नरेंद्र मोदी सरकार ने अपना पहला पूर्ण बजट पेश करते हुए देश के कुल स्वास्थ्य बजट में कटौती कर दी है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्ष 2015-16 के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र को कुल 33,152 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं, जबकि वर्ष 2014-15 में इसके लिए 39,238 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था. उस बजट में भी पिछले साल दिसंबर में 20 प्रतिशत की कटौती की गई थी. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिए 29,653 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जबकि पिछली बार यह आवंटन 29,042 करोड़ रुपये का था. एड्स नियंत्रण विभाग के आवंटन में 7.4 प्रतिशत की वृद्धि कर 1,397 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जबकि पिछली बार 1,300 करोड़ रुपये मिले थे.
ढाई दशकों बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के गठन के बाद आशा की गई थी कि स्वास्थ्य क्षेत्र को प्राथमिकताओं में शामिल किया जाएगा और इसमें सुधार के लिए आवश्यक एवं कड़े क़दम उठाए जाएंगे. जहां जीडीपी की तुलना में आवंटन में वृद्धि की बातें हो रही थीं, वहां सरकार ने स्वास्थ्य बजट में कटौती करके सही संदेश नहीं दिया. हालांकि, सरकार ने पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के विकास पर ज़ोर देते हुए आयुष (आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, यूनानी और सिद्ध) के लिए अलग से 1,214 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. आयुष पिछले साल तक स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत एक विभाग था, लेकिन मोदी सरकार ने इसे एक अलग मंत्रालय बना दिया है. सरकार उपचार की इन प्राचीन पद्धतियों को जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित कर रही है. भारत सरकार की पहल के बाद ही संयुक्तराष्ट्र ने इसी साल 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया.
सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने के लिए स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग को 9.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ 1,018.17 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं, जबकि पिछले साल इसके लिए 932 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान में नेशनल फॉर्मासुटिकल एजुकेशन रिसर्च संस्थान खोले जाएंगे. इससे देश में नई और जेनेरिक दवाओं के शोध के क्षेत्र में मदद मिलेगी. सेवाकर में बढ़ोतरी से मरीजों के इलाज के खर्च पर असर पड़ेगा. डॉक्टरों का कहना है कि सेवाकर में बढ़ोतरी से अस्पतालों में इस्तेमाल होने वाली कई चीजें महंगी हो जाएंगी. निजी अस्पतालों की कैंटीन में खाना भी महंगा हो जाएगा. हालांकि, सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में कमी की है, जिसका फ़ायदा निजी अस्पतालों में इलाज कराने वाले मरीजों को मिलेगा. सरकार ने स्वास्थ्य बीमा के लिए छूट की सीमा 15,000 से बढ़ाकर 25,000 रुपये कर दी है. इससे लोग स्वास्थ्य बीमा कराने के लिए प्रेरित होंगे और इलाज के लिए निजी अस्पतालों की ओर रुख करेंगे, जिससे सरकारी अस्पतालों के ऊपर पड़ने वाले बोझ में कमी आएगी. लेकिन, इससे सरकार की ज़िम्मेदारी कम नहीं हो जाती, क्योंकि स्वाइन फ्लू और इबोला जैसी बीमारियां जब फैलती हैं, तब निजी अस्पताल खुद को इनके इलाज से दूर रखते हैं, ताकि उनकी साख को बट्टा न लगे. ऐसे में समाज का हर वर्ग सरकारी अस्पतालों और सरकार पर निर्भर हो जाता है. जिस वक्त देश की जनता स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी से जूझ रही है और जिसकी चपेट में आकर एक हज़ार से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं, सरकार ने ऐसी बीमारियों से निपटने की योजनाओं के बारे में कुछ भी नहीं कहा.
सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सुधारने के उद्देश्य से देश में एम्स जैसे छह और संस्थानों की स्थापना करने की घोषणा की है. यूं तो एम्स जैसा स्वास्थ्य संस्थान हर राज्य में खोला जाना चाहिए. वर्ष 2015-16 में जम्मू- कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, बिहार एवं असम में एम्स की शाखाएं स्थापित की जाएंगी. इसके बाद देश में एम्स की कुल संख्या चौदह हो जाएगी. उक्त सभी शाखाएं दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की तर्ज पर स्थापित की जाएंगी, जो संसद द्वारा पारित एक अधिनियम के तहत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में उत्कृष्ट सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक ऑटोनॉमस संस्था के रूप में 1956 से संचालित है. दिल्ली स्थित एम्स उत्तर भारत के सर्वोत्कृष्ट सरकारी अस्पताल के रूप में जाना जाता है, जहां 2,200 बेड हैं और प्रतिदिन 10,000 मरीजों के इलाज की सुविधा उपलब्ध है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इससे पहले बिहार (पटना), मध्य प्रदेश (भोपाल), ओडिशा (भुवनेश्वर), राजस्थान (जोधपुर), छत्तीसगढ़ (रायपुर) और उत्तराखंड (ऋषिकेश), उत्तर प्रदेश (रायबरेली) में एम्स जैसे अस्पताल 332 करोड़ रुपये प्रति शाखा की लागत पर स्थापित करने की मंजूरी दी थी. वित्त मंत्री ने आश्वासन दिया है कि इन संस्थानों का निर्माण कम से कम समय में पूरा किया जाएगा.
जिस तरह सरकार ने नई स्वास्थ्य नीति को विमर्श के लिए बजट से कुछ दिनों पहले रखा था, उससे उम्मीद थी कि वह अपने पहले पूर्ण बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र की दशा-दिशा में आमूलचूल परिवर्तन करेगी और देश के छोटे से छोटे सरकारी अस्पतालों को सुदृढ़ बनाने के लिए कार्य करेगी. आशा थी कि सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का 2.5 प्रतिशत खर्च करेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सरकार ने छह नए एम्स बनाने की घोषणा लोगों को स़िर्फ खुश करने के लिए की है. इनकी जगह यदि वह ग्रामीण क्षेत्रों एवं छोटे शहरों में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को मजबूत करने का प्रयास करती, तो ज़्यादा बेहतर होता. अफगानिस्तान जैसा ग़रीब और लगातार मुश्किलों से जूझता देश अपनी जीडीपी का आठ प्रतिशत स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करता है, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश चीन स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपनी जीडीपी का 5.4 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश भारत अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के रखरखाव के लिए केवल एक प्रतिशत खर्च करता है.
मां-बच्चे का स्वास्थ्य आज भी देश के लिए चुनौती बना हुआ है. सरकार ने इस वर्ष आईसीडीएस (एकीकृत बाल विकास योजना) के अंतर्गत केवल 8335.77 करोड़ रुपयेे का प्रावधान किया है, जबकि पिछले बजट में यह राशि 18,195 करोड़ रुपये थी. हालांकि, इस योजना के अंतर्गत होने वाले व्यय का कोई असर देखने को नहीं मिल रहा है. वर्तमान में भारत में दुनिया के सबसे अधिक कुपोषित बच्चे रहते हैं. यूनीसेफ द्वारा हाल में जारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 6.1 करोड़ बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. पांच वर्ष तक के 48 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. जबकि बांग्लादेश एवं पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में 43 और 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. सरकार को इस योजना के ढांचे में बदलाव करके हर बच्चे के लिए पोषण सुनिश्चित करना चाहिए था, लेकिन उसने इस मद में कटौती कर दी. स्वच्छ भारत अभियान को स्वच्छ भारत मिशन से जोड़े जाने से स्वास्थ्य क्षेत्र का दायरा बढ़ गया है. स्वच्छ भारत अभियान स्वस्थ भारत की दिशा में उठाया गया क़दम है. देश में अधिकांश बीमारियां गंदगी की वजह से फैलती हैं. बजट में देश भर में शौचालय बनाने का ऐलान किया गया है. यदि ऐसा हो जाता है, तो गंदगी की वजह से फैलने वाली बीमारियों में निश्चित तौर पर कमी आएगी. पोषण, स्वास्थ्य और खेल ये तीनों क्षेत्र इंटरडिपेंडेंट हैं. जब देश का बच्चा कुपोषित नहीं होगा, तभी स्वस्थ होगा और तभी वह एक सफल खिलाड़ी बन सकेगा. लेकिन, सरकार ने बजट में इन तीनों क्षेत्रों के बीच संतुलन नहीं बनाया.
सरकार ने एम्स जैसे नए संस्थान खोलने की बात तो कही, लेकिन अब तक जितने भी नए एम्स खोले गए हैं, उनकी वर्तमान स्थिति, उन्हें एम्स (दिल्ली) के समकक्ष बनाने के उपायों के बारे में कुछ नहीं बताया. और, न यह बताया कि वे पूरी क्षमता के साथ कब तक काम करने लगेंगे. वर्तमान में सबसे ज़्यादा ज़रूरत प्राथमिक एवं द्वितीयक स्वास्थ्य केंद्रों को सुदृढ़ करने की है, जिन पर देश की अधिकतम आबादी निर्भर है. सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र में दिखावे से हटकर काम करना पड़ेगा, ताकि स्वस्थ और समृद्ध भारत का सपना पूरा हो सके.