गैस त्रासदी के जख्म देख चुके लोगों का कहना, मुश्किल उससे भी बड़ी है, लेकिन गुजर जाएगी
भोपाल। 37 साल पहले मिले गैस त्रासदी के जख्म आज भी शहरवासियों के दिलों पर ताजे हैं। अपनों के बिछडऩे का गम, खुद के लाचार हो जाने का दर्द, हर तरफ पसरी बर्बादी का आलम आज भी उनके मस्तिष्क पर कल की बात की तरह चस्पा हैं। उस समय बने हालात और अब कोविड के चलते बनी स्थितियों में तालमेल करने का मौका आता है तो वे कहने से नहीं चूकते कि वह त्रासदी बहुत छोटी थी, जिसने सीमित क्षेत्र के चंद लोगों का नुकसान किया था, यह बीमारी शहर, प्रदेश और देश की सीमाओं से परे दुनिया पर छाई हुई है।
जिससे होने वाले नुकसान का आंकड़ा भी बड़ा और ज्यादा डरावना है। लेकिन इन सबके बीच भी इस बात पर यकीन किया जाना चाहिए मुश्किल वक्त कोई भी हो, स्थायी नहीं होता, वह वक्त भी गुजर गया था, यह भी विदा हो जाएगा। थोड़ा सा संयम, थोड़ा अहतियात, थोड़ा इलाज और सबके लिए भलाई का इरादा रखकर इस मुश्किल घड़ी से भी किनारा पा जाएंगे, इसकी उम्मीद की जाना चाहिए।
गैस त्रासदी और कोरोना हालात की तुलना करते हुए मुनव्वर कौसर कहते हैं कि इन दोनों मामलों को एकसाथ देखा जाना ही गलत है। वह स्थिति एक हादसा थी और यह हालात कुदरती कहर के हैं। उसका दायरा महज 15-20 वार्डों तक सीमित था और समयावधि महज चंद दिनों की थी, जबकि कोरोना ने सारी दुनिया को अपनी चपेट में लिया है और इसके शिकार होने वालों की तादाद भी बड़ी है।
इसके वापसी का समय भी तय नहीं किया जा सकता। मुनव्वर कौसर कहते हैं कि इन सबके बाद भी इस बात का यकीन रखना चाहिए कि हर बुरे समय में मददगार और लोगों के लिए अच्छे ख्याल रखने वाले खड़े दिखाई देते हैं। गैस त्रासदी जैसे बड़े हालात से लेकर कोरोना कहर के इस दौर तक मददगारों ने अपनी मौजूदगी दिखाई है और वे हमेशा लोगों की मदद के लिए खड़े दिखाई दिए हैं।
वे कहते हैं कि हालांकि आज हालात ऐसे हैं कि मददगार खुद ही मदद के मोहताज हो गए हैं, दुआओं के लिए मंदिर-मंदिरों के दरवाज बंद दिखाई दे रहे हैं, लेकिन ऐसे वक्त में भी हमें उम्मीद का दामन नहीं छोडऩा चाहिए। हर दिल में खुदा बसता है, हर कोने से वह अपने बंदे की पुकार सुनता है, उसने हमेशा सबकी सुनी है, इस बार भी सुनेगा, बस जरूरत इस बात की है कि हम उसको सच्चे दिल से पुकारें और अपनी गल्तियों की माफी के साथ हालात आसान करने की फरियाद उससे करते रहें।
गैस त्रासदी के हालात से वाकिफ रहे सतीश सक्सेना कहते हैं कि हालात वह भी बुरे थे, यह उससे भी ज्यादा खराब हैं। लेकिन पॉजीटिव सोच और बेहतर की कल्पना करना इंसान को हर मुश्किल समय से उबार देता है। यही लोग थे, यही दुनिया थी, यही समाज था, सबने मिलकर उस संकट काल को देखा, भोगा और उससे निजात पाने के रास्ते भी आसान किए थे। यह समय भी लोगों के धैर्य की परीक्षा वाला है। धैर्य रखकर ईश्वर के इशारे को समझना होगा, सब्र से इस संकट से निकलने की कोशिश करना होगी और कोशिशों में लगे लोगों की बात को स्वीकार करना होगा। आज हम जिन हालात से गुजर रहे हैं, उसमें दूसरों की गल्तियां गिनाने की बजाए इस बात पर नजर दौड़ाएं कि हम अपनी तरफ से खुद क्या करें, जिससे यह मुश्किल टल जाए, सब कुछ सामान्य हो जाए।
सतीश सक्सेना कहते हैं कि मुश्किल और संकट का दौर एक तरह से इंसान की परीक्षा का समय होता है, इस परीक्षा में अपना बेहतर परफॉरमेंस देने वाला दुनिया के लिए भी जीता हुआ कहलाएगा और ईश्वर की नजर में भी उसको सर्वोत्तम स्थान मिलेगा। पंडित श्याम मिश्रा कहते हैं कि मुश्किलों के उस दौर को स्वयं अपनी आंखों से तो नहीं देखा है, लेकिन तब की विभत्सा को पढ़ा, सुना और तस्वीरों में देखा है। अहसास किया जा सकता है कि उस समय अफरा-तफरी का क्या आलम क्या रहा होगा। उस समय के हालात को आज के कोरोना काल से जोड़कर देखा जाए तो उस समय की मुश्किल बहुत छोटी सी प्रतीत होती है।
लेकिन मेरी जानकारी यही है कि उस संकट के दौर में भी लोगों ने ईश्वर शरण से ही सारे हालात को काबू किया गया था। एक-दूसरे की मदद के लिए बढ़े लोगों के कदम ने पीडि़तों के दर्द को कम किया था। आज हालात पहले से ज्यादा बुरे और मुश्किल हैं। लोगों को भलाइ का रास्ता थामे रखना चाहिए। इंसान की यह क्रिया ईश्वर के बेहतर परिणाम वाली प्रतिक्रिया के रूप में आएगी, इसका विश्वास रखें। ईश्वर की संतान को मुश्किल से बाहर निकालकर आप निश्चित तौर पर ईश्वर के काम में सहयागी बनें इससे बड़ा कोई कर्म नहीं हो सकता। पं मिश्रा का कहना है कि महामारी के इस दौर में सबके लिए बेहतरी की प्रार्थना, हर जरूरतमंद को अपनी क्षमता के मुताबिक सहयोग और दूसरे की मुश्किल को अपने ह्रदय में महससू करने वाला ही ईश्वर की सच्ची कृति कहला सकता है।