अभी दिल्ली में निश्‍चित तौर पर भाजपा बनाम आप के बीच फिफ्टी-फिफ्टी का मामला है और उसमें भी आप का पलड़ा भारी होता दिख रहा है. वजह यह कि पिछले दो माह में केंद्र में भाजपा सरकार के रहते जिस तरह रेल किराये, चीनी, टमाटर, प्याज एवं पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि हुई, उससे दिल्ली की जनता और खासकर वह मध्य वर्ग, जो आम आदमी पार्टी से छिटका था, निराश हो सकता है.
4-mnnभारतीय राजनीति की चाल, चरित्र और चेहरे को समझना हो, तो लोकसभा चुनाव के बाद से दिल्ली (राज्य) में सरकार बनाने को लेकर चल रही रस्साकशी और आरोप-प्रत्यारोप पर ध्यान देने की ज़रूरत है. यहां राजनीति के सारे रंग एक साथ देखने को मिल रहे हैं. हॉर्स ट्रेडिंग के आरोप, विधायकों के टूटने-बिखरने की ख़बरें, बंद दरवाजों के पीछे चलने वाली बैठकों के दौर आदि-आदि. कोई भी ऐसी पार्टी नहीं, जिसे इस कवायद से अलग देखा गया हो. भले ही कोई इसकी आधिकारिक पुष्टि न करे, लेकिन यह ख़बर पक्की है कि भाजपा और आम आदमी पार्टी, दोनों ने सरकार बनाने की कोशिश की. भाजपा की बात करें, तो खुद भाजपा ने यह दावा किया कि आम आदमी पार्टी के कई विधायक उसके संपर्क में हैं और इस दावे में काफी हद तक सच्चाई भी है. दूसरी तरफ़, आम आदमी पार्टी ने भी खुद यह कहा कि भाजपा उसके विधायकों को 20 करोड़ रुपये का ऑफर दे रही है. कुछ ऐसा ही दावा कांग्रेस के विधायकों ने भी किया कि आम आदमी पार्टी सरकार बनाने के लिए उनसे समर्थन मांग रही है.
कुल मिलाकर पिछले कुछ दिनों का पूरा घटनाक्रम आपको भारतीय राजनीति के कई रंगों से रूबरू कराता है. आम चुनाव में भारी जीत हासिल करने वाली भाजपा अपने ही द्वारा बनाए गए उच्च नैतिक मानदंडों की वजह से खुलकर हॉर्स ट्रेडिंग का खेल नहीं खेल पाई. सब कुछ पर्दे के पीछे चलता रहा. उसे यह उम्मीद थी कि आप के नए विधायक आसानी से उसके साथ आकर मिल जाएंगे और इस तरह सरकार बन जाएगी तथा उसकी नैतिकता की दीवार भी ढहने से बच जाएगी. लेेकिन, अरविंद केजरीवाल ने हॉर्स ट्रेडिंग की बात जमकर उछाली, जिससे खुलेआम विधायकों में तोड़-फोड़ का खेल संभव नहीं हो पाया. न भाजपा ऐसा कर पाई और न खुद आम आदमी पार्टी के विधायक अपनी पार्टी से अलग होने का साहस दिखा सके.
भाजपा के राज्यस्तरीय नेता तो सरकार बनाने की बात से इंकार नहीं कर रहे, लेकिन शीर्ष नेतृत्व खुलकर कुछ नहीं कह पा रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि आरएसएस का जोर फिर से चुनाव कराने पर है और वह नहीं चाहता कि लोकसभा में इतनी जबरदस्त जीत के बाद जनता के बीच यह संकेत जाए कि भाजपा दिल्ली में सरकार बनाने के लिए किसी भी तरह का तिकड़म अपना सकती है. दूसरी तरफ़, आम आदमी पार्टी को भी अब यह एहसास हो चुका है कि उसे कांग्रेस से मदद नहीं मिलने वाली है और अगर भाजपा ने दिल्ली (राज्य) में सरकार बना ली, तो उसके लिए काफी मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. इस वजह से अब अरविंद केजरीवाल दिल्ली में फिर से विधानसभा चुनाव कराने के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर से लेकर राष्ट्रपति तक से मिल रहे हैं.
वैसे, इस राजनीतिक अस्थिरता के दौर में एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चुनाव ही बेहतर विकल्प साबित होगा. बहरहाल, अब इस पर ग़ौर करना दिलचस्प होगा कि अगर दिल्ली में विधानसभा चुनाव होते हैं, तो क्या तस्वीर निकल कर सामने आएगी. आम धारणा के मुताबिक, दिल्ली के दंगल में अब स़िर्फ दो ही खिलाड़ी बचे हुए हैं यानी भाजपा और आम आदमी पार्टी. कांग्रेस को अब लोग इस खेल से बाहर मान रहे हैं. वैसे, किसी राजनीतिक दल की भविष्यवाणी करना हमेशा ख़तरों से खेलने जैसा होता है. यह सही है कि पिछले लोकसभा चुनाव का परिणाम और खासकर दिल्ली का परिणाम बताता है कि कांग्रेस की हालत आज एक क्षेत्रीय दल से भी बदतर हो गई है. लेकिन, इसी के साथ यह भी याद रखना दिलचस्प होगा कि बीते लोकसभा चुनाव ने कई ऐसे राजनीतिक दलों को फिर से स्थापित कर दिया है, जिनकी कल तक ओबेचुअरी (शोक संदेश) लिखी जा रही थी. मतलब यह कि भारतीय क्रिकेट और भारतीय राजनीति, दोनों का ताल्लुक भविष्यवाणी विज्ञान से नहीं है, फिर भी मौजूदा तस्वीर यही दिखाती है कि कांग्रेस अगर दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी वर्तमान स्थिति को भी बरकरार रख ले, तो उसके लिए बड़ी बात होगी. और, कहीं अगर वह 8 से 10 पर पहुंच जाती है, तो फिर उसके लिए जश्‍न मनाने का मौक़ा होगा.
दिसंबर 2013 में भाजपा के पास जश्‍न मनाने के तमाम मौ़के मौजूद थे. दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी बस सामने ही थी, लेकिन 32 सीटें पाने के बावजूद भाजपा के सामने से वह कुर्सी ओझल हो गई. वजह, आम आदमी पार्टी द्वारा 28 सीटें जीतना. अब लोकसभा में अकेले दम पर 282 एवं दिल्ली की सभी सातों सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत के लिए मनोवैज्ञानिक तौर पर पूरी तरह से तैयार है. उसे उम्मीद है कि दिल्ली की सत्ता आसानी से मिल जाएगी. लोकसभा चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता में आई कमी के चलते उसे खुद को कोई चुनौती मिलती नहीं दिख रही है, लेकिन ऐसा उसके अति-आत्मविश्‍वास की वजह से भी हो सकता है. दिल्ली की सात सीटों पर भले ही आम आदमी पार्टी हार गई हो, लेकिन वह सभी सीटों पर बढ़े हुए मत प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर रही. दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ी निवासियों, छोटे दुकानदारों,
रेहड़ी-पटरी वाले लोगों और ऑटो-रिक्शा चालकों के बीच अभी भी इस पार्टी की विश्‍वसनीयता बरकरार है. बातचीत के दौरान ऐसे लोग बेहिचक कहते हैं कि केजरीवाल की 49 दिनों की सरकार में पुलिस ने उनसे रिश्‍वत लेनी बंद कर दी थी. आरटीओ एवं अन्य सरकारी दफ्तरों से दलाल गायब हो गए थे.
बिजली-पानी की राजनीति और उसमें अंतर्निहित दांव-पेंच चाहे जो भी हों, लेकिन दिल्ली का एक बड़ा तबका ऐसा है, जिसे 3 महीने के लिए ही सही, भारी-भरकम बिजली-पानी के बिल से मुक्ति मिली. ये सारे तथ्य ऐसे हैं, जिनकी जांच आप सरेराह चलते हुए दिल्ली की सड़कों पर लोगों से बातचीत द्वारा कर सकते हैं.
इसके अलावा एक सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि भाजपा की दिल्ली इकाई डॉ. हर्षवर्धन के केंद्रीय मंत्री बनने के बाद एक मजबूत लीडरशिप की कमी से जूझ रही है. अगर विधानसभा चुनाव होते हैं, तो दिल्ली भाजपा अपना मुख्यमंत्री किसे प्रोजेक्ट करे, इस पर भी काफी संशय है. उसके पास फिलहाल ऐसा कोई चेहरा नहीं दिख रहा है, जो अरविंद केजरीवाल को चुनौती दे सके. यह चुनौती राजनीतिक तौर पर कम, व्यक्तिगत ईमानदारी, नैतिकता और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले एक शख्स के तौर पर ज़्यादा है. यानी विभिन्न मुद्दों पर अरविंद केजरीवाल की आलोचना तो हो सकती है, लेकिन एक मॉरल अथॉरिटी, जो उनके पास है, उसके मुकाबले अभी भाजपा के पास कोई उम्मीदवार नहीं है. यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले विधानसभा चुनाव में अंतिम समय तक भाजपा के उम्मीदवार विजय गोयल थे, लेकिन शायद यह अरविंद केजरीवाल की मॉरल अथॉरिटी का ही कमाल था कि भाजपा को गोयल की जगह ईमानदार छवि वाले हर्षवर्धन को सामने लाना पड़ा.
कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि अभी दिल्ली में निश्‍चित तौर पर भाजपा बनाम आप के बीच फिफ्टी-फिफ्टी का मामला है और उसमें भी आप का पलड़ा भारी होता दिख रहा है. वजह यह कि पिछले दो माह में केंद्र में भाजपा सरकार के रहते जिस तरह रेल किराये, चीनी, टमाटर, प्याज एवं पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि हुई, उससे दिल्ली की जनता और खासकर वह मध्य वर्ग, जो आम आदमी पार्टी से छिटका था, निराश हो सकता है. यह निराशा इस वर्ग को एक बार फिर केजरीवाल के पास पहुंचा सकती है. और, अगर ऐसा हुआ, तो संभव है कि दिल्ली में मुख्यमंत्री की कुर्सी एक बार फिर भाजपा के हाथ से निकल जाए. वैसे, यह भी एक राजनीतिक भविष्यवाणी है, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि भारतीय राजनीति और क्रिकेट के लिए भविष्यवाणी करना हमेशा ख़तरों से खेलने जैसा होता है.

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