देश की जनता को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी. सत्रह साल बाद आई रिपोर्ट अ़खबारों की कतरनों का सिलसिलेवार संकलन जैसा लगा, नया खुलासा कुछ नहीं. इस रिपोर्ट ने खुलेआम उन्हें बोलने का मौक़ा दे दिया कि उन्हें गर्व है कि उन्होंने बाबरी मस्जिद गिराई जो पहले यह बात कहने में डरते थे. इसके बाद भी न आम आदमी ने इसका समर्थन किया और न ही कोई सड़क पर उतरा. भाजपा भी दल के तौर पर खुला विरोध करने का साहस न जुटा पाई. विवेक का परिचय मुस्लिम समाज ने दिया, जिसने कोई उग्र प्रतिक्रिया नहीं दिखाई और बाबरी मस्जिद के दोषी लोगों को गिरफ़्तार करने की सार्वजनिक मांग नहीं की. यदि यह मांग उठ जाती तो देश में सांप्रदायिक ताक़तों को उभरने का एक खुला मौक़ा मिल जाता.
पर यह तो वह पक्ष है जो सुंदर है और सांत्वना देने वाला है, लेकिन इसका एक पक्ष और है, और वह चिंतित करने वाला है. सनातन धर्म से अलग हिंदू धर्म का नाम प्रचलित करने वाली ताक़तें, जिन्होंने अपने संगठन के साथ हिंदू नाम लगा रखा है, एक रणनीति बना रही हैं. रणनीति भारत को अस्थिर करने की, भारत के लोगों के बीच अलगाव की भावना पैदा करने की और नए सिरे से भारत में सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की. अभी तक यह केवल संभावित समाचार था, पर अब यह हक़ीक़त बनने जा रहा है. हमेशा की तरह सरकार या तो अनजान है या जानबूझ कर सो रही है. वैसे ही, जैसे वह नरसिंहाराव के प्रधानमंत्रित्व काल में बाबरी मस्जिद गिरने के समय सो रही थी.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद निराशा से निकलने में व़क्त ज़रूर लगा, पर अब वे सब उससे उबर गए हैं जिन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने का दांव खेला था. आडवाणी तो प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, भाजपा भी आधी-अधूरी योजना ही, अपने को पुनर्गठित करने की, पूरी कर पाई. पर संघ ने अपने दूसरे संगठनों को खुली छूट दे दी कि वे भाजपा से अलग देश में धार्मिक उन्माद पैदा करने की रणनीति बनाएं. रणनीति बन चुकी है और एक महीने के भीतर उसे कार्यान्वित भी किया जाएगा.
देश में सबसे पुराने मेलों में एक कुंभ इस बार हरिद्वार में होने जा रहा है. एक महीने चलने वाला यह मेला जनता की आस्था की वजह से लगता है, जिसमें करोड़ों लोग जाते हैं. इसी मेले को रणनीति के कार्यान्वित करने का प्रारंभ बिंदु बनाया जा रहा है. यहां साधु-संतों को इकट्ठा किया जाएगा और उनसे राम मंदिर बनाने का आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा कराई जाएगी.
साधु-संतों का भारतीय समाज में आम तौर पर आदर किया जाता है, उनकी बातों पर एक वर्ग ध्यान भी देता है. अ़क्सर हम देखते हैं कि कथा सुनाने वाले बापुओं के पंडाल में हज़ारों की भीड़ होती है. क्या इसका यह मतलब निकालना चाहिए कि लोगों के वोट भी उसी तरह से पड़ते हैं या लोग उनके राजनैतिक निर्देशों को सुनते हैं? यह सही नहीं है, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग सभी चर्चित साधुओं और बापुओं ने आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भाजपा को वोट देने का फरमान जारी किया था. किसी ने उसे नहीं माना. साधुओं-संतों को इससे सीख लेनी चाहिए, जो वे नहीं ले रहे.
आसाराम बापू और नरेंद्र मोदी का झगड़ा तो निचले स्तर पर पहुंच गया है. नरेंद्र मोदी को कुर्सी बचाने की धमकी आसाराम बापू ने दी है और नरेंद्र मोदी आसाराम बापू को गिरफ्तार करना चाहते हैं. दोनों ही हिंदू धर्म के ध्वजावाहक हैं. साधु-संत अगर सत्य नहीं समझे तो भविष्य में उनका स्वागत भारतीय समाज में कितना होगा, कहा नहीं जा सकता. साधु-संतों को समाज में नैतिकता, प्यार, स्नेह, सहिष्णुता, अपरिग्रह का बुनियादी संदेश, जो सनातन धर्म का आधार है, फैलाना चाहिए. उन्हें वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवन्ति सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया याद रखना चाहिए, जो भारतीय समाज का पांच हज़ार वर्ष से ज़्यादा समय से आधार रहा है, पर वे तो इसे भूलते जा रहे हैं. वे राजनीतिज्ञों की तरह उनके इशारे पर उनके स्वार्थ पूर्ति का साधन बनने की होड़ लगाने जा रहे हैं.
क्षमा के साथ, जिनके बारे में लिखा है, वे बहुत कम हैं. ज़्यादा साधु-संत ऐसे नहीं हैं. ज़्यादा संख्या उनकी है, जो सनातन धर्म में आस्था रखते हैं और जिनका विश्वास प्यार, मुहब्बत, साथ-साथ रहने में, जीव-जंतु, पेड़-पौधों से प्यार करने में, इंसान-इंसान को बराबर समझने में है. लेकिन ऐसे लोग खामोश रहते हैं और साथ नहीं आते. जबकि साधु-संतों के नाम पर भटके लोग एक होकर शोर मचाते हैं तो लगता है कि भारतीय समाज की वे आवाज़ हैं. सत्य यह नहीं है, वे आवाज़ नहीं हैं. इसलिए अगर फैसला होना है तो हरिद्वार कुंभ में होना चाहिए कि सनातन धर्म को मानने वाले साधु- संत ज़्यादा हैं या हिंदू धर्म का नाम लेने वाले, साधु-संतों का चोला पहनने वाले लोग. हम बताना चाहेंगे कि पूजा पद्धति सनातन धर्म की है, जिसका पालन ये लोग भी करते हैं जो हिंदू धर्म का नाम लेते हैं.
पर देश के उन लोगों को सावधान हो जाना चाहिए, जो देश के मूलभूत आदर्शों में भरोसा करते हैं, जिनमें भारत के लोकतंत्र की खुशबू को बचाए रखने की ताक़त है. देश के सामने महंगाई है, बेकारी है, भूख है, विकास की चुनौती है, लोकतंत्र को बचाए रखने का सवाल है. वहां ऐसे लोगों को रास्ता नहीं देना चाहिए जो देश में भटकाव पैदा करने में अपनी ताक़त लगाते हैं, न कि देश की समस्याएं हल करने में. इनसे वैचारिक बहस करनी चाहिए, लेकिन ये लोग बहस करने में भरोसा नहीं करते. इनके यहां बहस करना दिमाग़ी दिवालियापन माना जाता है. भारत में रहने वालों को और भारत से प्यार करने वालों को ऐसे लोगों और ऐसी ताक़तों से काफी सावधान रहने की ज़रूरत है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here