सबकी चिंता एक ही है। विपक्ष एकजुट तो हो गया, तीन सफल बैठकें भी हो गईं, लेकिन उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं? उसका सही सही एजेंडा क्या है, किस तरह से वह अपनी लड़ाई को अंजाम तक ले जाएगा? क्या वह इस गफलत में है कि उसका एकजुट होना ही सत्ता को डरा देने के लिए काफी है? क्या उसे नहीं पता कि देश के बड़े बड़े लोग, सारा कॉरपोरेट, पूंजीपति सब लगे हैं कि किसी तरह से यह सत्ता बरकरार रहे। ऐसे में विपक्ष की रणनीति से अगर देश का जनमानस संतुष्ट नहीं हुआ तो क्या वह इसे ‘भानुमति का कुनबा’ नहीं मान बैठेगा? फिलहाल तो विपक्ष की रणनीति क्या है यही जाहिर नहीं हो पा रही है। राजनीतिक चिंतक अभय कुमार दुबे जो कुछ समय पहले विपक्ष की रफ्तार और तौरतरीकों से संतुष्ट नजर आ रहे थे वे भी अब चिंतित होने लगे हैं। संतोष भारतीय भी विपक्ष के नेशनल एजेंडा पर सवाल पूछ रहे हैं ।‌ अभय दुबे की तरह हर कोई जानना चाहता है कि विपक्ष का साझा न्यूनतम कार्यक्रम क्या है? समझ नहीं आता कि विपक्ष में इतने प्रबुद्ध लोग हैं फिर भी सरासर चूक क्यों हो रही है। छोटे मोटे मनमुटाव भी बड़े होकर सामने आते हैं। इंडिया गठबंधन ने कुछ एंकर्स का बहिष्कार किया तो नीतीश कुमार ने उससे सार्वजनिक तौर पर अपनी अस्वीकृति क्यों जाहिर कर दी? क्या नीतीश में किसी तरह की कोई खुन्नस है। समझना यह होगा कि लड़ाई किससे है। जिनसे लड़ाई है वे लोकतांत्रिक लोग नहीं हैं। उनकी न संविधान में कोई आस्था है और न वे सांविधानिक तौरतरीकों को मानते हैं। सर्वोच्च कुर्सी पर बैठे किसी व्यक्ति को जब यह भान हो जाता है कि पूरा देश मेरी उंगलियों पर नाच सकता है तो वह उदात्त नहीं रह पाता। तब वह स्वयं को देश का मालिक समझने लगता है। आज यही हो रहा है। जिस व्यक्ति ने अपनी मातृ संस्था तक को नाच नचा दिया हो और बात बात पर लोकतंत्र की दुहाई देता हो तो समझ लीजिए वह क्या है, पर्दे के सामने क्या है, पर्दे के पीछे क्या है। उसने कितने रूपों और कितने प्रकार के चोलों को ओड़ रखा होगा। वह जो दिख रहा है वास्तव में वह वैसा है नहीं। ऐसे व्यक्ति से विपक्ष की लड़ाई है। ऐसा व्यक्ति यदि किसी तरह हार भी जाता है तो भी वह कुर्सी नहीं छोड़ता। आसानी से या कैसे भी। वह कुर्सी नहीं छोड़ता। इन समस्त संभावनाओं और आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए विपक्ष को अपनी रणनीति तैयार करनी है। पर फिलहाल उसकी चाल किसी को भी संतुष्ट नहीं कर पा रही । सब खुश हैं कि विपक्ष एकजुट हो गया लेकिन आगे?
गोदी मीडिया के कुछेक चैनलों के कुछ एंकर्स का इंडिया गठबंधन ने बहिष्कार किया है। उस पर तरह तरह की प्रतिक्रियाएं हैं। बहिष्कार जरूरी हो गया था। यह तो सच है। लेकिन यह बहिष्कार देर से हुआ और आधा अधूरा हुआ। समस्त गोदी मीडिया का बहुत पहले बहिष्कार किया जाता तो आज इस हद तक परेशानी नहीं होती। मूल बात यह है कि देश का वह तबका जो नासमझ है, अनपढ़ और बेहद गरीब है वह भी मोदी की बनाई राजनीति में चटकारे लेना चाहता है। उसके लिए चैनलों की ‘तू तू मैं मैं’ मनोरंजन का साधन है। इसलिए गोदी मीडिया के समस्त चैनल और कार्यक्रम उसके दिल को छूते हैं। उन्हीं से वह अपनी वोट देने की रणनीति को तय करता है। जहां पूरी शिद्दत से विपक्ष को तार तार किया जाता हो वहां उसे मजा आता है क्योंकि मोदी उसके लिए विश्व गुरु बन गए हैं। उसकी नजर में महंगाई से ज्यादा देश की सुरक्षा और देश के नायक का विश्व गुरु होना महत्वपूर्ण है। इस बात को भुना कर ही गोदी मीडिया के अलग अलग चैनल अपनी टीआरपी बढ़ा रहे हैं। मोदी भक्त अंग्रेजीदां लोगों के लिए अर्नब गोस्वामी का रिपब्लिक टीवी है। इतना सब समझते हुए भी विपक्ष के लोग, मोदी विरोधी तमाम चिंतक, पत्रकार भी अपनी भद्द पिटवाने वहां जाते रहे हैं और आज भी जा रहे हैं।
इस मामले में मैं बेहिचक ‘सत्य हिंदी’ के आशुतोष का नाम लूंगा। यह व्यक्ति इन एंकर्स को पत्रकार मानता ही नहीं फिर भी उनके यहां जाता है। बहस करता है। तू तू मैं मैं भरपूर करता है। सुधांशु त्रिवेदी और सुशांत सरीन से की गई तू तू मैं मैं तो मैंने स्वयं देखी है और भी हुई होंगी। आशुतोष पर बहुत कुछ है लिखने को । विशेषकर उसके पाखंड और घमंड पर। लेकिन यहां विषय यह नहीं है। पर कभी लिखना जरूरी है। यहां विषय यह है कि इन लोगों ने गोदी मीडिया में शरीक होकर उसकी टीआरपी क्यों बढ़ाई । क्यों नहीं समय रहते उसका बहिष्कार किया। मैंने असंख्य बार इस पर लिखा है। रवीश कुमार हमेशा गोदी मीडिया से लोगों को सतर्क करते रहे। लेकिन यह नहीं हो सकता कि एक तरफ आप गोदी मीडिया का विरोध करें और दूसरी तरफ उसकी बहसों में शरीक होकर उसके चैनलों को लोकप्रिय बनाते रहें। अभय दुबे भी लंबे समय तक इन चैनलों में जाते रहे लेकिन शायद अब नहीं जाते । एक एक चैनल की एक एक बहस मोदी विरोधियों के ताबूत की एक एक कील है। आज पानी बहुत बह गया है। अब समझ आ रही है। तो इंडिया गठबंधन ने कुछ एंकर्स का बहिष्कार किया है। आरफा खानम शेरवानी इसे विपक्ष का स्वार्थी कदम मानती हैं। मुकेश कुमार के कार्यक्रम में वे बहुत अच्छा बोलीं। लेकिन उनकी समझाइश गलत थी। उनको सीधा यह कहना चाहिए था कि यह देर से उठाया गया कदम है। उन्होंने कहा जब खुद पर आई तो यह कदम उठाया। उनकी बात को कई लोगों ने गलत तरीके से लिया कि वे इस बहिष्कार के विरोध में हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। वे कांग्रेस की आलोचना कर रही थीं। उनका मानना था कि जब यह कदम उठाना चाहिए था तब नहीं उठाया, देर कर दी । बहरहाल। आज भी वक्त है समूचा विपक्ष , सभी पत्रकार, बुद्धिजीवी, चिंतक और मौलाना आदि बिना हिचक और लागलपेट के गोदी मीडिया में जाना बंद करें। जब इनकी बहसें नीरस हो जाएंगी तो व्यक्ति स्वयं इनसे दूर हो जाएगा। सब जानते हैं कि प्रचार माध्यम किसी भी सरकार को पोषित करने का सबसे सशक्त जरिया हुआ करता है। यही रीढ़ है दरअसल। इस रीढ़ को तोड़िए तो आधी उसकी अंधभक्ति खुद ब खुद खत्म हो जाएगी। छल, कपट और छद्म से चल रही यह सरकार अपने मूल में बहुत खोखली है। लेकिन बड़े बड़े उद्योगपति और कॉरपोरेट जगत के लोगों के लिए यह सरकार इसलिए जरूरी है क्योंकि उन्हें देश और उसके हितों से कोई लेना देना नहीं है। वे सिर्फ खुद के स्वार्थों और मुनाफों के लिए जीते हैं। जिस दिन गोदी मीडिया के दर्शक को यह बात समझ आ जाएगी वही इस सरकार का आखिरी दिन होगा। लेकिन उस दिन भी यह सरकार कुर्सी छोड़ेगी या नहीं यही विपक्ष को देखना है।
मुकेश कुमार ने उदित राज से इंटरव्यू लिया। उन्होंने कांग्रेस की कई कमियां बताईं लेकिन उन्होंने मोदी की एक दिलचस्प बात बताई। उन्होंने कहा कि एक दिन मोदी जी ने मुझे एक लिफाफा दिया। उस लिफाफे में उदित राज सोशल मीडिया में कितने पीछे हैं इस ओर इशारा किया गया था। निष्कर्ष यह कि मोदी सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म को किस कदर महत्वपूर्ण मानते हैं। यही उनकी सफलता का फौरी गुण है। सब जानते हैं कि आज का वक्त सोशल मीडिया पर सफल होने का वक्त है। इस नब्ज को मोदी ने पकड़ रखा है। उदित राज को मोदी ने इसी तरफ इशारा करके चेताया था। समझिए मोदी को।
कल के लाउड इंडिया टीवी के अभय दुबे शो और ‘सिनेमा संवाद’ के कार्यक्रम को जरूर देखिए। अभय दुबे ने बहुत सी बातों का बहुत रोचक विश्लेषण किया है। इसी तरह सिनेमा संवाद में ‘क्या एक्शन से पिट रहा है रोमांस’ विषय पर सिनेमा से जुड़े दिग्गज लोगों की रोचक चर्चा सुनने को मिलेगी । स्वाद भी बदलेगा राजनीति से अलग हट कर।
फिलहाल सारी बातों का निचोड़ यह है कि विपक्ष वक्त की नजाकत समझे और सबसे पहले अपना कार्यक्रम सामने रखे । सीट शेयरिंग पर शीघ्र निर्णय ले । आपसी मनमुटाव को सार्वजनिक न होने दे और स्वयं को बराबर चर्चा में बनाए रखे । मोदी का डर और हताशा हर रोज देखने को मिल रही है और बौखलाहट भी । जरूरी है कि इसे बनाए रखा जाए।

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