मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर खूब सियासत हुई. उत्तर प्रदेश सरकार, समाजवादी पार्टी, पूर्ववर्ती केंद्र सरकार और उसकी सूत्रधार कांग्रेस ने स्वयं को मुसलमानों का हितैषी दर्शाने की सारी हदें लांघीं, लेकिन साबित यही हुआ कि आम नागरिक कभी किसी सत्ता का प्रिय नहीं होता. नागरिकों के सरोकार कभी राजनीतिक दलों की प्राथमिकता पर नहीं रहते. दंगों पर सियासत हो सकती है, वोट झटके जा सकते हैं, पर कार्रवाई नहीं हो सकती. चलिए, मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर हम आपको कुछ रोचक वाकये सुनाते हैं. सरकारों, पार्टियों, नौकरशाही, आयोग और अदालतों ने दंगों को लेकर इतना फूहड़ हास्य सृजित किया कि साहित्य को भी शर्म आने लगे. दंगों को लेकर हुए पाखंड को हम खंड-खंड आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं. दंगों को लेकर की गई कार्रवाई, राहत की व्यवस्थाओं और एहतियात जैसे सामान्य जिज्ञासा के सवालों का जवाब देने में भी देश से लेकर प्रदेश तक शासन-प्रशासन तंत्र ने कितनी बदमिजाजी दिखाई, उसे आप देखें, तो आपको लोकतंत्र समझ में आ जाए. सूचना का अधिकार क़ानून के तहत सलीम बेग ने सवाल पूछे थे. उनके नायाब जवाब आए. आप भी देखिए…
उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री कार्यालय : मुख्यमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव डॉ. नंदलाल ने कहा कि पूछे गए सवाल गृह विभाग से संबद्ध हैं. गृह विभाग के प्रमुख सचिव को निर्देशित किया जाता है कि वे संदर्भित सूचनाएं प्रदान करें, अन्यथा सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 5 (5) के तहत उत्तरदायी माने जाएंगे.
अल्पसंख्यक कल्याण एवं वक्फ अनुभाग : मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों से प्रभावित अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण एवं जांच दलों द्वारा की गई कार्रवाई से संबंधित कार्य अल्पसंख्यक कल्याण विभाग में व्यवहृत नहीं किया जाता है, बल्कि गृह विभाग में व्यवहृत होता है.
उत्तर प्रदेश सरकार का गृह विभाग: संदर्भित पत्र में पूछे गए सवालों का गृह विभाग से कोई संबंध नहीं है.
उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक मुख्यालय : सूचना प्राप्त करने के लिए लेखाधिकारी-पुलिस महानिदेशक के नाम से 10 रुपये का पोस्टल ऑर्डर भेजा है, जबकि उसे जनसूचना अधिकारी, पुलिस मुख्यालय के नाम से भेजना चाहिए था. लिहाजा, सूचना नहीं दी जा सकती.
वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, मुजफ्फरनगर कार्यालय : ज़िले के विभिन्न थानों में दर्ज हुए दंगों से जुड़े मामलों के बारे में पूछे जाने पर मुजफ्फरनगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कार्यालय ने कहा, संदर्भित सूचना सांप्रदायिक दंगों से संबंधित है. लिहाजा, इस बारे में जानकारी दिया जाना सूचना का अधिकार अधिनियम-225 की धारा 8 (1) (ज) के तहत बाध्यकारी नहीं है.
उत्तर प्रदेश राज्य मानवाधिकार आयोग : प्रश्नगत प्रकरण में कतिपय शिकायतें (आठ) प्राप्त हुई हैं. प्रश्नगत अवधि में आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों के पद रिक्त चल रहे थे. वर्तमान में अध्यक्ष और सदस्य पदभार ग्रहण कर चुके हैं. प्रकरण आयोग के अवलोकनार्थ अभी विचाराधीन है. आयोग के निर्णयोपरांत अग्रेतर कार्यवाही से यथा समय अवगत करा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग : उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग में मुजफ्फरनगर दंगे से संबंधित कोई शिकायती पत्र प्राप्त नहीं हुआ है. उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग का गठन अभी नहीं हुआ है. अत: कोई जांच दल नहीं भेजा गया है. अत: किसी कार्यवाही का प्रश्न ही नहीं है.
…आपने देखा न, मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार और अल्पसंख्यक हित देखने वाले आयोग कितने संजीदा हैं! ये सारे आधिकारिक जवाब उत्तर प्रदेश सरकार की संजीदगी के आडंबर का पर्दाफाश है. विडंबना यह है कि सलीम बेग को लिखे जवाब में राज्य अल्पसंख्यक आयोग के सचिव मोहम्मद मारूफ एक नंबर बिंदु से लेकर छह नंबर बिंदु तक एक ही बात का रट्टा लगाए हैं कि आयोग में कोई शिकायत नहीं आई है. आयोग का गठन नहीं हुआ है. आयोग ने कोई जांच नहीं की, न कोई दल भेजा और न कोई कार्यवाही की. अल्पसंख्यक आयोग के यह सचिव महोदय आधिकारिक तौर पर भी झूठ बोलने के विशेषज्ञ हैं. आरटीआई योद्धा सलीम बेग का जवाब देते हुए मोहम्मद मारूफ ने यह नहीं सोचा कि उन्होंने सहारनपुर मंडल के आयुक्त को पत्र लिखकर दंगों की जो अद्यतन रिपोर्ट तलब की थी, वह इस संवाददाता के भी हाथ लग सकती है.
सहारनपुर के मंडलायुक्त ने सचिव को क्या जवाब भेजा और उस जवाब को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया, इसकी प्रभावकारी वजह के बारे में तो मोहम्मद मारूफ ही बता सकते हैं.
अब देखिए, राज्य मानवाधिकार आयोग का हाल. आयोग के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एम एल वाजपेयी एक तरफ़ कहते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे से संबंधित कतिपय शिकायतें प्राप्त हुई हैं. फिर कहते हैं कि आयोग के अध्यक्ष और सदस्य का पद खाली है. फिर कहते हैं कि अध्यक्ष और सदस्य आ गए. इसके बावजूद दंगा प्रकरण आयोग के अवलोकनार्थ भी नहीं आया. अब ऐसे आयोग के लिए आह निकले या वाह! ऐसे निरर्थक आयोगों के लिए आह और वाह दोनों शब्द माकूल हैं. उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक कार्यालय को दंगे जैसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील मसले पर सूचना देने से अधिक प्रिय 10 रुपये का पोस्टल ऑर्डर है. पोस्टल ऑर्डर भेजा भी गया, लेकिन उस पर लेखाधिकारी-पुलिस मुख्यालय लिख गया, तो उसे लौटा दिया गया. अधिनियम कहता है कि पोस्टल ऑर्डर के लिए सूचना रोकना ग़ैर-क़ानूनी है. अब आइए राज्य के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग और प्रदेश के गृह विभाग के निर्लज्ज जवाब पर. अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को दंगों से जुड़े किसी भी सवाल से कोई लेना-देना नहीं है. उस विभाग के अनु-सचिव मनीराम कहते हैं कि यह मामला गृह विभाग से संबद्ध है. इस पर गृह विभाग आगे बढ़कर जवाबी बल्लेबाजी करता हुआ कहता है कि दंगे से जुड़े सवाल गृह विभाग से संबद्ध नहीं हैं. गृह विभाग ऐसा जवाब देकर न केवल अल्पसंख्यक कल्याण विभाग, बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय को भी करारा तमाचा लगाता है. इस तमाचे की अनुगूंज दुनिया तो सुनती है, पर मुख्यमंत्री दफ्तर नहीं सुनता.
अब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृह मंत्रालय, अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय और राष्ट्रीय आयोगों का हाल सुनिए…
राष्ट्रपति भवन के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी सौरभ विजय कहते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे से संबद्ध सूचनाएं राष्ट्रपति सचिवालय में उपलब्ध नहीं हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय से जब इस बारे में पूछा गया, तो केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी सैयद इकराम रिजवी ने यह लिखकर मामला टाल दिया कि जो जवाब दे दिया गया, वह पूर्ण है. और, वह जवाब क्या था? जवाब था, मांगी गई सूचना तीसरे पक्ष से संबंधित है और इसके प्रकटन से एकांतता पर अनावश्यक अतिक्रमण होगा. अपीलीय अधिकारी कृष्ण कुमार ने अपने जवाब में कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी को 15 दिनों के अंदर सूचना मुहैया कराने के लिए निर्देशित किया जाता है. कृष्ण कुमार ने तीन फरवरी को पत्र लिखा और 15 दिनों का इंतज़ार किए बगैर उसी दिन मामला निस्तारित भी कर दिया. अब अपने सवाल के भंवरनुमा जवाब पर प्रश्नकर्ता चक्कर खाता रहे. सूचना के अधिकार का औचित्य यही रह गया है.
केंद्र का अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय आधिकारिक तौर पर कहता है कि तत्कालीन मंत्री के रहमान खान एवं अफसरों का दल मुजफ्फरनगर दंगे के प्रभावित क्षेत्रों और राहत शिविरों के दौरे पर गया था. फिर यह भी कहता है कि मंत्रालय ने कोई टीम नहीं भेजी. विचित्र यह है कि मुजफ्फरनगर दंगे से जुड़े सवालों को जवाब के लिए पहले मंत्रालय के मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम वाले महकमे में भेज दिया गया था. काफी धक्के खाने के बाद मंत्रालय पहुंचने पर यह जवाब आया. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मुजफ्फनगर दंगे से संबद्ध कार्रवाइयों के बारे में पूछे गए सवाल का जवाब देने के बजाय 10 रुपये के पोस्टल ऑर्डर का मसला उठाया. आयोग ने कहा कि अस्पष्ट तारीख वाले पोस्टल ऑर्डर पर जवाब नहीं भेजा जाएगा. उस पोस्टल ऑर्डर की कॉपी इस संवाददाता के पास है, जो आयोग के सफेद झूठ का सफेद सुबूत है.
मुजफ्फरनगर मामले में केंद्र की ओर से की गई कार्रवाई के बारे में पूछे गए सवाल पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा, क़ानून व्यवस्था राज्य का मामला है. राज्य की तरफ़ से मदद मांगने पर केंद्र सरकार अर्धसैनिक बल भेजती है. इस बारे में विस्तृत ब्यौरा नहीं दिया जा सकता. केंद्र की ओर से कोई जांच दल भेजे जाने के बारे में पूछे गए सवाल पर गृह मंत्रालय कहता है कि मुख्य लोक सूचना अधिकारी को इस बारे में कोई सूचना नहीं है. गृह मंत्रालय ने यह ज़रूर बताया कि दंगा प्रभावित क्षेत्रों में केंद्रीय अर्धसैनिक बल की 78 कंपनियां तैनात की गई थीं और राज्य सरकार के सहयोग के लिए केंद्र से व्यापक राहत सामग्री भेजी गई थी.
अब राष्ट्रीय महिला आयोग का हाल भी देखते चलें. महिला आयोग ने जांच दल गठित किया और उसे दस दिनों के भीतर जांच रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया. यह 18 सितंबर, 2013 का ही आदेश है. तक़रीबन एक वर्ष बीतने को हैं, फिर जांच रिपोर्ट देने में कोताही क्यों? इसलिए, क्योंकि दंगों पर उठे सवालों का जवाब देने से वोट नहीं मिलता. जख्म कुरेदते रहने से वोट मिलता है. राजनीतिक दलों को इसमें विशेषज्ञता हासिल है…
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