ramशासक दल से जुड़े कुछ नेता निरन्तर यह प्रचार कर रहे हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का शुभारम्भ 6 दिसम्बर के पूर्व हो जाएगा. राष्ट्रीय स्वयं सेवक के सर संघचालक मोहन भागवत आग्रह कर रहे हैं कि सरकार को कानून बनाकर इसका निर्माण कराना चाहिए, साथ ही वे यह भी कहते हैं कि इस प्रकरण पर हम संत समाज के साथ हैं.

इससे पहले दिल्ली में विश्व हिन्दू परिषद की बैठक में भी यह प्रश्न उठा था कि जब केंद्र और 15 राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ है, ऐसी स्थितियों में यदि मंदिर निर्माण न आरम्भ हो सका तो रामभक्तों में अविश्वास पनपेगा और इसका प्रभाव 2019 के लोकसभा चुनावों पर पड़े बिना नहीं रहेगा. विश्व हिन्दू परिषद की ओर से निरंतर यह प्रचार चल रहा है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण अब स्वप्न नहीं बल्कि असलियत होगी. इस रास्ते की सभी बाधाएं समाप्त हो चुकी हैं.

विहिप की ओर से राम मंदिर आंदोलन के दौरान निरंतर यह प्रचार हो रहा था कि इसका निर्धारण करने में कोई अदालत सक्षम नहीं है. यह तो संतों के निर्देश और उनके सुझावों के अनुसार होगा. लेकिन कठिनाई यह थी कि भारत के संविधान में संतों को न तो कोई विशेषाधिकार है, न वे अपनी इच्छाओं और अपेक्षाओं के अनुसार कोई ऐसा कार्य करने में सक्षम हैं, जो विधि सम्मत हो.

यही कारण है कि देश के कम से कम सात विशिष्ट लोग आज अदालत के आदेशों से जेल की सजाएं भुगत रहे हैं, जो अपने को ईश्वर का रूप कहते थे, जिन्हें मानने वालों की संख्या भी करोड़ों में कही जाती है, जिनकी आरती उतारी जाती थी और जिन्हें मनुष्य कोटि के बजाय विशिष्ट कोटि में गिना जाता था. कइयों को तो जमानत तक नहीं मिली. यह इस धारणा को समाप्त करता है कि साधु-संन्यासी कानून से अधिक शक्तिशाली हैं.

विश्व हिन्दू परिषद भी जब मस्जिद विध्वंश के पहले मंदिर निर्माण आंदोलन करा रहा था, तो वो भी कहता था कि इस प्रश्न का निर्णय करने में देश की कोई अदालत सक्षम ही नहीं है. यह हमारी आस्था और अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है. मस्जिद किसी अदालत के आदेश से नहीं बनी थी. मंदिर के लिए भी अदालत का क्या काम? यह बात दूसरी है कि साधु-संतो में पीठो और आश्रमों से सम्बन्धित मामले अदालतों मे चल रहे हैं.

जहां तक अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का प्रश्न है, तो रामभक्तों का एक बड़ा समुदाय है, जिसकी आकांक्षा राम की जन्मस्थली पर मंदिर बनाने की है. यह समुदाय करोड़ों नहीं अरबों की सहायता करने के लिए भी तत्पर है. स्कंद पुराण में अयोध्या की महत्ता का वर्णन है. उसमें वर्णित स्थल के आधार पर जन्मस्थल को स्वीकार करने का कोई आधार ही नहीं है. यह पुराण बाबर के भारत आगमन के पूर्व का है.

जिस स्थल पर मंदिर की आवश्यकता बताई जाती है, वह बाबरी मस्जिद के बजाय राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादित स्थल के रूप में प्रचारित किया जाता है. वह स्थल 6 दिसम्बर 1992 को विश्व हिन्दू परिषद की जुटाई भीड़ द्वारा ध्वस्त हो चुका है. लेकिन ध्वस्त स्थल पर मन्दिर बन सकता है, यदि यह मान्यता सही होती, तो पिछले 26 वर्ष से इसकी प्रतीक्षा न करनी होती. आज भी आंदोलन के कई विशिष्ट नेता तथा फैजाबाद के जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान पर आपराधिक मामला न्यायालय में विचाराधीन है. सर्वोच्च न्यायालय भी इसका शीघ्र निपटारा चाहता है.

मंदिर निर्माण को लेकर लखनऊ उच्च न्यायालय के तीन जजों ने विवादित स्थल को तीन भागों में बांटने का फैसला दिया था, जिसपर तीनों पक्षों ने अपील दायर की है और इसपर सुनवाई आरम्भ होने वाली है. इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह मामला किसी आस्था, विश्वास, धर्म और मान्यता पर नहीं, बल्कि भूमि कानून के अनुसार ही चलेगा. लाहौर में वो गुरुद्वारा यथावत विद्यमान है, जिसे मस्जिद को गिराकर सिखों ने बनाया था. पाकिस्तान में दो बार के इस्लामी शासन के बावजूद उसे अभी तक बदला नहीं जा सका है.

भारत और पाकिस्तान में वही ज़ाब्ता-ए-दीवानी लागू है, जिसे अंगे्रजों ने 1864 में लागू किया था. देश विभाजन के बाद दोनों ने इसे स्वीकार कर इसमें थोड़े से परिवर्तन किए. अंगे्रजों के काल के दीवानी मामलों में 12 वर्षों की वह सीमा भी लागू है, जो कब्जेदार को स्वामित्व का अधिकार प्रदान करती है. इसलिए इसे इस प्रसंग से अलग नहीं किया जा सकता.

बाबरी मस्जिद के ध्वंस होने के बाद 7 जनवरी 1993 को अयोध्या विशिष्ट क्षेत्र भूमि अधिग्रहण अध्यादेश आया था. बाद में संसद ने इसे कानून के रूप में परिवर्तित कर दिया. इसके बाद, 24 अक्टूबर 1994 को संविधान पीठ के पांच सदस्य इस स्थल पर राम मंदिर, मस्जिद, पुस्तकालय, वाचनालय, संग्रहालय और तीर्थयात्रियों की सुविधा वाले स्थानों का निर्माण करने के विचार से सहमत हुए. संविधान पीठ ने इस अध्यादेश को वैध माना है और मुस्लिमों का यह कथन कि मस्जिद धार्मिक स्थल है, जिसका अधिग्रहण नहीं हो सकता, अस्वीकार कर दिया है.

लेकिन संसद के कानून के बावजूद, इसके प्रावधानों के आधार पर निर्धारण नहीं हो पाया. संविधान पीठ द्वारा इस मामले में चल रहे मुकदमे को समाप्त करने के लिए की गई व्यवस्था को न्यायालय ने संविधानेत्तर मान लिया है, क्योंकि इसमें न्यायिक परिणति की कोई वैकल्पिक व्यवस्था ही नहीं की गई है. लेकिन विहिप के लोग निरंतर यह प्रचार करते हैं कि अयोध्या में मस्जिद नहीं बनने देंगे. अब सवाल उठता है कि क्या यह देश और संविधान उनकी इच्छाओं के अनुसार चलेगा या निर्धारित प्राविधानों के हिसाब से?

इस विचाराधीन अपील पर तीन न्यायधीशों की पीठ सुनवाई करेगी, जो संविधान पीठ के किसी निर्णय को समाप्त करने में सक्षम नहीं है. अयोध्या में सरकारी अभिलेखों के अनुसार, 26 मस्जिद हैं जिनमें आठ का ही प्रयोग नमाज के लिए होता है. अब सवाल उठेगा कि बाकी मस्जिदों का क्या होगा? न्यायिक परिधि की समीक्षा के परिणाम क्या होगें?

अब विहिप की ओर से यह आवाज उठाई जा रही है कि संसद प्रस्ताव पारित करके मंदिर निर्माण आरम्भ कराए, इस रास्ते में सबसे बड़ी बाधा 1993 में बना कानून है, क्योंकि एक ही विषय पर संसद दो व्यवस्थाएं नहीं कर सकती. संसद अपनी शक्ति का प्रयोग करके किसी कानून को समाप्त तो कर सकती है, लेकिन किसी अध्यादेश से नहीं. इसलिए क्या 6 दिसम्बर सेे पूर्व इन बाधाओं से मुक्ति के लिए कदम उठाए जा सकते हैं?

क्या प्रधानमंत्री मोदी देश में यह संदेश देने के पक्ष में हैं कि उनको उस सर्वोच्च न्यायालय पर विश्वास नहीं है, जिसमें यह प्रसंग विचाराधीन है? यदि संसद कोई कानून बनाए भी तो इसकी वैधता पर अन्तिम निर्णय तो सर्वोच्च न्यायालय के अधीन ही होगा कि कहीं वह संविधानेत्तर प्रयत्न तो नहीं? या वह संविधान के अनुच्छेद-21 तथा 25 के प्रावधानों के विपरीत तो नहीं? अनुच्छेद 143 (3) के तहत राष्ट्रपति द्वारा न्यायाल से राय मांगी गई थी.

इस प्रकार मंदिर निर्माण भीड़ जुटाकर नहीं, निर्णयों द्वारा ही संभव है, जिसमें लम्बा समय भी लगेगा. इसलिए चलने वाले प्रचार से यह संदेश जाता है कि ये निर्माण के बजाय इस प्रश्न को गर्म बनाने की दिशा में ही प्रयत्न कर रही है?

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