भारत में साल 2015 में रोजाना 321 बच्चों की मौत डायरिया से हुई. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में ये तथ्य सामने आए हैं. भारत में डायरिया की रोकथाम के उपायों के बावजूद यह बीमारी 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है. डायरिया की रोकथाम केवल साफ-सफाई और साफ पीने के पानी से संभव है. डायरिया की वजह से होने वाली मौत का आंकड़ा ये बताता है कि भारत में साफ-सफाई और पीने के पानी का क्या हाल है? डायरिया बच्चों में कुपोषण का भी कारण बनता है. डायरिया का इलाज आसान है, लेकिन भारत में ये आसान लगने वाला इलाज भी सर्वसुलभ नहीं है. 2015-16 में आधे के करीब बच्चों को ही ओआरएस की सप्लाई की जा सकी थी, जिससे भारत की हेल्थ सिस्टम की दुर्दशा का पता चलता है.

यूनिसेफ डेटा के मुताबिक, 2015 में भारत में 1,17,285 बच्चों की डायरिया से मौत हुई, जिनकी उम्र 5 साल से कम थी, जबकि पाकिस्तान, केन्या, म्यानमार जैसे देशों में इससे कम मौतें हुईं. गौरतलब है कि भारत की प्रति व्यक्ति आय इन देशों की तुलना में कहीं अधिक है, लेकिन स्वास्थ्य सेवा के मामले में भारत इन देशों से भी पीछे है. हालांकि, मौत का ये आंकड़ा पिछले कुछ सालों के मुकाबले घटा है. 2010 में जहां ऐसी मौतों की संख्या 1,67,000 थी, वहीं 2015 में ये संख्या 1,17,000 रही. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि 2005 में लॉन्च नेशनल हेल्थ मिशन के तहत ज्यादातर बच्चों को ओआरएस बांटे गए. रोटावायरस की वजह से होने वाली डायरिया काफी खतरनाक मानी जाती है और इसका इलाज रोटावायरस का टीका है, लेकिन दुर्भाग्य से इसे मिशन इन्द्रधनुष में शामिल नहीं किया गया है. प्राइवेट अस्पतालों से ये टीका लगवाना काफी महंगा है. जाहिर है, डायरिया जैसी बीमारी हमारे स्वच्छ भारत अभियान की भी पोल खोलती है.

नियंत्रण से बाहर है टीबी

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत डब्लूएचओ द्वारा बताए गए टीबी नियंत्रण के 16 उपायों में से 6 पर ध्यान नहीं दे रही है. इसके अलावा, टीबी नियंत्रण के लिए चल रही राष्ट्रीय नीति में शामिल 4 नीतियों का भी क्रियान्वयन पूरी तरह से नहीं हो रहा है. यह तथ्य आउट ऑफ स्टेप नाम की एक रिपोर्ट से सामने आई है. यह स्टडी 29 देशों में चलाई जा रही टीबी नियंत्रण कार्यक्रम की समीक्षा करती है. दुनिया भर में भारत सबसे अधिक टीबी के प्रकोप से ग्रसित है. साल 2015 में भारत में करीब 28 लाख टीबी के मरीज थे. वैसे तो टीबी का इलाज है और इसकी रोकथाम भी की जा सकती है, फिर भी यह दुनिया की सबसे खतरनाक संक्रमणकारी बीमारी है. अकेले 2015 में टीबी ने दुनिया भर में करीब 18 लाख लोगों की जिन्दगी छीन ली.

भारत में टीबी की डायगोनोसिस और ड्रग रेसिस्टेंट ट्रीटमेंट ऐसे दो क्षेत्र हैं, जहां अब भी भारत को अपने नेशनल टीबी पॉलिसी में बहुत काम करना है और विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के अनुरूप बनना है. भारत ने अभी तक बच्चों और व्यस्कों में टीबी के प्रारंभिक जांच के लिए आवश्यक एमटीबी/आरआईएफ नहीं बनाया है. यह त्वरित रूप से टीबी को डायग्नोस करता है और बीमारी से लड़ने के लिए आवश्यक ड्रग की अनुशंसा करता है.

एक तरफ पूरी दुनिया में टीबी को खत्म करने के लिए युद्ध स्तर पर काम हो रहा है. लेकिन, दुख की बात ये है कि इस बीमारी से सर्वाधिक प्रभावित लोग भारत में ही हैं. भारत में टीबी के मरीजों की संख्या अनुमान से तीन गुणा ज्यादा हो सकती है. मशहूर मेडिकल पत्रिका लेसेंट ने साल 2014 में किए एक अध्ययन में पाया कि भारत में निजी क्षेत्र में करीब 19 लाख से लेकर 53 लाख तक मरीजों का इलाज किया जा रहा है, जो सरकारी अस्पतालों में इलाज करवा रहे मरीजों की संख्या से दोगुनी है. इस अध्ययन से पहले अनुमान था कि भारत में करीब 22 लाख तपेदिक के मामले हो सकते हैं, जो दुनिया भर के तपेदिक मामलों का एक-तिहाई है.

दुनिया भर में करीब 63 लाख तपेदिक के मरीज होने का अनुमान है. इस अध्ययन में बताया गया है कि भारत में टीबी का मानकीकृत इलाज केवल सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है. लेकिन इसका समय पर पता लगाना और निदान करना अनियमित निजी स्वास्थ्य क्षेत्र की बड़े पैमाने पर उपस्थिति के कारण संभव नहीं हो पा रहा है.

अध्ययन में कहा गया है कि टीबी की जांच का मुकम्मल ढांचा नहीं होने तथा इलाज में देरी के कारण भारत में टीबी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है, जबकि निजी क्षेत्र में जिन मामलों का इलाज चल रहा होता है, उसे वे सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारियों को अधिसूचित नहीं करते. शोधकर्ताओं के मुताबिक, शोध के निष्कर्षों से यह पता चला है कि निजी क्षेत्र द्वारा किए जा रहे टीबी के इलाज की निगरानी बढ़ाने की जरूरत है. हालांकि देश में टीबी के मरीजों की संख्या में कमी आ रही है, लेकिन दवाइयों के प्रति बीमारी की प्रतिरोध क्षमता में बढ़ोतरी से प्रगति काफी धीमी है. भारत में टीबी के कुल मामलों में से 10 फीसदी बच्चों में होते हैं, लेकिन सिर्फ छह फीसदी का ही पता चल पाता है. बच्चों में टीबी को अक्सर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है, क्योंकि बच्चों में इसकी जांच और इलाज करना बहुत मुश्किल होता है.

शहरी गरीबों पर बढ़ रहा है मधुमेह का खतरा

दुनिया भर में करीब 35 करोड़ लोग मधुमेह (डायबिटिज) के शिकार हैं. इनमें से करीब 6.3 करोड़ अकेले भारत में हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2030 तक डायबिटीज लोगों की मौत का सातवां सबसे बड़ा कारण होगा. डायबिटिज को एक समय अमीरों का रोग माना जाता था. लेकिन आज यह शहरी गरीबों में तेजी से फैल रहा है और इसे रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है. ये कहना है भारत के प्रसिद्ध डायबेटोलॉजिस्ट वी मोहन का. वी मोहन इंडियन काउंसिल ऑफ द मेडिकल रिसर्च और भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से 15 राज्यों में कराए गए एक स्टडी में शामिल हुए थे. यह शोध बाद में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लैंसेट में 7 जून 2017 को प्रकाशित हुई थी. चीन के बाद भारत में सबसे अधिक डाइबिटिज पीड़ित हैं. ये जाहिर तौर पर जीवन शैली और खाने की वजह से है.

सर्वे में 15 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के 57,000 लोगों को शामिल किया गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक रूप से अधिक सम्पन्न माने जाने वाले सात राज्यों के शहरी इलाकों में सामाजिक-आर्थिक रूप से अच्छी स्थिति वाले तबके के मुकाबले सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर तबके में मधुमेह के रोगियों की संख्या अधिक है. उदाहरण के लिए, चंडीगढ़ के शहरी इलाकों में सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के बीच मधुमेह की दर 26.9 फीसद पाई गई, जो अच्छी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि वाले लोगों के बीच 12.9 प्रतिशत की दर से कहीं अधिक है. चिकित्सकों के लिए ही नहीं, बल्कि आम आदमी के लिए भी यह चिंता की बात है. भारत को विश्व की मधुमेह राजधानी के रूप में जाना जा रहा है और 2025 तक यहां 5 से 7 करोड़ मधुमेह रोगी होने की आशंका है. मधुमेह अमीर की दहलीज लांघ कर अब गरीब की चौखट पर भी दस्तक देने लगा है.

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