आज से तिरासी वर्ष पहले 1927 के हरिद्वार महाकुंभ के ब्र्रिटिश मेलाधिकारी डब्लू. बी. क्रिस्टी ने मेला समाप्त होने के बाद दी गई अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था कि मेला भूमि पर बढ़ रहे अतिक्रमणों को रोका जाना ज़रूरी है. अगर मेला भूमि को अतिक्रमण से न बचाया गया तो भविष्य में हरिद्वार में कुंभ मेले का आयोजन करना दुश्वार हो जाएगा. तबसे अब तक अतिक्रमण तो रुके नहीं,  अलबत्ता हरिद्वार के मुख्य अमृत स्थल हरकी पौड़ी पहुंच कर स्नान करने की कुंभयात्रियों की कामना ज़रूर धूमिल होती चली गई.

हरिद्वार के बारे में कहा जाता था कि यहां भूमि या तो सरकार के सिंचाई विभाग की है या फिर आश्रम-अखाड़ों की, लेकिन बाद में धीरे-धीरे भूमि का हस्तांतरण होता चला गया.

1868 में नगरपालिका के गठन के बाद भूमि के पट्टे दिए जाने की परंपरा शुरू हुई. संस्थाओं को और निजी स्तर पर पट्टे दिए गए, जो कालांतर में फ्रीहोल्ड कर दिए गए. किसी ज़माने का तपोवन धीरे-धीरे शहर में तब्दील होता चला गया. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हरिद्वार आए भारत के पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक अलैक्जेंडर कनिंघम के अनुसार, तपस्वियों की साधनास्थली हरिद्वार का तपोवन रूप तो अकबर के ज़माने में राजा मानसिंह द्वारा शहर बसाए जाने की प्रक्रिया के साथ ही बदलना शुरू हो गया था, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति और देश विभाजन के बाद तो इस प्रक्रिया में ज़बरदस्त तेज़ी आई. पाकिस्तान से हरिद्वार आए शरणार्थियों के कारण ढार्ई हज़ार पंडों की बस्ती कहलाने वाले हरिद्वार की जनसंख्या में ही नहीं, बल्कि शहरीपन में भी अंतर आता चला गया. फिर भी बरसों तक हरिद्वार एक कस्बा ही था. न तहसील बना था और न ज़िला. राजनीतिक चेतना और प्रशासनिक ज़रूरतों के चलते हरिद्वार 1984 में तहसील और फिर 1988 में ज़िला बना. छठे दशक में यहां भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड की स्थापना के साथ इस तीर्थनगर के औद्योगीकरण का दौर शुरू हुआ, जो अब भी अनवरत जारी है.
इन सब परिवर्तनों का असर यह रहा कि पूरे देश की तरह हरिद्वार में भी जनसंख्या विस्फोट हुआ. लोग बढ़ते गए, घर बढ़ते गए, दुकानें एवं बाज़ार बढ़ते गए और हरिद्वार इन सबके लिए छोटा पड़ता चला गया. जब हरिद्वार स्थायी निवासियों के लिए ही छोटा पड़ गया तो यहां आने वाले तीर्थयात्रियों के लिहाज़ से इसकी सीमाएं बढ़ाने की ज़रूरत स्वाभाविक थी. विकास के साथ-साथ सड़कों के निर्माण व यातायात के साधनों की बढ़ोतरी ने भी हरिद्वार को और अधिक संकरा कर दिया. दुपहिया, तिपहिया और चौपहिया वाहनों की बाढ़ ने आज सड़कों पर पैदल चलना मुहाल कर रखा है. गलियों, सड़कों और बाज़ारों को संकरा बनाने में सर्वाधिक भूमिका निभाई अतिक्रमणों ने. अतिक्रमण सामान्य दिनों में स्थायी निवासियों के लिए सिरदर्द होते हैं और मेले के समय तीर्थयात्रियों एवं प्रशासन के लिए समस्या बन जाते हैं.
हर कुंभ-अर्द्धकुंभ से पहले इन्हें हटाने की कवायद की जाती है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाली कहावत को ही चरितार्थ करता है.  हरिद्वार अपने धार्मिक चरित्र के चलते जहां आस्तिक तीर्थयात्रियों का आकर्षण स्थल है, वहीं यह तीर्थाटन और पर्यटन प्रेमियों के चलते चाहे-अनचाहे दूरदराज़ के कई वर्गों को अपनी बांहों में समेट लेता है. इनमें पहला वर्ग है भिखारियों का. हरिद्वार में देश भर के भिखारियों का जमावड़ा लगता है, जो यहां चल रहे मुफ़्त के लंगरों और अन्नक्षेत्रों के भरोसे आ जुटते हैं तथा यत्र-तत्र डेरा जमाए पड़े रहते हैं. सरकारी स्थानों, पार्कों, गंगातटों, घाटों और बाज़ारों में जहां-तहां बिखरे भिखारियों के साथ इनके परिवार भी हैं. इनके लिए सरकार ने भिक्षुक सदन की व्यवस्था की है, पर वह भिखारियों की विराट जनसंख्या के आगे ऊंट के मुंह में जीरा बराबर है. इसके बाद नंबर आता है रिक्शे और ठेलीवालों का. हरिद्वार इन लोगों के लिए आजीविका देने वाला शहर है. हरिद्वार की नगरपालिका में एक विभाग है, जिसे हैक्नीकैरिज डिपार्टमेंट के नाम से जाना जाता है. इस विभाग का काम है रिक्शों, तांगों और ठेलियों का हिसाब रखना और उनकी संख्या को नियंत्रित करना.

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