555दाग़ी और भ्रष्ट अधिकारियों की रहनुमाई करने में हरीश रावत सरकार अपनी पूर्ववर्ती विजय बहुगुणा सरकार से पीछे नहीं है. करोड़ों रुपये की रिजर्व फॉरेस्ट की ज़मीन का फर्जीवाड़ा करके वन माफिया के रूप में उभरे राज्य के वर्तमान डीजीपी वीरेंद्र सिंह सिद्धू का खुलासा होने के बावजूद सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की. संकेत साफ़ है कि सरकार दाग़ी अधिकारियों की सरपरस्ती कर रही है. ग़ौरतलब है कि वन, वन्यजीव एवं वन संपदा ही देवभूमि उत्तराखंड की पहचान हैं. वन संपदा पर कुदृष्टि रखने वाले चिन्हित दाग़ी अधिकारी के सिर पर सरकार के मुखिया का खुला हाथ आख़िर क्या संकेत दे रहा है? वहीं दूसरी तरफ़ वन महकमे में तैनात ईमानदार अधिकारियों को डर के साये में तिल-तिल कर जीना पड़ रहा है. उन्हें उनकी ईमानदारी का इनाम फर्जी मुकदमे के रूप में मिल रहा है.
वरिष्ठ आईपीएस सिद्धू को शायद पहले से पता था कि वह उत्तराखंड के पुलिस महानिदेशक बनेंगे. इसीलिए उन्होंने राज्य में महानिदेशक-रूल्स/मैनुअल के पद पर अपनी तैनाती के दौरान देहरादून की एक बेशक़ीमती ज़मीन का सौदा 20 नवंबर, 2012 को मात्र एक करोड़ पच्चीस लाख रुपये में अपने नाम करा लिया. जानकारों के मुताबिक, उक्त ज़मीन की वास्तविक क़ीमत क़रीब दस करोड़ रुपये है. उसी तिथि को पट्टा उनके नाम हो गया. इसके लिए उन्होंने सर्किल रेट के अनुसार 34 लाख सात हज़ार रुपये स्टैम्प ड्यूटी अदा की और विक्रेता को ज़मीन का कब्जा मिलने की शर्त के साथ 65 लाख रुपये का पोस्टडेटेड चेक भी दे दिया. यह सब खेल वन विभाग की आरक्षित संपत्ति के अंतर्गत आने वाली भूमि के लिए हुआ. इस कूट रचना का खुलासा पुलिस की एक गोपनीय रिपोर्ट से हुआ. मजेदार पहलू यह है कि सिद्धू ने जिस नत्थू लाल नामक शख्स से इस ज़मीन का सौदा किया, वह तीस वर्ष पूर्व ही स्वर्ग सिधार चुका है. लेकिन, ज़मीन पर काबिज होने की नीयत से किए गए एक ट्रायल ने पूरी साजिश का पर्दाफाश कर दिया.
सिद्धू के इशारे पर उक्त भूमि पर वन संपदा की अवैध कटान ने वन अधिकारियों के होश उड़ा दिए. यह बात प्रकाश में आई कि जिस भूखंड पर अवैध कटान हुई है, वह वन संपदा (वन विभाग की आरक्षित संपत्ति) है. इस बात की पुष्टि पुलिस की गोपनीय जांच से भी हुई. पूर्व पुलिस महानिदेशक सत्यब्रत ने 10 अप्रैल, 2013 को एक जांच रिपोर्ट राज्य के मुख्य सचिव को सौंपी थी, जिसमें जांचकर्ता वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक देहरादून एवं पुलिस
उप-महानिरीक्षक देहरादून परिक्षेत्र ने इस मामले को अत्यंत गंभीर बताया. अब तक की जांच के आधार पर अपराध पंजीकृत कराकर वैधानिक कार्यवाही करने की संस्तुति की गई है. इस रिपोर्ट ने महानिदेशक सिद्धू की कलर्ई खोल कर रख दी. इसके बावजूद वह एक तो चोरी, दूसरे सीनाजोरी वाली कहावत चरितार्थ करते रहे. एक बड़ी डील के तहत मोटी रकम खर्च करके डीजीपी का पद हासिल करने वाले सिद्धू वन विभाग के आला अफसरों पर दबाव बनाने के लिए उन्हें स्वयं दर्ज कराए गए मुकदमे में फंसा कर जेल भेजने की कार्यवाही में जुट गए. सिद्धू ने सोचा कि राज्य पुलिस का मुखिया होने के नाते वह जो चाहेंगे, कर लेंगे, लेकिन पासा उलटा पड़ गया.
20 जून, 2013 को दो दर्जन हरे वृक्षों को अवैध तरीके से ज़मीन पर कब्जा करने की नीयत से भूमि स्वामी द्वारा काटने और कटान की उठान न करने की घटना ने वन विभाग के हाथ-पैर फुला दिए. वन विभाग ने 24 जून, 2013 को भूमि स्वामी वीरेंद्र सिंह सिद्धू पुत्र जगदेव सिंह के विरुद्ध जुर्माना काट कर चीफ ज्यूडिसियल मजिस्ट्रेट देहरादून की अदालत में वाद दायर कर दिया. इस मामले ने पूरे प्रशासन को हिला कर रख दिया. इसके 13 दिनों के बाद सिद्धू ने 9 जुलाई, 2013 को थाना राजपुर में अपराध संख्या 79/13 द्वारा भारतीय दंड विधान की धारा 166, 167, 504, 420, 120 बी एवं वन अधिनियम 06 के तहत डीएफओ मसूरी धीरज पांडेय पुत्र एल एम पांडेय सहित तीन अन्य के ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज करा दिया. इस प्रकरण की जांच दारोगा निर्विकार सिंह को मिली. निर्विकार की ईमानदारी के सामने सिद्धू की दाल नहीं गली. मामले की ज़मीनी स्तर पर जांच करने वाले निर्विकार (ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठा के लिए राज्यपाल मार्ग्रेट अल्वा के हाथों सम्मानित) की मदद से क्षेत्राधिकारी मसूरी स्वतंत्र कुमार ने साहस पूर्वक सिद्धू के दाग़दार चेहरे को बेनकाब कर दिया. लेकिन, ईमानदारी का परचम बुलंद करने वाले पुलिसकर्मियों को तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है और पूरी सरकार दाग़ी सिद्धू के बचाव में खड़ी हो गई है. इस मामले का पूरा सच सबके सामने लाने वाले दरोगा निर्विकार सिंह पर अनर्गल आरोप लगाकर उन्हें निलंबित कर दिया गया है.

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