पावन धाम बद्रीनाथ स्वयं भगवान एवं नारद आदि मुनियों से निरंतर सेवित है, इसीलिए इसे सृष्टि के आठवें बैकुंठ के रूप में ख्याति प्राप्त है. धरती पर चार युगों में चार धामों की स्थापना की पुष्टि स्वयं पुराण करता है. ऐसी मान्यता है कि सतयुग में पावन धाम बद्रीनाथ की स्थापना स्वयं नारायण ने की. त्रेता युग में रामेश्वरम की स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की. द्वापर युग में द्वारिका धाम की स्थापना भगवान श्रीकृष्ण द्वारा हुई. कलियुग में जगन्नाथ धाम का महत्व अधिक है. मान्यता है कि सतयुग के प्रारंभ में लोक कल्याण की कामना से भगवान नारायण प्रत्यक्ष रूप से मूर्तिमान होकर स्वयं तप करते थे. सतयुग में प्रत्यक्ष नारायण के दर्शन सुलभ होने के कारण यह पावन धाम मुक्तिप्रदा के नाम से विख्यात हुआ. द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन की आशा में बहुजन संकुल होने के नाते इस धाम को विशाला के नाम से जाना गया. कलियुग में इसे पावन बद्रीनाथ के नाम से पुकारा जाता है.
बौद्ध धर्म के हीनयान-महायान समुदायों के पारस्परिक संघर्ष ने बद्रीनाथ को भी प्रभावित किया. आक्रमण और विनाश की आशंका के चलते भगवान नारायण की मूर्ति की रक्षा में असमर्थ पुजारी भगवान श्री की मूर्ति समीप स्थित नारद कुंड में डाल दी और इस धाम से पलायन कर गए. जब भगवान श्री की मूर्ति के दर्शन नहीं हुए, तो देवगण भगवान शिव के कैलाशपुरी पहुंच गए. भगवान शिव ने प्रकट होकर कहा, तुम लोगों की निर्बलता के कारण ऐसा हुआ है, मूर्ति कहीं नहीं गई है, वह नारद कुंड में है. तुम लोग वर्तमान में शक्तिहीन हो, नारायण मेरे भी आराध्य हैं, अतएव मैं स्वयं अवतार लेकर मूर्ति का उद्धार करके जगत के कल्याण के लिए उसकी स्थापना करूंगा. कालांतर में भगवान आशुतोष अपने दिए वचन को पूरा करते हुए दक्षिण भारत के कालड़ी नामक स्थान पर ब्राह्मण भैरवदत्त उर्फ शिव गुरु के घर माता आर्यम्बा की कोख से जन्म लेकर आदिगुरु शंकराचार्य के नाम से जगविख्यात हुए. आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा संपूर्ण भारत में अव्यवस्थित तीर्थों का सुदृढ़ीकरण, बौद्ध मत का खंडन एवं सनातन वैदिक मत का मंडन सर्वविदित है.
शिव रूप आदिगुरु शंकराचार्य ग्यारह वर्ष की अवस्था में बद्रिकाश्रम पहुंचे और नारद कुंड से भगवान की दिव्य मूर्ति का विधिवत उद्धार करके उसकी पुनर्स्थापना की. आज भी उसी परंपरा के अनुसार उन्हीं के वंशज नाम्बूदरीपाद ब्राह्मण ही भगवान बद्री विशाल की पूजा-अर्चना करते हैं. इस धाम में आज भी नारायण की पूजा छह माह तक मनुष्यों और छह माह तक देवताओं, नारद आदि ॠषियों द्वारा किए जाने की मान्यता है. शीतकाल में धाम के कपाट छह माह के लिए बंद कर दिए जाते हैं. मंदिर के कपाट अप्रैल के अंत अथवा मई के प्रथम पखवाड़े में वैदिक परंपरा के अनुसार खोले जाते हैं. मंदिर खुलने के दिन धाम में जलने वाली अखंड ज्योति के दर्शन का विशेष महत्व है. धाम को छह माह के लिए नवंबर दूसरे सप्ताह में वैदिक परंपरा के अनुसार बंद किया जाता है.
बद्रीनाथ जी की मूर्ति का स्वरूप
भगवान श्री की दिव्य मूर्ति का इतिहास लगभग द्वापर युग (कृष्णावतार के समय) का माना जाता है. भगवान बद्रीनाथ जी की यह तीसरी प्राण प्रतिष्ठा है. भगवान श्री की दिव्य मूर्ति कुछ हरित वर्ण की पाषाण शिला में निर्मित है, जिसकी ऊंचाई लगभग डेढ़ फुट है. सिंहासन के ऊपर पद्मासन में योग मुद्रा में भगवान श्री के गंभीर बुर्तलकार नाभि-हृदय के दर्शन होते हैं. नाभि के ऊपर भगवान श्री के विशाल वक्षस्थल के दर्शन होते हैं. बाएं भाग में भृगुलता के चिन्ह एवं दाएं भाग में श्रीवत्स हैं. भृगुलता श्री भगवान की सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता का प्रतीक है. श्रीवत्स दर्शन शरणागति दायक और भक्तवत्सलता का प्रतीक है. पुराण इसका स्वयं साक्षी है कि त्रिदेवों में महान कौन है. इसके परीक्षण के लिए भृगु ॠषि ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर प्रहार किया, तो क्षमा के साथ ही भगवान श्री ने अपने महान होने का परिचय भी दिया.
ग्रीवज्स चिन्ह में वाणासुर की रक्षा हेतु भगवान शिव द्वारा फेंके गए त्रिशूल के घाव हैं, जो भगवान कृष्ण के वक्षस्थल को चीरा लगा गए थे. स्वर्ण रेखा के रूप में लक्ष्मी प्रदाता के प्रतीक बने हैं. इससे ऊपर भगवान की दिव्य कम्बुग्रीवा के दर्शन होते हैं, जो महापुरुषों के लक्षण परिलक्षित करती है. भगवान श्री के उक्त दर्शन जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त करने वाले हैं. भगवान बद्रीनाथ के बाईं ओर ताम्र वर्ण की छोटी-सी मूर्ति नारद जी की है. परंपरानुसार शीतकाल में देवपूजा के क्रम में श्री नारद जी के माध्यम से ही नारायण भगवान देवताओं द्वारा सुपूजित होते हैं. नारद जी के पृष्ठ भाग में उद्धव जी की चांदी की दिव्य मूर्ति है. द्वापर में भगवान श्री के सखा उद्धव उनकी आज्ञा से यहां पधारे थे. यह भगवान श्री की उत्सव मूर्ति के रूप में सुपूजित होती है. शीतकाल में देवपूजा के समय उद्धव जी की ही पूजा पांडुकेश्वर के योगध्यानी मंदिर में संपन्न होती है. नारद जी के बाईं ओर शंख, चक्र, गदा धारण किए हुए पद्मासन में स्थित नारायण भगवान के दर्शन होते हैं. बद्रीनाथ जी के दाईं ओर गरुण ध्यान मुद्रा में खड़े हैं. हिमालय में पिछले साल आई दैवीय आपदा के कारण देवभूमि में भारी तबाही हुई, जिससे चार धाम की यात्रा रोक दी गई. विस्फोटकों के अंधाधुंध प्रयोग से हिमालय को नुकसान हो रहा है. हमें देवभूमि, हिमालय में तबाही रोकने के लिए संकल्प लेना होगा.
दर्शन मात्र से जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति
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