को अपनी खुशियों और त्योहारों में शामिल रखा है. दोनों सम्प्रदाय हमेशा से एक दूसरे के साथ अपनी खुशियां बांटते आए हैं.

हालांकि पिछले ढाई दशकों से जारी हिंसक हालात के नतीजे में कश्मीरी मुसलमानों और पंडितों के बीच संबंधों में एक खाई पैदा हो गई, लेकिन अबकी बार घाटी में इस खाई को पाटने की कोशिशें दोनों ओर से हुईं. सोशल मीडिया पर कश्मीरी मुसलमानों के ऐसे अनगिनत पोस्ट देखने को मिले, जिनमें पंडित भाईयों को शिवरात्रि की शुभाकामनाएं दी गईं. इसके साथ ही अधिकतर लोगों ने इस साझा संस्कृति से जुड़ी उन यादों का भी उल्लेख किया, जब घाटी के हर क्षेत्र में दोनों सम्प्रदाय के लोग एक दूसरे के त्यौहारों को अपना त्यौहार समझकर इनमें हिस्सा लेते थे. इन फेसबुक पोस्ट्‌स के द्वारा लोगों ने एक दूसरे के साथ शिवरात्रि के इस त्यौहार की जानकारियां भी साझा की.

हेरथ या शिवरात्रि दरअसल हिन्दुओं का एक महत्वापूर्ण त्यौहार है, जिसे पूरी दुनिया में मनाया जाता है. आम हिन्दुओं के मुक़ाबले कश्मीरी पंडित इस त्यौहार को एक अलग ही अंदाज़ में मनाते हैं. आम हिन्दुुओं के लिए तो यह महज़ एक दिन का त्यौहार होता है, लेकिन कश्मीरी पंडित जो मूल रूप से शैव सम्प्रदाय को मानने वाले हैं, वे इस त्यौहार को 23 दिन यानि तीन सप्ताह से अधिक समय तक मनाते हैं. इस अवधि में हेरथ से संबंधित विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है.

कश्मीरी पंडित इस त्यौहार के लिए कई दिनों पहले से ही तैयारियां करते हैं. सबसे पहले वे अपने घरों और आसपास के वातावरण को साफ करने पर विशेष ध्यान देते हैं. पूजा के कमरों को सजाया जाता है. पूजा में काम आने वाले फूलों, अख़रोटों और बर्तनों को तैयार रखा जाता है. इस समय पंडित घरों में एक विशेष प्रकार का हर्षोल्लास देखने को मिलता है. बूढ़े बुजुर्ग तो शिवरात्रि को पूजा का एक ज़रिया समझते हैं, लेकिन बच्चोंे के लिए ये बस खुशियां मनाने का एक बहाना होता है. बुजुर्ग कश्मीरी पंडित इस दिन उपवास रखते हैं. आमतौर पर फरवरी या मार्च में आने वाला यह त्यौहार फागुन महीने के 13वें दिन मनाया जाता है. हेरथ या शिवरात्रि का यह त्यौहार शिव और पार्वती की शादी से संबंद्ध है. हिन्दू इस दिन भगवान कृष्ण से संबंधित पूजा भी करते हैं.

एक कश्मीरी पंडित सतीश रैना ने हेरथ के बारे में बताया कि अन्य हिन्दुओं के मुक़ाबले कश्मीरी पंडित इस त्यौहार को ज़रा अलग ढंग से मनाते हैं. हम इस दिन वटक पूजा करते हैं. बाक़ी दुनिया के हिन्दू इस शब्द से भी अंजान हैं. दरअसल, वटक कश्मीरी भाषा का शब्द है. इसका मतलब कई चीज़ों के प्रयोग करने से है. हम इस विशेष पूजा में विभिन्न सामग्री का प्रयोग करते हैं, इसलिए स्थानीय भाषा का प्रयोग करते हुए इसे वटक पूजा कहा जाता है.

इस पूजा में एक ऐसी चीज़ भी रखी जाती है, जिसे शिवजी के विश्वासपात्र गेट कीपर का एक प्रतीक समझा जाता है. पूजास्थल पर दो बर्तन रखे जाते हैं, जिन्हें शिवजी और पार्वती से संबंद्ध किया जाता है. इसके अलावा इस अवसर पर और चार बर्तन रखे जाते हैं, जिन्हें शिवजी के बारातियों का प्रतीक समझा जाता है. पूजा में काम आने वाली सबसे महत्वतपूर्ण चीज़ अख़रोट होते हैं. इन अख़रोटों को बाद में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है. सतीश कहते हैं कि अख़रोट चूंकि गोल होते हैं और ये ज़मीन के रंग जैसे होते हैं, इसलिए पूजा में इनका विशेष प्रयोग होता है. अखरोट के अन्दर मौजूद चार खाऩों को हम चार वेदों का प्रतीक समझते हैं.

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि हेरथ मूल रूप से हैरत शब्द से जुड़ा है. उनका कहना है कि कश्मीर पर जब पठानों की सत्ता थी, तो उस ज़माने के एक गवर्नर जब्बाहर खां ने अज्ञात कारणों की बुनियाद पर कश्मीरी पंडितों को सर्दियों में शिवरात्रि का त्यौहार मनाने से मना कर दिया और कहा कि वे गर्मियों में ये त्यौहार मनाएं. सर्दियों में यहां बर्फबारी होती थी और यह त्यौहार बर्फबारी में ही मनाया जाता था, इसलिए पंडितों को इसे गर्मियों के मौसम में मनाने पर आपत्ति थी. लेकिन गवर्नर के आदेश के आगे झुकने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था. इसके बाद जब गर्मियों में शिवरात्रि मनाई जा रही थी, तो उम्मीद के उलट आश्चर्यजनक रूप से उस दिन घाटी में बर्फबारी हुई. यह देखकर सब हैरान हो गए और इस प्रकार से कश्मीर में शिवरात्रि का नाम ‘हेरथ’ (हैरत) पड़ गया.

घाटी में सशस्त्र आन्दोलन होने से पहले, जब यहां हर क्षेत्र में मुसलमानों और पंडितों की मिलीजुली आबादी हुआ करती थीं, तब हैरथ मुसलमानों के लिए भी उतनी ही खुशी का कारण होता था, जितना पंडितों के लिए. सतीश कहते हैं, मुझे अच्छी तरह से याद है कि हमारे मुहल्ले के मुसलमान बच्चे हैरथ के मौके पर अधिकतर समय हमारे साथ ही गुज़ारते थे. पाईन शहर के एक पूर्व अध्यापक फारूक़ अहमद शाह का कहना है कि बचपन में वे हेरथ के मौके पर अपने पड़ोसी पंडितों के घर इसलिए बार-बार जाते थे, क्योंकि वहां खाने-पीने के लिए बहुत चीज़ें मिलती थीं. इस दिन कश्मीरी पंडित अपने मुसलमान दोस्तों को खाने पर बुलाते थे और इनके घरों में प्रसाद भेजते थे.

1990 में जब बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित घाटी से चले गए, तो यहां के मुस्लिम समाज पर जो पंडितों के रहन-सहन, संस्कृति, सौहार्द और उनके त्योहारों के छाप थे, वे मिटने लगे. पत्रकार तारिक मीर कहते हैं कि 27 वर्ष एक बहुत बड़ा अर्सा होता है. इस अवधि में दोनों सम्प्रदायों की एक नई नस्ल परवान चढ़ गई. कश्मीरी मुसलमानों और पंडितों की ये नई नस्ल इस बात से बेख़बर है कि इनके बुजुर्गों का रहन-सहन और संस्कृति किस प्रकार एक दूसरे के साथ रची-बसी था.

पिछले 27 वर्षों में दोनों सम्प्रदायों के बीच पैदा हुई इस खाई को पाटने के लिए ज़रूरी है कि दोनों तरफ के बुजुर्ग पुराने दिनों की यादें वापस लौटाएं और नई नस्लों को इस साझा संस्कृति और रहन-सहन से रूबरू कराएं, जो यहां सदियों तक देखने को मिला है.

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