muslimकांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए को केन्द्र में सत्ता संभाले हुए 10 साल बीत गए और इस बीच केवल घोषणाएं और वादे ही होते रहे. 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी दस साल पहले जहां पर थी कमोवेश वहीं पर लटकी रही. इस तरह अन्य पहलुओं के साथ अल्पसंख्यक आबादी के हितों की रक्षा के स्तर पर देखें तो 2004 से लेकर 2009 और 2009 से 2014 तक दो कार्यकालों के 10 सालों का दौर फ्लॉप शो रहा.
सत्ता संभालते ही भारतीय प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि मुसलमानों का मूलभूत संसाधनों तक पहुंचना उनका पहला अधिकार और उन्होंने इसके लिए कई घोषणाएं भी कीं, जिनमें दिल्ली हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर की अगुवाई में सात सदस्यों वाली उच्चस्तरीय कमेटी का गठन भी शामिल था, जिसका काम विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमानों की स्थिति से परिचित कराना था. असल में प्रधानमंत्री की मूलभूत संसाधनों को लेकर कही गई यह बात ही सही नहीं है, क्योंकि अगर मुसलमान मूलभूत संसाधनों से दूर हैं तो सवाल यह है कि इस अधिकार से उन्हें दूर रखा किसने?
ज़ाहिर है, आज़ादी के बाद से लेकर अब तक आधी सदी तक केन्द्र में अपने दम पर या फिर अन्य पार्टियों का सहारा लेकर सत्ता पर क़ाबिज़ रहने वाली कांग्रेस मुसलमानों को इस अधिकार से वंचित करने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदार है. विडंबना तो यह है कि उन्हें यह अधिकार कांग्रेस ने स्वयं ही नहीं दिया और संदेश यह दिया कि उन्हें अन्य पार्टियों और हिन्दुओं से कुछ नहीं मिलता है.
सच्चर कमेटी रिपोर्ट से विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमानों की जो बदतर स्थिति सामने आई, उसे लेकर भी सवाल उठता है कि उन्हें इस हालत में किसने पहुंचाया है? अर्थात कहा जा सकता है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट दरअसल ख़ुद कांग्रेस को आईना दिखाकर कह रही है कि देश के सबसे ब़डे अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर यह उसका ‘रिपोर्ट कार्ड’ है. यह रिपोर्ट कार्ड कांग्रेस की बेशर्मी की कहानी बयान करता है. कांग्रेस सरकार ने केवल इतना ही नहीं किया, बल्कि इसी ज़माने में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक भाषाई व धार्मिक आयोग भी बनाया. मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर इसकी रिपोर्ट में भी इसी बदहाली को बताया गया और इससे बाहर निकलने की दवा लिखी गई लेकिन केन्द्र सरकार ने तो अपनी फितरत के अनुसार इसे संसद में पेश ही नहीं किया. फिर जब ‘चौथी दुनिया’ ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया तो इस पर ख़ूब हंगामा हुआ और समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव ने तो इसकी कॉपी को संसद तक में लहराया. हाल ही में ‘चौथी दुनिया’ को दिए गए साक्षात्कार में एक दर्जन से अधिक संगठनों ने इसकी निष्पक्ष एवं उच्च स्तरीय पत्रकारिता को सराहा. बेशक सच्चर कमेटी और मिश्रा आयोग की रिपोर्टें भारतीय मुसलमानों की स्थिति को जानने के लिए फिलहाल सबसे बेहतर दस्तावेज़ हैं. लिहाज़ा, अगर सरकार इनको लेकर गंभीर रही होती तो आज बात ही कुछ और होती.
इतिहास रहा है कि कांग्रेस ने अकेले या अन्य दलों के साथ गठबंधन सरकार के दौरान मुसलमानों को मूर्ख बनाया है, झूठ बोला है, बहकाया है और उनकी भावनाओं से खिलवा़ड किया है. आज़ादी के बाद से लेकर अब तक अधिकतर सांप्रदायिक दंगे कांग्रेस के शासनकाल में ही हुए हैं. 1987 में मलियाना और हाशिमपुरा में कांग्रेस सरकार के ‘स्पांसर्ड जेनोसाइड’ उसका अभी भी पीछा कर रहे हैं. बीते दस सालों में समय-समय पर दंगे होते रहे हैं, जिन्हें रोकने केन्द्र सरकार हमेशा की तरह विफल रही है. एक ओर तो कांग्रेस मुसलमानों के जान व माल की सुरक्षा न कर सकी तो दूसरी ओर विभिन्न क्षेत्रों में उनकी बदतर हालत को बेहतर नहीं बना सकी.
इतना ही नहीं, कांग्रेस ने वोट बैंक के लिए अलग-अलग हथकंडे अपनाए और मुस्लिम मतदाताओं को मूर्ख बनाया. मुस्लिम उम्मीदवारों को संसदीय, विधानसभा व अन्य चुनावों में टिकट देने मेें भी अलग तमाशे किए गए. मुस्लिम समुदाय में जो लोग मुसलमानों का किसी भी दृष्टि से प्रतिनिधित्व नहीं करते, उन्हें टिकट दिए गए और यही कारण है कि निर्वाचित होने पर वे मुसलमानों की बजाए पार्टी के वफ़ादार बने रहे और मुस्लिम जनता के कल्याण या सशक्तिकरण के लिए कुछ भी नहीं किया. मंत्रालय हो या अन्य सरकारी ज़िम्मेदारी के पद, वहां मुस्लिम जनता से कटे हुए लोगों को बिठा दिया गया और आवश्यकतानुसार उन्हें अपने स्वार्थ एवं प्रचार के लिए प्रयोग किया और झूठे दावे करवाए. इस संदर्भ में रहमान खान और सलमान ख़ुर्शीद के उदाहरण काफ़ी हैं. ज़ाहिर है कि इस स्थिति में मुस्लिम समुदाय से संबंधित किसी कल्याण या सशक्तिकरण का काम किया जाना संभव नहीं हो सका.
मुसलमानों को यूपीए सरकार किस प्रकार धोखा देती रही और मूर्ख बनाती रही, इसकी अनगिनत मिसालें हैं. अभी हाल ही में 6 जनवरी को केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री एमएम पल्लम राजू ने दिल्ली में आयोजित अल्पसंख्यकों की शिक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय पर्यवेक्षण समिति (एनएमसीएमई) की वार्षिक बैठक की अध्यक्षता करते हुए दावा किया कि यूपीए सरकार देश में कमज़ोर वर्गों, अल्पसंख्यकों विशेषत: मुसलमानों तक शिक्षा को पहुंचाने, सामाजिक समानता और विकास में सबको शामिल करने को निश्‍चित बनाने को लेकर संकल्पबद्ध है. ऐसे समय में जब वर्तमान यूपीए सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम दौर में है, उसने घोषणाओं की झड़ी लगा दी और कहा कि उच्च शिक्षा में मॉडल डिग्री कॉलेज, पॉलिटेक्निक, लड़कियों के लिए छात्रावास और प्रोफेशनल एजूकेशन जैसी योजनाओं को अल्पसंख्यकों की बहुसंख्यक आबादी वाले ज़िलों में लागू किया जाएगा. उन्होंने अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाले ब्लॉकों में 270 मॉडल स्कूलों और 12वीं योजना के अनुसार 378 जवाहर नवोदय विद्यालय खोलने की बात की.
सवाल यह है कि यूपीए सरकार जनवरी 2014 में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा के मैदान में घोषणाओं की जो झड़ी लगा रही है, उसने यह सब चार वर्ष पूर्व क्यों नहीं किया? अब अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम दौर में उसे इसकी चिंता क्यों हुई?
दिल्ली में असम से आए एक निजी शिक्षा ट्रस्ट ‘एजूकेशन रिसर्च एंड डेवलपमेंट फाउंडेशन’ के चेयरमैन महबूब उलहक़ ने ‘चौथी दुनिया’ को बताया कि केन्द्र सरकार इस समय अल्पसंख्यकों के लिए जिन नई शिक्षा योजनाओं या पैकेजों की घोषणा कर रही है, इससे बहुत अधिक लाभ नहीं होने वाला है. वह कहते हैं कि आवश्यकता इस बात की है कि एक नए सिस्टम को बनाकर राज्यों में इसे लागू करने को कहा जाए. इनका यह भी कहना है कि असल समस्या ज़मीनी स्तर पर इस सिस्टम पर अमल करने की है.
जहां तक मुसलमानों के राजनीतिक पतन का सवाल है तो वह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है. 1952 तक कुल 15 लोकसभाओं में मुस्लिम प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत के आसपास रहा. विडंबना तो यह भी है कि 1952 से लेकर 2009 तक संसद के 7906 सदस्यों में 549 महिलाएं रही हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाओं की संख्या केवल 14 है. यह ख़ुलासा भी चौथी दुनिया (हिन्दी) ने लगभग चार साल पूर्व किया था. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मुस्लिम पुरुष हो या महिला उनका राजनीतिक सशक्तिकरण दयनीय स्थिति में है. संसद एवं विधानसभाओं में मुस्लिमों की कम संख्या की एक और बड़ी वजह चुनाव क्षेत्रों का ग़लत परिसीमन है, जिसका विवरण सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी है. इसके अनुसार यह परिसीमन इस प्रकार किया गया है कि जहां मुस्लिम आबादी का प्रतिशत अधिक है वहां सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दी गईं और जहां अनुसूचित जाति का प्रतिशत अधिक है, उसे ‘जनरल’ रखा गया. इस साज़िश के विरुद्ध एक्शन का यूपीए सरकार केवल वादा करती रही और कुछ भी नहीं किया. चूंकि कांग्रेस अकेले और गठबंधन के साथ आज़ादी के बाद से अधिकतर समय सत्ता में रही है, इसलिए मुसलमानों के पतन की सबसे बड़ी ज़िम्मेदार कांग्रेस ही है.
जहां तक देश में अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण का मामला है, सबसे अधिक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस ने अकेले सत्ता में रहते हुए भी इस सिलसिले में कोई ठोस रणनीति नहीं अपनाई. इसका श्रेय तो मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी सरकार को जाता है, जिसने 1977 में पहली बार अल्पसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की और प्रसिद्ध पारसी नेता मीनू मसानी को इसका चेयरमैन नियुक्त किया, लेकिन उनके इंकार करने के बाद किसी और को यह ज़िम्मेदारी दी गई और फिर यह सिलसिला चलता रहा. बाद में कांग्रेस सरकार ने पीवी नरसिम्हा राव के दौर में 1994 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम (एनएमडीएफसी) बनाया. 2004 में फिर से सत्ता में वापसी पर कांग्रेस सरकार ने अल्पसंख्यक मामलों के विशेष मंत्रालय का गठन किया जो स्वतंत्र भारत में पहली बार हुआ था. इसी दौरान अल्पसंख्यक शिक्षा आयोग (एनसीएमसीआईज़) भी अस्तित्व में आया. यूपीए के इसी दौर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुसलमानों की बदहाली के जायज़े के लिए सच्चर कमेटी बनाई. इसी बीच 2006 में प्रधानमंत्री के अल्पसंख्यक कल्याण के लिए 15 सूत्रीय कार्यक्रम की भी घोषणा हुई, लेकिन जायज़ा लेने पर अंदाज़ा होता है कि नेशनल माइनोरिटीज़ कमीशन हो या नेशनल माइनोरिटीज़ डेवलपमेंट एंड फाइनेंशियल कॉर्पोरेशन, मिनिस्ट्री फॉर माइनोरिटी अफेयर्स या नेशनल कमीशन फार माइनोरिटी एजूकेशनल इंस्टीटयूशन या प्रधानमंत्री का 15 सूत्रीय कार्यक्रम, कोई भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की बदहाली को दूर करने में सफल नहीं हुआ और मुसलमानों की बेहतरी की बात कभी न पूरा होने वाला ख़्वाब बन गई. इसका एक बड़ा कारण यह बताया जाता है कि इनमें से अधिकतर के पास आवश्यक अधिकार ही नहीं थे.
रही बात सच्चर रिपोर्ट पर क्रियान्वयन की तो यूपीए सरकार का यह दावा है कि उसने 76 में से 73 अनुशंसाओं को लागू कर दिया है जबकि ‘चौथी दुनिया’ के 26 अगस्त से 9 दिसंबर तक के अंकों में किए गए विश्‍लेषणों से यह ख़ुलासा होता है कि 76 अनुशंसाओं में से 45 को अभी तक लागू ही नहीं किया गया है, यह ऐसे ख़ुलासे हैं जो पहली बार किए गए हैं. उपरोक्त विश्‍लेषण स्वयं सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध विवरणों और विशेषज्ञों से बातचीत पर आधारित हैं. सरकार के झूठ की पोल खोलते यह विश्‍लेषण बताते हैं कि शिक्षा हो या अर्थव्यवस्था या रोज़गार हर क्षेत्र में मुसलमानों की बदहाली और पिछड़ेपन में सरकार के दावों से कोई फ़र्क नहीं पड़ा.
यह वह सच्चाई है, जिसे प्रधानमंत्री ने बीती 3 जनवरी को प्रेस कांफ्रेंस में स्वीकार किया. उन्होंने कहा कि उन्हें अफसोस है कि अल्पसंख्यकों की कल्याणकारी योजनाएं अधिकतर अल्पसंख्यकों तक नहीं पहुंच पाईं. उनका स्पष्ट रूप से कहना था कि उनकी सरकार अनेक प्रयासों के बावजूद अल्पसंख्यकों के लिए विशेष कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने में असफल रही. उन्होंने कहा कि ‘हमने सच्चर कमेटी की अनुशंसाओं को लागू करने में काफ़ी काम किया है. मुझे दुख के साथ कहना पड़ता है कि यह सभी जनता तक नहीं पहुंच सका.’
प्रधानमंत्री के द्वारा यह स्वीकार करने का मतलब है कि सच्चर रिपोर्ट के अनुसार सरकारी नौकरियों में मुसलमान अब भी 5 प्रतिशत से कम और अंडर ग्रेजुएट्स केवल 4 प्रतिशत हैं और यही हाल कमोवेश उनमें ग़रीबी का है. उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय छात्रवृत्ति की मुहिम को अपनी सरकार की ज़बरदस्त सफलता बताया जबकि सच्चाई यह है कि यह भी केवल आंकड़ों का खेल है, जिससे लगता है कि मुस्लिम छात्रों के लिए यह बड़ी सौग़ात साबित हो रही हैं. स्कॉलरशिप को लेकर ‘चौथी दुनिया’ का यह अवलोकन है कि मुस्लिम समुदाय में छात्र बड़ी संख्या में अब भी वंचित है. शिक्षा के निजीकरण के बाद 12वीं पास मुस्लिम छात्र निजी शिक्षा संस्थानों में एडमिशन इसलिए नहीं ले पाते हैं क्योंकि उनके अभिभावकों के पास पैसे नहीं होते. मेरठ में एक निजी विश्‍वविद्यालय के मुस्लिम कुलपति इस बात का रोना रोते हैं कि 2013 में देश में एक लाख 30 हज़ार इंजीनियरिंग की सीटें ख़ाली रह गईं और ऐसा मुस्लिम छात्रों एवं उनके अभिभावकों के ध्यान न देने के कारण हुआ जबकि सच्चाई यह है कि मुस्लिम छात्र एक लाख रुपये वार्षिक फीस न देने के कारण इन प्रोफेशनल कोर्सों में एडमिशन नहीं ले पाते हैं.
सच्चर कमेटी पर क्रियान्वयन को लेकर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इस संदर्भ में जो भी क़दम अल्पसंख्यकों के नाम पर उठाए गए, उनका फ़ायदा अल्पसंख्यकों को न के बराबर मिला. उदाहरणस्वरूप 90 अल्पसंख्यक बहुसंख्यक आबादी वाले ज़िलों को ही ले लें. यहां विकास के लिए मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम (एमएसडीपी एवं अल्पसंख्यक महिलाओं में लीडरशिप योग्यता को उभारने के ध्येय से स्थापित की गई ‘नई रोशनी’ स्कीम शुरू की गई, जिससे अल्पसंख्यकों की आबादी वाले क्षेत्र कुल मिलाकर वंचित ही रहे. अगर इन ज़िलों में सड़कें बनाई भी गईं तो वह उन क्षेत्रों से होकर नहीं गुज़रती थीं, जहां घनी मुस्लिम आबादी थी. इसी प्रकार स्कूल और कॉलेज खोले गए और पानी की सुविधाएं पहुंचाई गईं तो उनका फायदा भी दूसरे समुदायों को अधिक हुआ. ‘चौथी दुनिया’ को खोज करने पर पता चला कि 2009 में गठित ‘नई रोशनी’ योजना जो 2012 तक ठंडे बस्ते में पड़ी रही थी, लेकिन गत डेढ़ वर्ष पूर्व कार्यान्वयन शुरू हुआ है. राशि के लिए स्वीकृत संगठनों की सूची अल्पसंख्यकों की महरूमी की पुष्टि करती है. इस सूची के अनुसार अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए ‘नई रोशनी’ योजना के अन्तर्गत ग्यारह राज्यों में जिन 25 संगठनों को राशि प्रदान की गई, वह दिल्ली में सहयोग विकास समिति, उत्तर प्रदेश में चम्पा देवी नारी विकास संस्था, देवी समाज सोमवती देवी संस्थान, मथुरा प्रसाद ग्राम उद्योग संस्थान, आंध्र प्रदेश में गौथामी फाउंडेशन और श्री सरोपा संस्था आश्रम क्लासीकल वेलफेयर सोसयटी, असम में आदर्श समाज कल्याण समिति और निष्ठा, बिहार में सन्त रविदास चर्माकर कल्याण समीति, विवेकानंद पर्यावरण एवं आरोग्य मिशन और कामगार फाउंडेशन, गुजरात में ब्रम्ह समाज सेवा ट्रस्ट भरोच और ब्रम्ह समाज सेवा ट्रस्ट वड़ोदरा, महाराष्ट्र में प्रयास सेवा भावी संस्था और जय किसान शिक्षा परिषद, मध्य प्रदेश में समर्पण समाज कल्याण समीति, श्री कृष्ण ग्राम उत्थान समिति और अप्राजता महिला संघ, उड़ीसा में सामाजिक सेवा सदन और समर्पण, राजस्थान में गुरु कृपा लोक सेवा संस्थान और गीता मित्तल कैरियर डेवलेपमेंट सेंटर और उत्तराखंड में जय गंगा उत्थान समिति और मानव सेवा संस्थान जैसे बहुसंख्यक संगठन एवं संस्थाएं हैं. इसके अलावा आंध्र प्रदेश में पांच, असम में 2, दिल्ली में 2, मध्यप्रदेश में एक, महाराष्ट्र में 14, राजस्थान में 5, उत्तर प्रदेश में 15 और पश्‍चिमी बंगाल में एक मुस्लिम संगठनों को राशि देने से साफ़ तौर पर इंकार कर दिया गया और कारण यह बताया गया कि मुस्लिम संगठन आवश्यक पैमाने पर पूरा नहीं उतर पाए.
पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर को तो इसी बात पर आपत्ति है कि अगर सच्चर कमेटी की अनुशंसाओं के नतीजे में एमसीडीज़ और एमएसडीपी बनाए गए तो उन्हें सीधे मुसलमानों से नहीं जोड़कर अल्पसंख्यकों से क्यों जोड़ दिया गया? ज्ञात रहे कि उन्होंने इस पूरे मामले में सरकार के एप्रोच की कड़ी आलोचना करते हुए 2012 में नेशनल एडवाइज़री काउंसिल से इस्तीफ़ा दे दिया था.
कुल मिलाकर यह बात खुलकर सामने आती है कि पिछले 10 सालों में महज़ घोषणाएं होती रहीं और मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय को सुनहरे ख़्वाब दिखाए जाते रहे लेकिन सकारात्मक परिणाम नहीं मिले और अब उसके दूसरे कार्यकाल के अंत में प्रधानमंत्री अफसोस जता रहे हैं कि अल्पसंख्यक योजनाएं इन तक नहीं पहुंच पाईं. इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यूपीए का 10 साल का कार्यकाल अल्पसंख्यकों को लेकर फ्लॉप शो साबित हुआ है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here