वर्ष 2002 में बीसवीं सदी का अंत उस व़क्त हुआ, जब गोधरा में दंगे शुरू हुए. यह हिचकोलों से भरा युग था, जिसने समाज को बर्बाद किया और मुल्क के टुकड़े-टुकड़े कर दिए. वह भी उस समय, जब हमारा यक़ीन हमारी पहचान और राजनीति का अहम हिस्सा बना. यदि जिन्ना ने लोगों को बांटने के लिए इस्लाम के शाब्दिक आडंबरों का सहारा लिया तो गांधी ने जोड़ने के लिए रामराज्य की परिकल्पना का इस्तेमाल किया. दोनों ने अपने पीछे अधूरे सपनों की एक विरासत छोड़ी, जिसे इतिहास को तय करना था कि कामयाब होने के लिए कौन सी विरासत बेहतर थी.

जिन्ना का पाकिस्तान मज़हबी शासन की तऱफ गया, जहां गृहयुद्ध और घातक आतंकवाद को हवा मिली. गांधी का भारत भले ही नेहरू की क़ाबिल गिरफ्त में रहा, लेकिन यहां सांप्रदायिकता पनपी और यही भारत के भाग्य की सबसे बड़ी अड़चन बनी.

1980 के दशक में शाहबानो प्रकरण और राम मंदिर आंदोलन की कहानी जुनून की हद तक भरोसे का निर्णायक पल ही थी. बाबरी का अहमदाबाद से जुड़ाव गोधरा के ज़रिए हुआ, लेकिन 2002 में यह जटिल मुद्दा बन गया. एक ज्वालामुखी के अंदर जितना लावा जमा था, वह सब बाहर निकल आया. 2002 के बाद यह साबित हुआ कि बहुत से भारतीय सामाजिक और आर्थिक बदलाव की बयार से दरकिनार कर दिए गए थे. कांग्रेस पार्टी ने इस बात को विचारधारा के बजाय सहज तौर पर समझा. इस दौरान विचारधारा का वजूद पूरे परिदृश्य से ग़ायब था. साथ ही अमेरिकी एवं भारतीय आर्थिक मदद से चलने वाले कार्यक्रमों में किसी को भी बाधक बनने की इजाज़त नहीं दी गई. इन दिनों चुनावी क्षेत्रों में मतदान की प्रक्रिया सही ढर्रे पर थी. भाजपा उन्हीं जगहों पर फली-फूली, जहां उसके क्षेत्रीय नेता लोगों के गुस्से को भुनाने में सफल रहे. ख़ासतौर पर नरेंद्र मोदी ने इन दोनों मसलों को भुनाया, लेकिन अगले चुनाव में उन्हें यह एहसास हो जाएगा कि उन्हें जीवन देने वाली एक नदी सूख गई है. यहां तक कि पिछले आठ सालों से हो रही हिंसा, जो नक्सलवादियों द्वारा ज्यादा की जा रही है, की वजह भूख है, न कि विचारधारा में इन लोगों का विश्वास.
21वीं सदी के पहले दशक का सही कारोबार बिज़नेस रहा है. यह उचित और दुर्भाग्यपूर्ण दोनों था. यही वजह है कि उच्चतम न्यायालय में इस दशक के आख़िर में भी गैस विवाद ने अपना दबदबा क़ायम रखा. विवाद का यह मसला हमारे समय के बड़े व्यवसायी बंधुओं मुकेश और अनिल अंबानी के बीच हुआ. पिछले छह वर्षों में किसी राजनीतिक संघर्ष की अपेक्षा इनके विवादों ने ही अधिक सुर्ख़ियां बटोरीं. हमें शुरू से यह बताया जाता है कि ख़ून का रिश्ता सबसे मज़बूत होता है. लेकिन, अक्सर पैसे का रिश्ता ख़ून से क्यों बड़ा हो जाता है? उत्तराधिकार के लिए दो मध्ययुगीन मानदंड हमारे सामने हैं. मुग़लों ने ज़िंदगी और मौत का फैसला जंग के मैदान में चुना. अंग्रेज़ों ने इसके लिए बड़ों को अधिक लायक़ माना, शायद ख़ुद की चोट से सीख लेते हुए अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए. जहां बड़े बेटे को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाता है और छोटे बेटे के हिस्से में आता है पी जी वुडहाउस की लिखी किताबें. समान अधिकारवादी युग में दोनों ही पैमाने क़बूलने लायक़ नहीं हैं, लेकिन हमारे देश में अभी भी फायदा बड़े भाई को ही होता है. यही वजह है कि मुकेश अंबानी को धीरूभाई अंबानी के साम्राज्य का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा हासिल हुआ और अनिल ने इस तरह की ग़ैर बराबरी का समझौता क़बूल किया.
लेकिन यह भी है कि हरेक साम्राज्य, चाहे वह राजनीतिक हो या व्यवसायिक, के वारिस का कर्तव्य है कि वह इस सौहार्द को बनाए रखे. यह उसकी सार्वजनिक ज़िम्मेदारी भी है. बिज़नेसमैन को अक्सर दिग्गज या नया मुग़ल कहा जाता है, लेकिन इससे उन्हें मुग़लों जैसा बर्ताव करने का लाइसेंस नहीं मिल जाता है कि वह अपने छोटे भाइयों की हत्या कर अपने साम्राज्य को मज़बूत कर सकें.
यह दोनों के बीच एक उल्लेखनीय अंतर है, जिसे भारतीय निजी क्षेत्र में वारिस के हक़दार दो शक्तिशाली भाइयों की जंग कहना ज़्यादा उचित हो सकता है. कुछ मर्यादाएं मुझे एक जोड़ीदार भाइयों का नाम लेने से रोक रही हैं. आपसी खींचतान में इन दोनों ने अपना सम्मान गंवा दिया है. बात जब अरबों से परे की हो तो बैंक बैलेंस की तुलना करना कोई मसला नहीं रह जाता है. लेकिन यदि अंबानी बंधुओं के पास दौलत की ताक़त है तो दूसरे के पास ताक़त की दौलत है. सभी चारों एक बीज को पौधे में विकसित करने की विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं. उसके बाद वे इन पौधों को बगीचे में तब्दील करते हैं. अंबानी बंधु एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती हैं तो दूसरे बंधु भी कम नहीं हैं. एक शहर के अहम अख़बारों और मीडिया माध्यमों को अपने क़ाबू में रखता है, जिससे वह बड़ी हस्ती बन जाता है. इन भाइयों को विरासत में जीन तो मिले, लेकिन वह ख़ास मिजाज़ नहीं. दोनों परिवारों में मतभेद थे. यह मतभेद था बेनामी वारिसों का. मानवीय कमज़ोरी के सामने हर कोई लाचार होता है, लेकिन इसने एक ढांचा प्रस्तावित करते हुए एक राज्य को साम्राज्य में तब्दील किया. ज़रा सोचिए, इस आर्थिक दुनिया में बिना महाभारत के दोनों में से किस अंबानी का विकास होगा.
सौभाग्य और दुर्भाग्य में पैसे का अंतर नहीं है, लेकिन परिवार की क़ीमत उसमें निहित शांति से आंकी जाती है. उच्चतम न्यायालय की भूमिका इस व़क्त इज़रायली शासक सोलोमन जैसी है, जो किसी भी तरह की भावुकता से परे है. उच्चतम न्यायालय इस मामले को मां के लिए नहीं छोड़ सकता, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ख़ुद भारतीय न्याय व्यवस्था की मां है, जिसके सामने आख़िरी गुहार लगाई जाती है. न्याय की यह देवी महज़ योग्यता, तरजीह और सिद्धांतों के आधार पर ही आधारित होगी और उसका फैसला निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए मापदंड स्थापित करेगा. यदि भारत का भाग्य उसकी अर्थव्यवस्था में निहित है, यदि भारत को अपने पड़ोसियों से ऊपर एक विशिष्ट क्षितिज के लिए उड़ान भरना है, तो बिज़नेस में हमारे विश्वास की नैतिक आवाज़ उच्चतम न्यायालय की आवाज़ होगी.

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