एक वरिष्ठ वकील साहब का पुत्र क़ानून की पढ़ाई ख़त्म करके पिता के साथ वकालत करने लगा. बड़े वकील साहब शहर के एक बड़े सेठ जी का दीवानी मुकदमा कई सालों से लड़ रहे थे. सालों से निर्णय की स्थिति में आने के बाद भी उस पर अंतिम फैसला नहीं हो सका था. तारीख पर तारीख बदस्तूर जारी थी. सेठ जी का मुनीम हर तारीख पर एक तयशुदा रकम बड़े वकील साहब के हवाले कर जाता. पुत्र वकील ने एक दिन उस मुकदमे का अवलोकन किया और अपने पिता से कहा कि वह इस मुकदमे की पैरवी करना चाहता है, तो पिता ने उसे इसकी अनुमति दे दी. पुत्र ने मुकदमे के दौरान जमकर बहस की और कहा कि इसका फैसला तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था. जज साहब ने कहा कि आपकी बात ठीक है, लेकिन क्या आप अपने पिताजी से पूछकर आए हैं? पुत्र ने कहा, हां, उनकी अनुमति के बाद ही मैं यहां आया हूं. सालों पुराने इस मुकदमे पर आख़िरकार अदालत ने सेठ जी के पक्ष में ़फैसला दे दिया. बेटा अपना पहला मुकदमा जीतकर पिता के पास पहुंचा और बोला, मैंने सेठ जी का मुकदमा जीत लिया. यह सुनकर पिता ने गुस्से में कहा, तुमने यह क्या किया? जिस मुकदमे की वजह से तुम वकील बन सके, तुमने वह मुकदमा ही ख़त्म कर दिया. देश में देरी से न्याय मिलने की एक बड़ी वजह यह भी है.
भारत में देर से न्याय मिलने की कहानियां बहुत पुरानी और बड़ी संख्या में हैं, लेकिन इस बार तो देरी से फैसला सुनाने के मामले में सारी हदें पार हो गईं. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को ही हाईकोर्ट से न्याय मिलने में 39 साल लग गए. आलम यह है कि फैसला सुनने के लिए वह इस दुनिया में मौजूद नहीं हैं. वाकया वर्ष 1975 का है, जब सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस ए एन राय अपनी कार में बेटे अंजोय नाथ राय, कर्मचारी जयनंद और कार चालक इंदर सिंह के साथ कोर्ट से अपने घर की ओर जा रहे थे. जैसे ही वह सुप्रीम कोर्ट के गेट से निकल कर 200 मीटर की दूरी पर पहुंचे, वैसे ही वहां मौजूद तीन युवकों ने उनकी कार पर हैंडग्रेनेड से हमला कर दिया. हालांकि, दोनों ही ग्रेनेड नहीं फटे और कोई भी शख्स हताहत नहीं हुआ. इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी. सीबीआई ने संतोष आनंद, रंजन, सुदेवानंद एवं विक्रम नामक युवकों को गिरफ्तार किया था. विक्रम बाद में सरकारी गवाह बन गया था. इस मामले में निचली अदालत ने अपना फैसला एक साल बाद यानी 1976 में दे दिया था. उस वक्त ए एन राय जीवित थे. निचली अदालत ने अभियुक्तों संतोष आनंद अवधूत, सुदेवानंद अवधूत और रंजन द्विवेदी को 10-10 साल कैद की सजा सुनाई थी. तीनों अभियुक्तों ने निचली अदालत के निर्णय को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. 39 साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने उस पर अपना फैसला सुनाते हुए दो आरोपियों संतोष आनंद अवधूत एवं सुदेवानंद अवधूत की सजा बरकरार रखी और रंजन द्विवेदी को सुबूतों के अभाव में बरी कर दिया है.
इसी तरह बहुचर्चित सूर्यानेल्ली बलात्कार मामले में केरल हाईकोर्ट ने फैसला देने में 18 साल लगा दिए. घटना के समय पीड़िता नाबालिग थी. उसे आरोपी केरल एवं तमिलनाडु के विभिन्न स्थलों पर ले गए. चालीस दिनों में 3000 किमी की यात्रा के दौरान विभिन्न जगहों पर 40 से ज़्यादा लोगों ने उसके साथ दुष्कर्म किया और फिर 26 फरवरी, 1996 को उसे मुक्त कर दिया. इस मामले में 36 आरोपी थे. मुकदमे के दौरान पांच आरोपियों की मौत हो गई. इस मामले की नए सिरे से सुनवाई के लिए बनाई गई पीठ ने सात आरोपियों को बरी कर दिया. अदालत ने शेष आरोपियों को पांच से लेकर 13 साल तक की सजा सुनाई और जुर्माना लगाया.
इसी तरह डीटीसी के कंडक्टर रामबीर सिंह 41 सालों से इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं. 41 साल पहले डीटीसी ने चुस्ती की अनोखी मिसाल पेश की थी. आज की तारीख में रामबीर सिंह 70 साल के हो चुके हैं. वाकया 1973 का है. रामबीर सिंह यादव डीटीसी में बस कंडक्टर थे. उनकी बस मायापुरी जा रही थी. उसी दौरान टिकट चेकर स्न्वॉयड आ धमका. टिकट चेकर्स ने पाया कि एक महिला को 10 पैसे का टिकट दिया गया है, जबकि 15 पैसे का टिकट बनना चाहिए था. पांच पैसे के लिए टिकट चेकर्स स्न्वॉयड ने रणवीर सिंह के ख़िलाफ़ डीटीसी के साथ धोखाधड़ी और लापरवाही का मामला बनाया. विभागीय जांच हुई और फैसला रामबीर सिंह के ख़िलाफ़ आया. सरकारी खजाने को पांच पैसे का नुक़सान पहुंचाने के लिए रामबीर सिंह को दोषी ठहराया गया. जांच रिपोर्ट के आधार पर उन्हें 1976 में नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. रामबीर सिंह ने डीटीसी के इस फैसले को लेबर कोर्ट में चुनौती दी. अदालत ने वर्ष 1982 में रामबीर के पक्ष में फैसला दिया. डीटीसी ने लेबर कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी. हाईकोर्ट ने डीटीसी की याचिका अप्रैल 2007 में खारिज कर दी. इसके बाद 2008 में डीटीसी ने हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी. यह मामला अभी तक विचाराधीन है.
इस साल जुलाई के अंत तक सुप्रीम कोर्ट में 65,762 मुकदमे लंबित हैं. पूरे देश में आज लगभग 3.2 करोड़ मुकदमे लंबित हैं. देश में 1000 फास्ट ट्रैक कोर्ट काम कर रही हैं, जिन्होंने पिछले ग्यारह सालों में लगभग 32 लाख मुकदमों का निस्तारण किया. आंकड़ों के अनुसार, उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों के तक़रीबन 4,655 पद रिक्त पड़े हैं, जिसकी वजह से लंबित मामलों की सुनवाई में देरी हो रही है. पिछले दो सालों में सुप्रीम कोर्ट और निचली अदालतों में लंबित मामलों की संख्या में मामूली कमी आई है. कई बार तो सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज रह चुके लोगों ने सुनवाई की धीमी गति देखकर कहा कि यदि इसी रफ्तार से अदालतों में काम चलता रहा, तो लंबित मामले निपटाने में तीन-चार सौ साल लग जाएंगे. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी बार-बार दोहराते रहे हैं कि देरी से इंसाफ, नाइंसाफी है.
न्याय मिलने में देरी का कारण केवल जज और सुविधाओं की कमी नहीं है. न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी, जज-वकीलों की साठगांठ और प्रभावशाली लोगों के कारण भी इंसाफ मिलने में देरी होती है. जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने तो अदालतों के जज-अंकल सिंड्रोम से प्रभावित होने की बात आधिकारिक रूप से कही थी. निचली अदालत के वकील भी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट छोड़िए, ग़रीब तो निचली अदालत में भी मुकदमा लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, क्योंकि वह जानता है कि कोर्ट-कचहरी में न जाने कितने दिन लग जाएंगे, इसलिए वह दोहरे नुक़सान से बचना चाहता है. संपत्ति विवाद के मुकदमों का फैसला आने में पीढ़ियां गुजर जाती हैं. यदि कोई व्यक्ति अदालत में मुकदमा लड़ने की हिम्मत कर भी ले, तो सालों तारीख पर तारीख, वकील की फीस के साथ जगह-जगह रिश्वत देने के कारण उसकी हालत खराब हो जाती है. निचली अदालत के बाद लोगों की हिम्मत दम तोड़ देती है. ज़मीन बंटवारे, किरायेदारी और ऐसे ही न जाने कितने मुकदमे लोग सालों से लड़ रहे हैं. वकील अपनी फीस के चक्कर में भी लोगों को चक्कर कटवाते रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने कहा था कि आधारभूत ढांचे की कमी के कारण ही मुकदमों की संख्या बढ़ रही है. जजों की संख्या बढ़ाने के साथ ही अदालतों को सुविधाएं दिलाने की तरफ़ भी उन्होंने सरकार का ध्यान दिलाया था.
जजों एवं सुविधाओं की कमी, ग़रीब आदमी की अदालत से दूर होती पहुंच और इंसाफ में देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की इस तरह की टिप्पणी से आम आदमी में भी निराशा पैदा होती है. बड़े-बड़े वकील अपने मुवक्किल को फ़ायदा पहुंचाने के लिए सुनवाई को लंबे समय तक टलवाते रहते हैं. यह बात अदालत की जानकारी में होने के बावजूद कोई कुछ नहीं कर पाता. सरकार को पुराने मामलेे वर्गीकृत कर मध्यस्थता के आधार पर ख़त्म कराने के लिए पहल करनी चाहिए. हर मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक आधार पर करके लोगों को राहत देनी चाहिए, जिससे लोगों का विश्वास कम से कम अदालत के प्रति तो बना रहे. वरना सरकारी व्यवस्थाओं का तो भगवान ही मालिक है.
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