मुख़बिर/मुजरिम/हीरो – माफ कीजिएगा, यह किसी सरकारी फार्म में पूछा गया सवाल नहीं है कि सही जवाब पर निशान लगाना हो. दरअसल यह एक आदमी की ज़िंदगी की कहानी है. इस आदमी की दास्तां में कई अजीबोगरीब पेंच हैं. यह आदमी एक सज़ायाफ्ता मुज़रिम है, सालों एफबीआई का मुखबिर रह चुका है और कुछ की मानें तो यह अमेरिका का एक सच्चा हीरो है. आख़िर सच्चाई क्या है? ऊपर दिए विकल्पों में कौन सा सही है? एक भी सही नहीं है या सारे सही हैं? आख़िर कौन है यह शख्स जिसकी ज़िंदगी ही एक अबूझ पहेली है. एफबीआई की कहानी की इस कड़ी में सामना उसके असली चेहरे से..
अपराध का कोई एक चेहरा नहीं होता. सारे अपराध काले भी नहीं होते. सफेदपोशी में भी सारे अपराध नहीं होते. मारियो पूजो के शब्द उधार लें, तो अपराध दरअसल अपराध नहीं, शुद्ध व्यापार है (देयर इज़ नथिंग पर्सनल, इट्स बिज़नेस, प्योर बिज़नेस). कुछ अपराध दिन के उजाले में, समाज में सम्मानजनक स्थिति रखने वाले, बड़ी पहुंच और ऊंचे रूतबे वाले भी करते हैं. ये कोई कत्ल, चोरी या डकैती नहीं करते लेकिन करोड़ों के व्यारे-न्यारे यहां भी होते हैं. ज़ुर्म की भाषा में यह व्हाइट कॉलर क्राइम (या फिर कहें व्यापार) कहलाता है.
काले अपराध की परत-दर-परत उधाड़ने वाला एफबीआई इस व्हाइट कॉलर अपराध की छानबीन में भी पीछे नहीं है. ऐसे ही एक व्हाइट कॉलर अपराध की कहानी शुरू हुई-1992 में. उन दिनों एफबीआई को कॉरपोरेट एसपायनेज़ (व्यापारिक सूचनाओं का अवैध लेनदेन) के मामले की छानबीन का ज़िम्मा मिला था. वह अमेरिका में खाने-पीने की चीज़ों के व्यापार से जुड़ी कंपनी एडीएम (आर्चर डेनियल्स मिडलैंड) के अधिकारियों से इस मामले में पूछताछ कर रही थी. अब तक उसके जांच के नतीज़े किसी काम के नहीं थे. ऐसे में एडीएम के ख़िला़फ मामला ख़त्म करने की बात सोची जा रही थी. उसी व़क्त, पूछताछ के आख़िरी दौर में एक एडीएम अधिकारी ने कुछ ऐसी बात बताई जिससे एफबीआई सकते में आ गई. इस अधिकारी ने जो खुलासा किया था उससे एसपायनेज़ के मामले में तो कोई मदद नहीं मिली लेकिन एक नया मामला खुल गया. यह कल्पना से भी कहीं भयावह सच था.
दरअसल उस अधिकारी ने बताया था कि एडीएम में वह और उसके साथी मिलकर चीज़ों- ख़ासकर लायसीन नाम के एक अमीनो एसिड- के दाम तय करने का काम करते हैं. यह एक बहुत बड़ा अपराध था क्योंकि इससे जनता और सरकार को बड़ा नुक़सान होता था और कंपनी को करोड़ों का फायदा. यह मामला किसी एक कंपनी का ही नहीं था, इसमें कई देशों की कंपनियां शामिल थीं. इस पूरे मामले का खुलासा करने वाला व्यक्ति एडीएम का वाइस-प्रेसीडेंट और भावी प्रेसीडेंट था. उसका कहना था कि वह अपनी कंपनी के कई बड़े अधिकारियों के साथ रिश्वत और धोखाधड़ी के ज़रिए दाम तय करवाने के काम में शामिल रहा था. इस पूरे मामले का खुलासा करने की बात पर उसने कहा कि ऐसा उसने अपनी पत्नी के कहने पर किया. उस अनोखे आदमी का नाम था- मार्क विटक्रे.
मार्क विटक्रे कंपनी का सबसे तेज़ी से उभरता सितारा था और उसे कंपनी के अधिकतर मामलों की पूरी जानकारी थी. एफबीआई को उसके साथ आने से बहुत फायदा हुआ. अगले तीन वर्षों तक मार्क विटक्रे पहले की तरह अपने ऑफिस जाता रहा लेकिन उसके साथ एफबीआई का दिया हुआ ट्रांसमीटर होता था. इसके ज़रिए एफबीआई ने एडीएम और साथी कंपनियों के सारे राज़ जुटा लिए. दाम तय करने के इस अपराध में एफबीआई ने एडीएम पर मुक़दमा चलाया तो विटक्रे उसका सबसे बड़ा गवाह था. इस मामले में अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा एंटीट्रस्ट (धोखाधड़ी) का मुक़दमा चला. अदालत ने विटक्रे के जुटाए सबूतों के आधार पर एडीएम को 100 मिलियन डॉलर यानी 500 करोड़ रुपए के ज़ुर्माने की सज़ा सुनाई. इसके अलावा दूसरे याचिकाकर्ताओं को भी कंपनी को बड़े पैमाने पर मुआवज़ा चुकाना पड़ा. ऐसा लगा कि अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े व्हाइट कॉलर अपराध का पटाक्षेप हो चुका था, लेकिन असली कहानी तो अभी बाक़ी थी. यह कहानी मार्क विटक्रे के दूसरे चेहरे की थी. मुख़बिर के तौर पर विटक्रे को पूरी दुनिया जान गई थी. अब मुज़रिम विटक्रे की बारी थी.
दरअसल जब मामला कोर्ट में पहुंचा तो एफबीआई का यह स्टार गवाह ख़ुद ही मुश्किलों में फंस गया. मुश्किल यह थी कि मार्क विटक्रे एफबीआई का सबसे बड़ा मुख़बिर होने के साथ-साथ अपनी कंपनी के फंड में धोखाधड़ी भी कर रहा था. उसपर आरोप लगा कि उसने अपनी कंपनी के फंड से नौ मिलियन डॉलर से भी ज़्यादा का ग़बन कर लिया था. उसके काम करने का तरीक़ा बड़ा सीधा और सरल था. उसने कई फर्ज़ी कंपनियां बनाईं, उनके नाम से एडीएम को बिल भेजे और फिर उसके पैसे अपने अकाउंट में जमा करा लिए. जब यह बिल एडीएम पहुंचते तो इन्हें पास करवाने के लिए एक वाइस-प्रेसीडेंट के हस्ताक्षर की ज़रूरत पड़ती थी, ज़ाहिर तौर पर यह काम मार्क विटक्रे ख़ुद करता था. यह भी खुलासा हुआ कि विटक्रे को असल में बाई-पोलर डिसॉर्डर यानी मूड में अचानक बदलाव की समस्या थी.
इन खुलासों से एफबीआई और अमेरिकी जस्टिस डिपार्टमेंट के बीच खींचातानी शुरू हो गई. एफबीआई चाहती थी कि मार्क विटक्रे को उसके योगदान की वजह से सज़ा में छूट मिले, वहीं जस्टिस डिपार्टमेंट उसे सज़ा दिलवाने के हक़ में था. अंत में विटक्रे को दस साल की सज़ा हुई.
सबसे अजीब बात यह थी कि यह सज़ा एडीएम के दूसरे लोगों की दी गई सज़ा से तीन गुना ज़्यादा थी. कई लोगों को लगा कि विटक्रे को मिली सज़ा बहुत सख्त थी. कुछ लोगों ने यह भी आरोप लगाया कि विटक्रे को एडीएम के ख़िला़फ काम करने की सज़ा मिली है. साथ ही विटक्रे को राष्ट्रपति से क्षमादान दिलाने की कोशिशें तेज़ हो गईं. हालांकि इस समय विटक्रे के परिवार ने गजब की एकजुटता दिखाई. जिस भी जेल में विटक्रे को रखा जाता, उसका परिवार उसी शहर में रहने आ जाता और हर हफ़्ते उससे मिला करता.
उधर विटक्रे को माफी दिलवाने की कोशिश में लगे लोगों में कई बड़े नाम भी शामिल हो गए. हालांकि साढ़े आठ साल बाद मार्क विटक्रे को रिहाई मिली. इसके तुरंत बाद उसे कैलिफोर्निया की एक कंपनी साइप्रस सिस्टम्स में मुख्य ऑपरेशनल अधिकारी का पद मिल गया. 2008 में उनके मामले के निरीक्षक रहे पूर्व एफबीआई एजेंट पेसली ने एक बयान में कहा कि अगर विटक्रे पर धोखाधड़ी का आरोप न लगा होता तो वह एक राष्ट्रीय हीरो होते, सच कहूं तो वह वास्तव में एक हीरो हैं.
फिलहाल मार्क विटक्रे साइप्रस सिस्टम्स में सीओओ और प्रेसीडेंट ऑपरेशंस के पद पर काम कर रहा है. उसकी ज़िंदगी पर एक फिल्म-द इनफॉरमेंट-बन रही है जिसमें उसका किरदार मैट डेमन निभा रहे हैं. उसके समर्थक अभी भी उन्हें हीरो मानते हैं, जस्टिस डिपार्टमेंट की नज़रों में वह अभी भी एक मुज़रिम है तो एफबीआई उसे अपने सबसे क़ामयाब व्हाइट कॉलर क्राइम मिशन का स्टार मुख़बिर मानती है. विटक्रे को कौन सा चेहरा पसंद हैं, कोई नहीं जानता. आप क्या मानते हैं, आप ख़ुद फैसला कीजिए.