क्या आप भी बिना सोचे-समझे किसी भी डेंटल क्लीनिक मे इलाज के लिए पहुंच जाते हैं? अगर हां, तो जरा संभल जाइए! यदि आपके डॉक्टर ने क्लीनिक के उपकरणों को सही तरीके से स्टेरलाइज नहीं किया है तो यहां से आप हेपेटाइटिस और एचआईवी/एड्स के संक्रमण की चपेट मे आ सकते हैं. मौलाना आजाद इंस्टीट्यूट ऑफ डेंटल साइंसेज के एक्स सीनियर कंसलटेंट डॉ. सुमित दुबे इस बारे में दे रहे हैं पूरी जानकारी:
शुरुआत में नहीं दिखते हैं लक्षण
एचआईवी/एड्स अथवा हेपेटाइटिस के बारे में जब तक मरीज को पता लगता है तब तक यह बीमारी उसे पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले चुकी होती है. इस बीमारी के अधिकतर मामलों में मरीज में संक्रमण होने के पांच सालों बाद लक्षण सामने आते हैं. ऐसे में यह याद रखना बेहद मुश्किल होता है कि इसकी वजह क्या थी? इसकी कई वजहें हो सकती हैं. डेंटल क्लीनिक विजिट भी इनमें से एक वजह हो सकती है.
हर साल लाखों लोग आते हैं इन बीमारियों की चपेट में
देश में एड्स का पहला मामला 1986 में दर्ज किया गया था. नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक भारत में साल 2011 में 1.48 लाख लोगों की मौत एड्स से हुई थी. इसी तरह से विश्व स्वास्थ्य संगठन(डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक देश में हर साल 2.4 लाख लोग हेपेटाइटिस-बी वायरस संबंधी जटिलताओं का ग्रास हर साल बनते हैं. आंकड़ों की बात करें तो इन दोनों ही बीमारियों के मामले में स्थिति गंभीर है. इसके पीड़ितों के इलाज के साथ-साथ एचआईवी और हेपेटाइटिस वायरस के प्रसार को रोकने पर भी बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. डेंटल क्लीनिकों में बहुत सारे औजारों का इस्तेमाल मरीजों पर किया जाता है, ऐसे में यह जगह संक्रामक बीमारियों के प्रसार हेतु हाई-रिस्क जोन में आती हैं. ये वे जगहें होती हैं जहां संक्रमण का प्रसार रोकने के लिए सबसे ज्यादा ध्यान देने की आवश्कता होती है.
अन-ऑर्गनाइज्ड सेक्टर है सबसे बड़ा खतरा
भारत में छोटे शहरों और कस्बों में हर दो कदम पर जेन्ट्स सैलून की तरह छोटे-छोटे डेंटल क्लीनिक खुले हुए हैं. दांतों की देखभाल का 97 प्रतिशत हिस्सा बाजार अनियोजित क्षेत्र के हाथों में है ऐसे में एक आम दिशा-निर्देश बनाकर हर जगह इसका पालन करवाना टेढ़ी खीर है. मौजूदा समय में ऐसे डेंटल सेंटर महत्वपूर्ण हो जाते हैं जहां सभी मानकों का गंभीरता से ध्यान रखा जाता है.
इन बातों पर करें गौर
-मरीजों की पूरी मेडिकल हिस्ट्री जानें: मरीज की जांच शुरू करने से पहले इसकी मेडिकल हिस्ट्री जानना बेहद जरूरी है. अगर आपको इसके बारे में पता होगा तो आप इलाज के दौरान ज्यादा सावधानी बरतेंगे और इलाज में इस्तेमाल किए गए औजारों की सफाई ज्यादा अच्छी तरह से करेंगे.
– औजारों की कैटेगरी के हिसाब से करें स्टेरलाइज: औजारों के स्टेरलाइजेशन का बेहतरीन परिणाम तभी मिल सकता है जब आप गंभीरता पूर्वक इन उपकरणों की श्रेणी के हिसाब से उनका स्टेरलाइजेशन करें. इन्हें तीन श्रेणियों में बांटा गया है:
- क्रिटिकल इन्स्ट्रुमेंट- ये उपकरण कोशिकाओं को भेदते हैं और रक्त ब्लड के संपर्क में आते हैं. हर बार इस्तेमाल के बाद इन्हें अच्छी तरह से स्टेरलाइज करना जरूरी होता है. इसके लिए ऑटोक्लेव यानी स्टीम हीटिंग, ड्राई हीट अथवा हीट केमिकल वैपर का इस्तेमाल किया जाता है. क्रिटिकल इन्स्ट्रुमेंट में फोरसेप, स्कल्पेल और सर्जिकल बर्स आदि शामिल हैं.
- सेमी-क्रिटिकल इन्स्ट्रुमेंट- ये औजार, जैसे कि मिरर, दोबारा इस्तेमाल योग्य इंप्रेशन ट्रे आदि कोशिकाओं के संपर्क में नहीं आते हैं लेकिन ये खुली हुई त्वचा के संपर्क में आते हैं. ऐसे में संक्रमण फैलाने की वजह जरूर बन सकते हैं. इन्हें भी स्टेरलाइज करने की जरूरत होती है. अगर इन उपकरणों को स्टेरलाइज नहीं किया जा सकता है तो इन्हें संक्रमण मुक्त करने के लिए उच्च-कोटि के डिसइन्फेक्टेंट का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
- नॉन-क्रिटिकल इन्स्ट्रुमेंट- इन इपकरणों से संक्रमण के प्रसार का खतरा बेहद कम होता है क्योंकि ये शायद ही खुली हुई त्वचा के संपर्क में आते हैं. इनमें एक्स-रे हेड्स, पल्स ऑक्सीमीटर, ब्लड प्रेशर कफ आदि इस श्रेणी में आते हैं. लेकिन इन्हें भी डिस-इनफेक्टेंट से साफ जरूर किया जाना चाहिए.
– इस्तेमाल न होने पर पैक करके रखें औजार: सभी औजारों को स्टेरलाइज करने के बाद इन्हें पाउच में पैक करके यूवी चैंबर में रखें ताकि ये दोबारा संक्रमित होने से बचे रहें. सबसे अच्छा और उपयुक्त तरीका होता है इस पाउच को मरीज के सामने खोलें ताकि वह भी इस बात को लेकर पूरी तरह संतुष्ट रहे कि यहां स्टेरलाइजेशन प्रक्रिया सही ढंग से अपनाई जाती है.
– डिस्पोजेबल चीजों का अधिक से अधिक इस्तेमाल- जहां भी डिस्पोजेबल चीजों का इस्तेमाल हो सकता है वहां इन्हें ही अपनाना चाहिए. सिरिंज, कार्टिजेज, ग्लास, पट्टी, दस्ताने आदि को एक बार इस्तेमाल के बाद फेंक देना चाहिए. जितना ज्यादा डिस्पोजेबल चीजों का इस्तेमाल होगा संक्रमण का खतरा उतना कम रहेगा.
-उपयुक्त स्टेरलाइजेशन के लिए बीजाणुओं की जांच- कई बार ऑटोक्लेव सही ढंग से काम नहीं करता है. ऐसे में स्टेरलाइजेशन का कोई फायदा नहीं होता. ऐसे में क्रॉस कंटैमिनेशन और संक्रमण फैलने का खतरा और बढ़ जाता है. डेंटल क्लीनिकों को बीजाणु जांच जरूर करना चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि ऑटोक्लेव सही ढंग से काम कर रहा है अथवा नहीं.