कई सेनानिवृत्त अधिकारियों के बयानों पर ग़ौर किया जाए तो यह बात सामने आती है कि भारतीय सरकार वीज़ा आवेदनों में होने वाली इस हेराफेरी से वाक़िफ़ होती है. यह भी बात सामने आती है कि सरकार अपने अधिकारियों को उस तरह की जीवनशैली विदेशों में दे पाने नाकाम रही है जैसी कि वे अपने देश में जीते हैं.
devyaniidddदेवयानी खोबराग़डे को गिरफ़्तार किए जाने को लेकर भारत ने काफ़ी तीखी प्रतिक्रिया दी. एक सुरक्षित रास्ता अ़िख्तयार करते हुए भारतीय सरकार और नौकरशाह अमेरिका के ख़िलाफ़ लगभग युद्ध छे़डने को तैयार हो गए थे. पहले भी हुए इसी तरह के कई अपमानों की लंबी फेहरिस्त भी उनके साथ थी. बीते समय में राजदूत रह चुके कई लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं समाचार चैनलों पर भी दीं. भारत ने तीखी प्रतिक्रिया स्वरूप अमेरिकी राजनयिकों के अधिकारों और सुविधाओं पर अंकुश लगा दिया था.
लेकिन यह सब किसके लिए किया गया? एक ऐसी महिला के लिए जो दूतावास में तैनात है और जिसपर आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप लगे हैं. अमेरिकी अधिकारियों यह कार्रवाई देवयानी की नौकरानी की तन्ख्वाह और उसके साथ बर्ताव को लेकर की गई थी. वह भी एक भारतीय महिला ही है. देवयानी के बचाव के चक्कर में हम संगीता रिचर्ड को भूल ही गए. यह बहुत स्वाभाविक भी है, क्योंकि देवयानी एक आईएफएस अधिकारी हैं और संगीता एक घरेलू नौकर. न्यूयॉर्क में रहने वाली एक अकेली भारतीय नौकरानी के पास आख़िर कितने अधिकार हो भी सकते हैं? उसे इस बात के लिए कृतज्ञ होना चाहिए कि उसे देवयानी के घर में काम करने का मौक़ा मिला. उसे वहां काम करने के लिए रहने और खाने के अलावा 30,000 रुपये बच्चों की देखभाल के लिए भी मिलते थे.
लेकिन वास्तविक स्थिति पूरी तरह अलग है. मामले में अमेरिकी क़ानूनी दस्तावेज़ों के मुताबिक़, संगीता को सप्ताह में 40 घंटे काम करने के लिए 30,000 रुपये दिए जाते थे, मगर वीज़ा एप्लिकेशन में संगीता का वेतन 575 डॉलर यानी कि 30,000 रुपये की बजाए 45,00 डॉलर दिखाया गया था. संगीता को इस बात की ताक़ीद की गई थी कि वह वीज़ा में अपने वेतन के बारे में झूठ बोले. इस तरह देवयानी ने जानबूझकर एक आधिकारिक दस्तावेज़ में हेराफरी की. इसके अलावा स़िर्फ 3.31 डॉलर प्रति घंटे के काम लिए देना अमेरिका में न्यूनतम मज़दूरी से भी कम है. इस तरह जो वेतन संगीता को दिया जा रहा था, वह वीजा में बताए गए वेतन से सात गुना कम था. अब स़िर्फ इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह वेतन न्यूनतम मज़दूरी से भी कितना कम था.

अमेरिकी मार्शल सर्विस के अधिकारी लोगों के साथ बेहतर व्यवहार के लिए नहीं जाने जाते, विशेष रूप से उन मामलों में जब वे किसी को गिरफ़्तार करने जा रहे हों. वे जब किसी को गिरफ़्तार करते हैं तो उसे अपराधी ही मानते हैं. दस्तावज़ों के मुताबिक़, अमेरिकी अधिकारी देवयानी के राजनयिक होने के बारे में जानते थे, लेकिन देवयानी के अपराधों को देखकर उन्होने इसके बारे में कोई ध्यान नहीं दिया.

इस मामले में अमेरिकी क़ानूनी दस्तावेज़ों को प़ढे जाने की ज़रूरत है. यह बहुत विस्तृत रूप में इसकी जानकारी देता है. इस मामले में यह बात भी ग़ौर करने वाली है कि देवयानी को 15 साल तक के कारावास की सज़ा सुनाई जा सकती है. किसी भी कर्मचारी को न्यूनतम मज़दूरी से भी कम वेतन देना एक अपराध है. इस मामले में एक भारतीय नागरिक के अधिकारों का हनन एक आईएफएस अधिकारी के द्वारा ही किया गया है. संसद में किसी ने भी इसके बारे में एक शब्द भी नहीं बोला. ऐसा हो सकता है कि देवयानी दलित जाति की हों (हालांकि क्रीमी लेयर के नियमों के मुताबिक़ ऐसा नहीं है, क्योंकि उनके पास मुंबई में आदर्श कॉम्प्लेक्स में फ्लैट है) लेकिन संगीता भी आदिवासी हैं. यहां दोनों के अधिकारों को लेकर बात की जानी चाहिए थी.
अमेरिकी मार्शल सर्विस के अधिकारी लोगों के साथ बेहतर व्यवहार के लिए नहीं जाने जाते, विशेष रूप से उन मामलों में जब वे किसी को गिरफ़्तार करने जा रहे हों. वे जब किसी को गिरफ़्तार करते हैं तो उसे अपराधी ही मानते हैं. दस्तावज़ों के मुताबिक़, अमेरिकी अधिकारी देवयानी के राजनयिक होने के बारे में जानते थे, लेकिन देवयानी के अपराधों को देखकर उन्होने इसके बारे में कोई ध्यान नहीं दिया. लेकिन अधिकारियों को देवयानी की निर्वस्त्र कर जांच नहीं करनी चाहिए थी, क्योंकि उन्होंने कोई ऐसा अपराध नहीं किया था, जिसमें हिंसा की गई हो. उनके पास कोई हथियार भी नहीं था. इसके अलावा देवयानी के द्वारा ड्रग के इस्तेमाल के भी कोई सुबूत नहीं मिले हैं. इस मामले में गिरफ़्तार करने और जांच करने के तरी़के पर माफ़ी मांगी जानी चाहिए, इस बात को लेकर नहीं कि उन्होंने जो ग़लती की है, उसपर कोई केस न चलाया जाए.
इस मामले में सीखने वाली बात यह कि इससे पहले कि पूरा सिस्टम ख़ुद को सही साबित करने वाली हिस्टीरिया से पी़िडत हो जाए, हमें यह पूछना चाहिए कि आख़िर इस पूरे प्रकरण में कुछ ख़ास बात है या नहीं. कई सेनानिवृत्त अधिकारियों के बयानों पर ग़ौर किया जाए तो यह बात सामने आती है कि भारतीय सरकार वीज़ा आवेदनों में होने वाली इस हेराफेरी से वाक़िफ़ होती है. यह भी बात सामने आती है कि सरकार अपने अधिकारियों को उस तरह की जीवनशैली विदेशों में दे पाने नाकाम रही है जैसी कि वे अपने देश में जीते हैं. अगर न्यूयॉर्क में घरेलू नौकर रखना दिल्ली से सात गुना महंगा है, तो सरकार को अपने अधिकारियों को यह बताना चाहिए कि वे घरेलू नौकर की सुविधा के बिना रहें, जैसा कि ज्यादातर अमेरिकी करते हैं.
मामले में भारत का जो रुख़ था, वह अपनी शक्ति के प्रदर्शन को लेकर नहीं, बल्कि एक तरह के च़िडच़िडेपन में लिया गया था. जब खोबराग़डे का तबादला संयुक्त राष्ट्र में कर दिया गया, तब सरकार ने उसकी ग़लती मानी. लेकिन अभी संगीता जैसी कई और घरेलू नौकरों के साथ अधिकारियों द्वारा जो अत्याचार किया जा रहा है, उसे सुलझाया जाना अभी भी बाक़ी है.
 

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