महा पंडित जयराम रमेश का दावा है कि चौबीस में इंडिया गठबंधन की सरकार बनेगी। इस हसीन दावे पर कौन न मर जाए। जयराम रमेश ऐसा दावा किसको रिझाने के लिए कर रहे हैं।‌ जयराम रमेश का दिमाग और उनकी कद काठी बेमेल है। वे राहुल गांधी के करीब हैं। लेकिन और ज्यादा करीब होना चाहते हैं। राहुल गांधी यानी गांधी परिवार और गांधी परिवार यानी कांग्रेस के प्राण । हर वक्त का अपना इतिहास हुआ करता है। आज का वक्त भी अपना इतिहास रच रहा है जिसके हम सब पात्र हैं। जयराम रमेश की बात छोड़िए। आप बताइए चौबीस में क्या होने जा रहा है। हमारे मत में तो समूचा विपक्ष, विपक्ष के हमदर्द पत्रकार, बुद्धिजीवी और बहुत पढ़े लिखे लोग सब गुरु घंटाल साबित होने वाले हैं। अब बस इंतजार बाकी है हिंदू राष्ट्र, हिंदू राजा, हिंदू लोकतंत्र, हिंदू संविधान, हिंदू झंडे का । मोदी की खासियत है कि कोई उन्हें कुछ देता नहीं ,वे लेते हैं, छीनते हैं और उनकी इस कला से देश (!) चमत्कृत होकर मोदी मोदी का उद्घोष करने लगता है। आप कह सकते हैं कि मोदी का प्रतिशत तो मुठ्ठी भर है। लेकिन यही मुठ्ठी भर जब एक साथ खड़ा दिखता है तो शेष व्यापक समाज वैसा ही हो जाता है जैसे क्लाइव लॉयड के सामने सिराजुद्दौला की सेना। मोदी में लोकतंत्र नहीं है लेकिन शत्रु को हर तरीके से परास्त करने का कौशल जरूर है। कितना दुखदाई बात है जब लोकतंत्र में विपक्ष शत्रु कहलाया जाने लगे ।
आज की राजनीति पर बात करते हुए हम अक्सर भूल जाते हैं कि यह राजनीति और आज का यह वक्त पिछले सत्तर सालों से बेहद जुदा है। नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेई तक सारे प्रधानमंत्री एक तरफ और मोदी एक तरफ। इसको देखते बूझते भी कई लोग पुराने समय की दुहाई देने लगते हैं। ऐसे लोग डिजिटल चैनलों पर आने वाले लोग हैं। हर कोई आंदोलन की बात करता है कि जैसे आंदोलन कोई जिन्न है जो बोतल से निकलेगा और समाज में छा जाएगा। समय तेजी से निकलता जा रहा है। चुनाव मोदी की मुठ्ठी में है । एक आंदोलन निर्भया का हुआ था और उसके बाद एक आंदोलन अन्ना का हुआ था। दोनों आंदोलनों में देश शामिल हुआ था। किसान आंदोलन में बेशक देश शामिल नहीं हुआ था लेकिन चुनाव की नजर से इस आंदोलन ने मोदी को डरा दिया था। बाद में जीतने के बाद मोदी को खुद पर ही गुस्सा आया होगा कि बेकार ही किसानों की बातें मानी। हम तो लखीमपुर खीरी तक में धड़ल्ले से जीते हैं आंदोलन के बावजूद। इसलिए अब मोदी को कोई भय नहीं दिखता। हां, इंटेलिजेंस की अंदरूनी खबरें जो उन्हें परेशान करती हैं उसका असर दिखाई पड़ता है। जैसे उन्हें बताया गया कि राम मंदिर निर्माण का अतिरिक्त लाभ कुछ होने वाला नहीं। जो वोटर हैं वे केवल और पक्के हुए हैं। वे कहीं जाने वाले नहीं। इसलिए कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न और नीतीश कुमार का खेल किया गया। हिंदुओं को रिझाने के लिए आडवाणी को भी भारत रत्न दिया गया। तो ऐसे वक्त में जब पूरा देश मोदी समर्थक और मोदी विरोध में बंट गया है। ऐसे में देश स्तर पर कुछ भी करना इतना आसान नहीं। बात बात में सरकारी रुकावटें। कहने का तात्पर्य यह कि अब कोई भी आंदोलन इतना आसान नहीं। आंदोलन होगा भी तो वह समाज की ऊपरी सतह को ही प्रभावित करेगा। जैसे इन दिनों ईवीएम को लेकर दिल्ली में एक आंदोलन चल रहा है। क्या ईवीएम की चिंता देश की चिंता नहीं है। लेकिन देश को भनक लगे तभी न । आंदोलन की बात नीचे तक ले जाने वाला मीडिया तो मोदी की मुठ्ठी में है। मोदी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं ।ऐसा माना जाता है। इसलिए उन्हें पढ़े लिखे लोगों से, लुटियंस दिल्ली के कल्चर से चिढ़ है। दिमाग से पैदल घटिया से घटिया आदमी को मोदी बहुत भाते हैं। मोदी की बातें, मोदी के जुमले, मोदी की नौटंकी शैली सब । दरअसल यह लड़ाई दिमाग वाले बनाम पैदल दिमाग वालों के बीच की लड़ाई है। और देश में दिमाग वालों की संख्या का अनुपात है ही कितना। इसलिए जरूरी है कि डिजिटल मीडिया के लोग रोज रोज की बकवास चर्चाओं को छोड़ कर त्वरित आंदोलन की रुपरेखा बनाएं और कैसे उनकी बात समाज के निचले से निचले व्यक्ति की समझ में आये इसकी चिंता करें। समाज के सारे गम्भीर मुद्दे इस सरकार ने हवा में उड़ा दिये हैं। उन मुद्दों को कैसे सतह पर लाया जाए, यह सोचें।
विपक्ष जो कुछ करता दिखाई दे रहा है उसमें निर्माण की ध्वनि कम है और आपसी मनमुटाव ज्यादा दिखाई दे रहा है। सोचिए जैसे तैसे सीट शेयरिंग का फार्मूला तय हो भी जाता है तो उसे निचले से निचले कार्यकर्ता और वोटर तक पहुंचने में कितना समय लगेगा। फिर क्या वोटर में विपक्ष को लेकर विश्वास बनेगा ? इसलिए क्या वह सीट शेयरिंग के अनुसार वोट करेगा ? और क्या मोदी के लोग चुपचाप देखते रहेंगे। गम्भीर सवाल हैं। ‘वायर’ में आरफा खानम शेरवानी ने अमरीका की ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय से बात की । चौबीस में मोदी के तीसरी बार आने पर मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों का क्या सीन बनेगा, सुनकर दहशत होती है। उनका कहना है कि मुसलमानों से उनके सारे हक छीन लिये जाएंगे। नागरिकता का हक भी। मुसलमानों की स्थिति आज के दलितों वाली होगी और दलित हिंदुओं में समाहित कर लिए जाएंगे। यह सीन काफी डरावना है। लेकिन आज जो कुछ मुसलमानों और दलितों के साथ हो रहा है उसे देखते हुए ऐसी खतरनाक संभावनाओं से इंकार भी तो नहीं किया जा सकता। कहीं कत्ल हो रहे हैं, कहीं बुलडोजर चल रहे हैं, कहीं मुसलमानों की दाढ़ी खींची जा रही है। सब कुछ हमारे सामने हो रहा है। प्रशासन और सरकारें चुप हैं या कहिए कि भाजपा सरकारों का इनको मौन समर्थन है। जाहिर है 2002 के दंगों का नायक चौबीस के बाद शांत कैसे रह सकता है। इसकी आशंका तो हमें 2014 में ही हो चुकी थी। लेकिन सब कुछ जानते समझते भी देश का विपक्ष नपुंसक सा ही बना रहा। कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई। उसके संभावित नायक राहुल गांधी को मोदी और उनकी टीम ने ‘पप्पू’ साबित कर दिया। किसी तरह वह पप्पू खड़ा हुआ और उसने चार हजार किलोमीटर पैदल चल कर कमाल कर दिखाया। लेकिन मोदी की गोदी में बैठे मीडिया ने इसे पूरी तरह अनदेखा किया तो देश का एक व्यापक वर्ग जान ही नहीं पाया कि पप्पू ने क्या कमाल किया। इन दिनों फिर राहुल गांधी लंबी यात्रा पर हैं। पर देश की जनता कितना जान रही है। कांग्रेस चाहती तो पहले दिन से ही उठ खड़ी होती। युद्ध में घायल हुए सैनिक के भीतर फिर खड़े होने और लड़ने की जिजीविषा होती है। आज की कांग्रेस में छेद ही छेद हैं। तमाम छेद । न कर्मठता है, न दूरदृष्टि, न संगठन । यहां तक कि कोई ऐसा नेता भी नहीं जो समूची कांग्रेस को एक व्यापक दृष्टि दे सके और राह दिखा सके । राहुल गांधी को तो स्वयं ही अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। मैं राहुल गांधी के इर्द-गिर्द लोगों को देखता हूं तो मन व्यथित होता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो जनता तक अच्छी हिंदी में अपनी बात जनता तक पहुंचा सके।
सर्वत्र निराशा ही निराशा का आलम है। फिर भी महा पंडित जयराम रमेश कहते हैं चौबीस में हम सरकार बनाएंगे। सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म ने आज के इंसान के भीतर की आग खींच ली है। दुष्यंत कुमार की वे पंक्तियां तक आज कोई नहीं दोहरा सकता कि ‘मेरे सीने में न सही तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए’ । ऐसा लगता है जैसे आज फ़ैज़, दुष्यंत, पाश, साहिर जैसे तमाम लोग अप्रासंगिक हो गये हैं। डिजिटल मीडिया में ‘सत्य हिंदी’ जैसे तमाम चैनल भूसा हो गये हैं। इनकी चर्चाओं के विश्लेषण ठहरे हुए लोगों का केवल विधवा विलाप जैसा होकर रह गया है। इन्हें बंद हो जाना चाहिए। ये न केवल खुद को अपमानित कर रहे हैं बल्कि ठलुए बैठे लोगों को और निठल्ला बना रहे हैं। मेरे करीब एक ठलुआ कांग्रेसी है जो हर वक्त कान पर मोबाइल रख कर चलता है। उसे रस मिलता है सुन कर। एंकरों का चस्खा है, बौद्धिक विलास है इसके सिवा और कुछ नहीं। चौबीस में ये सब खत्म होने वाले हैं। इंतजार कीजिए।

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