indian_farmer_maize_z_53012यह किसानों के लिए भयावह समय है. आज कोई उन्हें यह बताने की स्थिति में नहीं है कि अगले दो महीनों में जीवन व प्रकृति के सामान्य चक्र में कितनी बाधाएं और विविधताएं झेलनी पड़ेंगी. मौसम विभाग ही नहीं, विज्ञान एवं तकनीकी की भी अपनी सीमाएं हैं. किसानों का ही एकमात्र ऐसा वर्ग है, जो अन्य किसी के मुक़ाबले कम से कम आवश्यकताओं की पूर्ति करके जीवन जीने का आदी है, जो श्रम को धर्म मानता है, जो कभी परिवार के लिए रोटी की चिंता से मुक्त नहीं हो पाता. उसे सिंचाई के पानी के लिए आकाश की ओर देखना पड़ता है. जब हम आज़ाद हुए थे, तब किसान नेपथ्य में नहीं था. आज भी उस समय का नारा कुछ लोगों को याद है, हर खेत को पानी, हर हाथ को काम. साठ वर्षों बाद भी अरबों रुपये की सिंचाई योजनाओं एवं परियोजनाओं के बावजूद केवल 35 प्रतिशत खेतों को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. ये सरकारी आंकड़े हैं, इनमें कितना वास्तविक रूप से सही है, यह अनुमान लगाना संभव नहीं है.
लगभग दो साल पहले महाराष्ट्र में एक बड़ा सिंचाई घोटाला उजागर हुआ था. तकनीकी तौर पर तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री बेदाग आरोप-मुक्त हो गए. उन्होंने सिंचाई के लिए किसानों को जो उपक्रम सुझाया था, उसे न दोहराना संभव है और न याद करना उपयुक्त है. नेताओं की निगाह में किसानों की क्या स्थिति है, उसे वह प्रकरण पूरी तरह उजागर कर गया था. किसानों की याद अधिकांश राजनेताओं को केवल चुनाव के पहले आती है. चुनाव के कुछ पहले रणनीति बनती है कि कैसे उन्हें अपने पाले में लाया जाए. ठीक वैसे ही, जैसे एक साथ एक बाड़े में भेड़-बकरियों को लाया जाता है. क्या चारा डाला जाए. मुखियाओं को साधना, दो-तीन दिनों पहले नकदी बांटना, शराब की बोतलें उपलब्ध कराना, बाहुबलियों का इस्तेमाल आदि सारे उपाय अपनाए जाते हैं, जो चुनाव आयोग की सारी सख्ती पर भारी पड़ते हैं. जीवन की जटिलताओं से दूर और नेताओं के चुनावी तिकड़मों से अनभिज्ञ किसान, मज़दूर, कामगार जब एक बड़े आदमी को हाथ जोड़कर, झुककर, विनम्रता की प्रतिमूर्ति बनकर अपने सामने रिरियाता देखता है, तब वह पिघल जाता है. मान लेता है कि यह सब कुछ ईमानदारी से कहा जा रहा है. राजनीति में कुटिलता जिस तेजी से बढ़ी है, उसे वह आज तक नहीं जान सका है.
विकासशील देशों के सामने संभवत: सबसे बड़ी समस्या विकास की अवधारणा के निर्धारण की रही है. स्वतंत्रता संग्राम के पुरोधाओं ने इस पर विचार-विमर्श किया. इसका महत्वपूर्ण सूत्रपात तो 1909 में हिंद स्वराज के सामने आने से हुआ. जब चंपारण में गांधी जी ने जाकर स्थिति देखी, संघर्ष प्रारंभ कर उसका नेतृत्व किया, तब देश ही नहीं, विश्व भर ने जाना कि निलहे किसान किस तरह दासों सरीखा जीवन निम्नतम स्तर पर जीने को मजबूर थे. वे अपनी ज़मीन पर वही उगा सकते थे, जिसका आदेश सरकार दे. निरीहता की इससे बदतर स्थिति और क्या हो सकती थी? तब भी गांधी जी ने तत्कालीन समस्या के समाधान के साथ-साथ दीर्घकालीन व्यवस्था की आवश्यकता का महत्व समझा था. उन्होंने उन कठिन परिस्थितियों में वहां तीन प्राइमरी स्कूल खोले. अध्यापक गुजरात और स्वयंसेवक महाराष्ट्र से आएंगे, लेकिन उनके रहने-खाने का प्रबंध गांव के लोगों को ही करना होगा. यानी उस नारकीय जीवन से लोगों को, आगे की पीढ़ियों को निकालने के कारगर और स्थायी समाधान का एक ही स्रोत है, शिक्षा!
1922 में गांधी जी ने इसे दूसरे ढंग से कहा था, एक पत्र में कि स्वराज आने पर भी लोगों को प्रसन्नता नहीं मिलेगी, क्योंकि चार भार उन पर छा जाएंगे यथा अन्याय, अमीरों का त्रासद शोषण, प्रशासन का बोझ और चुनावों की खराबियां! आशा की किरण केवल शिक्षा ही होगी. उन्होंने बुनियादी तालीम की जो संकल्पना की थी, उसमें हाथ से काम करने को कितनी प्रमुखता दी गई थी, यह सभी जानते हैं. गांधी जी भारत को, भारत की संस्कृति एवं परंपरा को जानते थे. उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले के सुझाव पर सारे देश का भ्रमण किया था, भारत को जानने के लिए. वह भारत की कृषि, किसान एवं उसकी आशाओं-आकांक्षाओं से उसी के स्तर पर परिचित थे. वह भारत के गांवों की ग़रीबी आत्मसात कर चुके थे. उन्होंने अपना पहनावा बदला, ताकि भारत की असली तस्वीर कभी उनकी आंखों से ओझल न हो. उनके नामित उत्तराधिकारी पंडित जवाहर लाल नेहरू का लालन-पालन, विचार, दृष्टिकोण और सभी कुछ दूसरे ढंग का था. उन्होंने भारत के गांव के स्कूल में नहीं, बल्कि एक आयरिस गवर्नेंस से प्रारंभिक शिक्षा पाई और फिर यूरोप में युवा हुए.
पांच अक्टूबर, 1945 को गांधी जी ने पंडित नेहरू को एक प्रसिद्ध पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने गांव को विकास योजनाओं का केंद्र बनाने की गुजारिश की थी. गांधी जी हमेशा इसी विचार के रहे, मगर नेहरू जी सोवियत संघ के कलेक्टिव फॉर्मिंग मॉडल से प्रभावित रहे. गांधी जी ने लिखा था, स्वतंत्र भारत में (हमें यह मानना पड़ेगा) लोग गांवों में रहेंगे, कस्बों में नहीं. झोंपड़ियों में, न कि महलों में. करोड़ों लोग शहरों एवं महलों में शांतिपूर्वक नहीं रह पाएंगे. ऐसे में वे असत्य और हिंसा का सहारा लेंगे. इसी पत्र में गांधी जी ने अपना विश्वास दोहराया कि सत्य व अहिंसा के बिना केवल मानवता का विनाश ही होगा. और, यह सत्य व अहिंसा गांव की सादगी में ही उपलब्ध होंगे. उन्होंने पत्र में आगे लिखा कि मनुष्य को वास्तविक आवश्यकता पूर्ति से संतुष्ट और आत्मनिर्भर होना चाहिए. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि वह यह नहीं कह रहे हैं कि भारत के गांव ऐसे ही बने रहेंगे, जैसे आज हैं. मेरे भी सपने हैं, जिनमें परिवर्तन के लिए स्थान है. पंडित नेहरू ने नौ अक्टूबर, 1945 को गांधी जी को पत्र का उत्तर लिखा. उन्होंने उसमें स्पष्ट कहा कि सामान्यत: गांव बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पक्ष में पिछड़े हुए हैं. मैं नहीं समझता कि गांव में सत्य व अहिंसा का प्रतिपादन होता है. संकुचित दिमाग वाले लोगों के असत्य और हिंसक होने की अधिक संभावना है.
यह कहना अक्षरश: सच होगा कि कांग्रेस आज भी किसानों के प्रति यही दृष्टिकोण रखती है. यही दृष्टिकोण भारत की कृषि और किसानों की वर्तमान स्थिति के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार है. गांधी जी पंडित नेहरू के मोह को वस्तुपरकता की सीमा पर नहीं तौल पाए और पंडित नेहरू कलेक्टिव फॉर्मिंग के मोहजाल से नहीं निकल पाए. 1957 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन तक वह यह प्रयास करते रहे. वहीं चौधरी चरण सिंह ने साहस पूर्ण विरोध किया. वह किसान नेता के रूप में उभरे. अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी भारत के किसानों का पक्ष रखा. नेहरू जी की नहीं चली, मगर सरकार तो उन्हीं की थी और उसका अर्थ अत्यंत व्यापक व गहन होता है. सत्तर साल पहले के इन दो पत्रों में जो विरोधाभास स्पष्ट होता है, क्या उस पर पुनर्विचार का समय नहीं आया है? अब बड़े शहरों, बड़े कारखानों, उत्तराखंड जैसी आपदाओं, शहरीकरण, गांव उजड़ने, बेरोज़गारी, बढ़ती हिंसा और अविश्वास का अनुभव है हमारे पास. विकास का अनुभव भी है. किसान इसमें कहां है, कहां होगा, यह देश को तय करना है. पहले ही बहुत देर हो चुकी है.
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं.)

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