किसी ने सच कहा है, उम्र बीत जाती है आशियां बनाने में. लेकिन, यह कहानी कुछ अलग है. यहां आशियां बनाने की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है. यह कहानी है, ज़मीन का एक अदद टुकड़ा पाने के लिए होने वाली जद्दोजहद की. दिल्ली के कई हज़ार लोगों की ज़िंदगी ज़मीन के इसी टुकड़े को पाने में ग़ुजर गई. कई ऐसे लोग भी हैं, जो पिछले 35 वर्षों से ज़मीन की आस में जिए जा रहे हैं. लेकिन, सरकारी प्रतिष्ठानों को शायद ही इन सब बातों से कोई मतलब होता है. यह कहानी शुरू होती है वर्ष 1981 से, जब दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने रोहिणी आवासीय भूखंड योजना की घोषणा की.
इस योजना के तहत जनता को 1.17 लाख प्लॉट दिए जाने थे. इनमें एलआईजी, एमआईजी एवं एचआईजी श्रेणी के 100 से 200 वर्ग मीटर के प्लॉट शामिल थे, जो नियमानुसार पांच वर्षों के भीतर उपलब्ध कराए जाने थे. इस योजना के लिए 1,413 हेक्टेयर ज़मीन की ज़रूरत थी. डीडीए ने इसके लिए बाकायदा 2, 473 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण भी किया. यह जानना दिलचस्प है कि 1.17 लाख प्लॉटों के लिए स़िर्फ 82 हज़ार लोगों ने आवेदन किए.
और, हक़ीक़त यह है कि उनमें से भी 11 हज़ार लोगों को आज तक प्लॉट नहीं मिल सके. आज तक का मतलब यह कि 35 वर्ष बीतने के बाद भी प्लॉट नहीं मिल सके. जब आवेदकों ने इस मामले में 2008 के बाद कार्रवाई करनी शुरू की, तो डीडीए हरकत में आया. आवेदकों ने सूचना का अधिकार क़ानून के तहत सवाल पूछने शुरू किए. उन्होंने एक संगठन भी बनाया और 2009 में हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. 2012 में संगठन सुप्रीम कोर्ट भी गया, जहां डीडीए ने शेष 11 हज़ार लोगों को जुलाई 2015 तक प्लॉट देने का वादा किया. दिल्ली के राकेश खुराना, विनय नंदा एवं राज कुमार जैन ऐसे लोग हैं, जिन्हें 35 वर्षों बाद भी प्लॉट नहीं मिल सका.
राकेश खुराना ने 1981 में पांच हज़ार रुपये देकर एमआईजी प्लॉट बुक कराया था. 2015 में उनसे 14 लाख रुपये और जमा कराए गए. विनय नंदा एवं राज कुमार जैन ने भी इतने ही पैसे जमाए कराए. बावजूद इसके, अब तक उन्हें प्लॉट नहीं मिल सका. उक्त लोगों को नवंबर 2014 में डीडीए की तऱफ से अलाटमेंट कम डिमांड लेटर भेजकर उक्त पैसा जमा कराने के लिए कहा गया था. लेकिन, बढ़े हुए रेट के हिसाब से पैसा जमा कराने के एक वर्ष बाद भी उन्हें प्लॉट आवंटित नहीं किए जा सके हैं.
चौथी दुनिया से बात करते हुए राकेश खुराना, राज कुमार जैन एवं विनय नंदा बताते हैं, डीडीए से प्लॉट पाने का सपना देखते-देखते हम रिटायर भी हो गए. राकेश खुराना कहते हैं कि इस योजना के नाम पर डीडीए ने ज़रूरत से कहीं अधिक ज़मीन का अधिग्रहण किया था, लेकिन बाद में उसे अन्य योजनाओं में डायवर्ट कर दिया. राज कुमार जैन का कहना है, एक तऱफ तो डीडीए ने ज़रूरत से अधिक ज़मीन अधिग्रहीत की, वहीं दूसरी तऱफ अब हमारे प्लॉट का साइज भी घटा दिया गया है. ग़ौरतलब है कि 1983-85 के दौरान डीडीए ने क़रीब 384 हेक्टेयर ज़मीन 152 को-ऑपरेटिव सोसायटियों को आवंटित कर दी थी.
जबकि उस वक्त तक 82 हज़ार आवेदकों में से अधिकतर लोगों को प्लॉट आवंटित नहीं हो पाए थे. सवाल यह है कि जब आवेदकों को प्लॉट नहीं दिए जा सके थे, तो योजना के लिए अधिग्रहित की गई ज़मीन दूसरी योजनाओं को क्यों दे दी गई? रोहिणी रेसिडेंसियल स्कीम-1981 एसोसिएशन ने इस पूरे मामले पर जांच-पड़ताल शुरू की और उसे अदालत तक ले गई कई नेताओं ने उसके समर्थन में पत्र लिखे, संसद में आवाज़ भी उठी. बावजूद इसके, नतीजा ढाक के वही तीन पात रहा.
राज कुमार जैन बताते हैं कि अभी भी रोहिणी में डीडीए की ज़्यादातर ज़मीन अविकसित है. वहां न तो सड़कें हैं, न सीवेज है और न बिजली. ऐसे में अगर प्लॉट मिलता भी है, तो हम उसका क्या करेंगे? जैन बताते हैं कि रोहिणी आवासीय भूखंड योजना-1981 में अब डीडीए ने कुछ नई शर्तें लगा दी हैं. मसलन, आवेदक के पास किसी तरह की संपत्ति नहीं होनी चाहिए. जैन इन शर्तों को अवैध बताते हैं.
ज़ाहिर है, डीडीए इन नए फरमानों के ज़रिये आवेदकों को प्लॉट न देने के रास्ते तलाश रही है. आवेदकों का कहना है कि उन्होंने 1981 में जो पैसे जमा कराए थे, उनकी वैल्यू आज 35 वर्षों बाद कितनी होगी, इसका भी ख्याल किया जाना चाहिए. सवाल है कि जब इस मामले में अदालत ने आवेदकों के पक्ष में फैसला दिया है और डीडीए ने भी प्लॉट देने का वादा अदालत से कर दिया है, तो फिर प्लॉट आवंटित क्यों नहीं किए जा रहे हैं?