Hashimpura_18हाशिमपुरा हत्याकांड के मामले में अदालती फैसला दुर्भाग्यपूर्ण जरूर है, पर अप्रत्याशित बिल्कुल नहीं. यदि आप ध्यानपूर्वक उत्तर प्रदेश सी.आई.डी. की केस डायरियां पढ़ें, तो आप मेरी बातों से सहमत होंगे कि जो मामला पी.ए.सी. कर्मियों के खिलाफ बनाया गया था, उसमें किसी भी अदालत के लिए उन्हें सज़ा देना आसान नहीं था. मैं इस मामले में शुरू से ही जुड़ा था, इसलिए मैं इतना कह सकता हूं कि तफ़्तीश करने वाले पहले ही दिन से हत्यारों को बचाने में लगे हुए थे. 22 मई 1987 को जब पी.ए.सी. मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से 42 मुसलमानों को उठाकर गाज़ियाबाद लाई और वहां की दो नहरों के किनारे खड़ा कर उन्हें गोलियों से भून दिया, तब मैं गाज़ियाबाद का पुलिस अधीक्षक था. घटना रात में लगभग 9 बजे घटी थी और मुझे साढ़े दस बजे के आसपास इसकी जानकारी मिली. जब दूसरे अधिकारियों के साथ मैं एक घटना स्थल पर पहुंचा, तो मकनपुर गांव की गंग नहर पर उस अंधेरी रात मैंने जो दृश्य देखा, उसे जीवन भर नहीं भूल सकता. आधी रात दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकंडों के बीच टॉर्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना और हर अगला कदम उठाने के पहले यह सुनिश्‍चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पड़े-सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है. वहां हमें बाबूदीन नामक एक जीवित व्यक्ति मिला, जो इस घटना स्थल पर उस जघन्य हत्याकांड में बचने वाला अकेला शख्स था और जिससे हमें सबसे पहले हाशिमपुरा कांड का पता चला. थोड़ी देर बाद ही मुरादनगर नहर के दूसरे घटनास्थल की जानकारी हुई, जहां पी.ए.सी. का ट्रक पहले ले जाया गया था और कुछ लोगों को वहां मार कर फेंक दिया गया था.
मैंने दोनों घटनास्थलों के सन्दर्भ में एफ.आई.आर. दर्ज़ करने के आदेश दिए, पर कुछ ही घंटों में तफ़तीशें मुझसे छीन कर सी.आई.डी. को सौंप दी गई. सामान्य परिस्थितियों में तो यह आदेश उचित ही माना जाता, क्योंकि सी.आई.डी. के पास हमसे ज्यादा संसाधन थे और वे बेहतर तफ्तीश कर सकते थे, पर इस मामले में ऐसा नहीं हुआ. शुरू से ही सी.आई.डी. ने अपराधियों को बचाने के प्रयास शुरू कर दिए. उन्होंने बेमन से तफ्तीश शुरू की. उनकी सारी हरकतें दोषियों को बचाने की थी. मैं इस हत्याकांड पर पिछले कुछ वर्षों से एक किताब पर काम कर रहा हूं और इस सिलसिले में जो तथ्य मेरे हाथ लगे हैं, वे चौंकाने वाले हैं. सी.आई.डी. ने जानबूझकर उनकी उपेक्षा की है. ख़ास तौर से उन्होंने इस घटना में फ़ौज की भूमिका को नजरंदाज़ कर दिया और पूरे मामले की सूत्रधार भाजपा की एक नेत्री से कोई पूछताछ नहीं की. मैं विस्तार से अपनी किताब में उनका जिक्र करूंगा.
हाशिमपुरा आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी कस्टोडियल किलिंग की घटना है. 1984 के सिख दंगे या नेल्ली का नरसंहार भी, जिसमें पुलिस की उपस्थिति में लोग मारे गए थे, इस अर्थ में भिन्न हैं कि हाशिमपुरा में न सिर्फ मरने वाले पुलिस की हिरासत में थे, बल्कि उनके हत्यारे भी पुलिस वाले ही थे. इतनी बड़ी संख्या में पुलिस ने पहले कभी भी लोगों को अपनी हिरासत में लेकर नहीं मारा था. भारतीय राज्यों की साख खतरे में है. यदि इतने बर्बर कांड में भी हत्यारे दंडित नहीं किए जा सके, तो एक धर्मनिरपेक्ष समाज होने के उसके सारे दावे धरे रह जाएंगे. जरूरी है कि हाशिमपुरा कांड की नये सिरे से किसी बेहतर एजेंसी से जांच कराई जाए और इस जांच का पर्यवेक्षण हाईकोर्ट करे या फिर हाईकोर्ट तीन रिटायर्ड आई.पी.एस. अफ़सरों की एक टीम इसके लिए नामित करे. बिना नये सिरे से तफ्तीश किए न तो उन असली दोषियों तक पहुंचा जा सकता है, जिन्हें सी.आई.डी. ने आपराधिक लापरवाही के चलते छोड़ दिया था और न ही वर्तमान अभियुक्तों को दंडित कराया जा सकता है.
(लेखक इस घटना के वक्त गाजियाबाद के एसएसपी थे.)

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here