देश की जनता बुद्धिमत्तापूर्वक वोट दे, जिसके परिणाम से ही बेहतर सरकार अस्तित्व में आएगी. आख़िरकार देश दूसरे किसी भी मसले से ऊपर है. पिछले 60 वर्षों से अधिक समय से हम चुनावी प्रक्रिया देख रहे हैं. इस प्रक्रिया को सही ढंग से बनाए रखना होगा. मतदाता बड़ी संख्या में अपने इस अधिकार का प्रयोग कर रहे हैं, यह एक शुभ संकेत है. इस दिशा में चुनाव आयोग की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. अधिक से अधिक मतदाता मतदान करें, यह देश के भविष्य के लिए बेहतर है.
वर्ष 2013 बीत गया और अब हम 2014 के शुरुआती दौर में हैं. अगर पीछे देखें, तो बीता वर्ष अलग-अलग मिजाज़ की घटनाओं का समुच्चय रहा. अर्थव्यवस्था संकट से जूझती दिखी. हालांकि, यह मुश्किल केवल देश में ही नहीं, वैश्विक परिदृश्य पर भी थी. यूरोप अभी भी बड़े आर्थिक संकट में है. अमेरिका धीरे-धीरे वापसी की कोशिश कर रहा है. भारत भी अपने यहां विकास की कोशिशों में लगा है और इस पक्ष को लेकर आशान्वित भी है, उत्साहित भी. लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि जब भी हमें विकास का अवसर मिलता है, हम उस अवसर का फ़ायदा नहीं उठा पाते, जिसके लिए प्रशासनिक निष्क्रियता या सरकारी स्तर पर निर्णय लेने में होने वाली देरी ज़िम्मेदार है. चालू वित्तीय घाटा बहुत बढ़ गया है. रुपये और डॉलर की सममूल्यता अब नियंत्रण के बाहर हो गई है. निश्चित तौर पर यह स्थितियां घबराहट पैदा करने वाली थीं. फिर भी वित्तमंत्री ने हालात को संभालने की कोशिश ज़रूर की, यद्यपि कुछ देर से की. उन्होंने सोना और दूसरी ग़ैर-ज़रूरी वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध लगाया. इस तरह के प्रयासों से स्थिति नियंत्रण में आई. मैं उन लोगों में से हूं, जिन्होंने 1991 में आर्थिक संकट के दौर से आज तक कभी भी आर्थिक हालात को लेकर अनावश्यक रूप से चिंता नहीं जताई. ऐसा इसलिए है क्योंकि जब भी हम ऐसी मुश्किल में आतें हैं, उसके पीछे की पहली वजह उन हालात को लेकर हमारी लापरवाही और ़फैसलों में होने वाली देरी ही रहती है.
2014 एक और महत्वपूर्ण स्थिति लेकर आएगा. वह है आम चुनाव. अगर आर्थिक परिदृश्य के संदर्भ में बात करें तो लोग इस बात का भी इंतज़ार कर रहे हैं कि चुनाव हों और नए प्रयास व नई नीतियां सामने आएं. हालांकि, इस पक्ष को लेकर बड़ी संभावनाएं नहीं जताई जा सकतीं, क्योंकि जो भी सरकार सत्ता में आती है, वह ऐसी ही नीतियों के साथ आगे बढ़ती है. फिर भी अर्थव्यवस्था की बात छोड़ दें तो चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि जो भी नई सरकार आएगी, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर नई नीतियां लेकर आएगी. इन नई राजनीतिक सामाजिक नीतियों को लेकर बहुत सारे आकलन हैं और बहुत सारे ख़तरे भी.
जो कारोबारी तबका है, वह इस बात को लेकर उत्साहित है कि भाजपा सत्ता में आएगी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे. व्यापारी वैसे भी सामान्य तौर अपने हितों के बाहर जाकर नहीं सोचते. उन्हें लग रहा कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, तो व्यापारिक हितों से जुड़े ़फैसले लिए जाएंगे और जिसके चलते समूचे देश में गुजरात मॉडल दोहराया जा सकता है. वास्तव में वे दूरदर्शी नहीं हैं. गुजरात एक ऐसा राज्य है, जहां नवउद्यमिता पहले से मौजूद थी. गुजरात कभी भी पिछड़ा राज्य नहीं था. गुजरात पहले से ही प्रगति कर रहा था, इसलिए अब वहां उसकी बेहतरी के लिए किसी ने कितनी कम या ज्यादा कोशिश की है इसका परीक्षण करना, इस पर पर चर्चा करना ज़रूरी नहीं है. जो बड़ा ख़तरा है, वह है सांप्रदायिकता. अगर समूचा देश हिंदू-मुस्लिम दंगों की गिरफ़्त में आ जाता है तो देश का अस्तित्व ही नहीं बचेगा, व्यापार और अर्थव्यवस्था की तो बात ही छोड़िए. हमें इस स्थिति से बचने का सुरक्षा कवच तैयार करना होगा. सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ आकर इस ख़तरे को दूर करना चाहिए. गैर-कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में सबके अपने-अपने अहम हैं. हर नेता को लगता है कि वही सही है. वह अपने राज्य में अपने क्षेत्र में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. लेकिन जब तक यह पार्टियां वोटों का बिखराव नहीं रोक पाएंगी, इन ताक़तों को रोक पाने में अक्षम ही रहेंगी. इनके लिए यह संभव नहीं है कि वह बिना कांग्रेस को साथ लिए बीजेपी से मुक़ाबला कर पाएंगे. अगर कांग्रेस और गैर-भाजपा पार्टियां क्रमबद्ध तरी़के से काम करें, तो वे सांप्रदायिक ताक़तों पर नियंत्रण पा सकती हैं या हिंदू संप्रदायवादियों को देश का शासन चलाने से रोक सकती हैं.
सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि जब भी हमें विकास का अवसर मिलता है, हम उस अवसर का फ़ायदा नहीं उठा पाते, जिसके लिए प्रशासनिक निष्क्रियता या सरकारी स्तर पर निर्णय लेने में होने वाली देरी ज़िम्मेदार है. चालू वित्तीय घाटा बहुत बढ़ गया है. रुपये और डॉलर की सममूल्यता अब नियंत्रण के बाहर हो गई है. निश्चित तौर पर यह स्थितियां घबराहट पैदा करने वाली थीं.
बावजूद इसके, अगर ऐसा नहीं हो पाता है तब भी मुझे लगता है कि भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा. ऐसी स्थिति में उन्हें एक बड़े गठबंधन के बारे में सोचना होगा. वास्तव में ऐसी स्थिति देश के लिए बेहतर ही होगी. अगर एक बड़ा गठबंधन होता है, जैसा कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय में था, तो उस भाजपा नीत एनडीए की सरकार और कांग्रेस सरकार में कोई बड़ा अंतर नहीं होगा. 2002 के गुजरात दंगे के अलावा उस सरकार में कोई बड़े सांप्रदायिक टकराव नहीं हुए थे और गुजरात दंगा भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी दोनों की ही छवि पर एक धब्बे की तरह है.
सबसे ज़रूरी बात है कि देश की जनता बुद्धिमत्तापूर्वक वोट दे, जिसके परिणाम से ही बेहतर सरकार अस्तित्व में आएगी. आख़िरकार देश दूसरे किसी भी मसले से ऊपर है. पिछले 60 वर्षों के अधिक समय से हम चुनावी प्रक्रिया देख रहे हैं. इस प्रक्रिया को सही ढंग से बनाए रखना होगा. मतदाता बड़ी संख्या में अपने इस अधिकार का प्रयोग कर रहे हैं, यह एक शुभ संकेत है. इस दिशा में चुनाव आयोग की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. अधिक से अधिक मतदाता मतदान करें, यह देश के भविष्य के लिए बेहतर है. मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि औसत संख्या में भी मतदाता स्वतंत्र रूप से मतदान करें तो देश का भविष्य सुरक्षित है, क्योंकि देश की जनता के मन में सांप्रदायिकता जैसी कोई धारणा नहीं है. किसी भी धर्म का व्यक्ति हो, फिर चाहे वह हिंदू हो, मुस्लिम हो, क्रिश्चियन हो या फिर किसी अन्य धर्म का, सामान्यत: लोग अपनी प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष होते हैं. ऐसा नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता केवल भारतीय संविधान में ही उल्लिखित है, बल्कि यह देश में सदियों से व्याप्त है. हर धर्म और जाति के लोग इस देश में वर्षों से शांति और सदभाव के साथ रह रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के लोग यह कहकर मिथ्या फैला रहे हैं कि कांग्रेस सेक्युलरिज्म. सेक्युलरिज्म कांग्रेस पार्टी के द्वारा लाया गया विचार नहीं है. यह विचार हमें हमारे धर्मग्रंथों से मिला है. वेद-उपनिषद-गीता सभी हमें धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाते हैं. यह हो सकता है कि यह ग्रंथ अपने धर्म की भाषा में संदेश देते हों, लेकिन अर्थ सबका एक ही है समानता, मानवता और ग़रीबों की सेवा. सब कुछ हमें यहीं से मिल जाएगा. कुछ नया खोजने की ज़रूरत नहीं है. हम अपने अतीत को याद रखें और उसी के अनुसार काम करें. यही हमारी सबसे बड़ी सुरक्षा है.