क्या काॅलेज प्रोफेसरों के सार्वजनिक रूप से डांस करने के मामले में अलग-अलग मापदंड हैं? क्या यह इतना बड़ा गुनाह है? शील और अश्लील के जनता और सरकारो के पैमाने जुदा- जुदा क्यों हैं? यह समझ का फेर है या फिर अपने आग्रह सब पर लादने का संदेश है? ये तमाम सवाल इसलिए क्योंकि मध्यप्रदेश में एक प्रोफेसर को सार्वजनिक मंच पर उम्दा ठुमके लगाने पर ‘ब्रांड एम्बेसेडर’ का तमगा और मुख्यामंत्री की ताली मिली तो दूसरे मामले में बिहार में कुछ इसी मूड में डांस करने पर 12 असिस्टेंट प्रोफेसर सस्पेंड हो गए। मामले की जांच के लिए दो कमेटियां बैठीं।

कमेटी ने सभी प्रोफेसरो को अनुशासनहीनता ‘दोषी’ पाया। आरोपी प्रोफेसरों से इस ‘कृत्य’ के लिए लिखित में स्पष्टीकरण मांगा गया। अपने जवाब में शिक्षकों ने आरोपों को खारिज करते हुए विवि प्रबंधन पर आरोप लगाया कि वह ‘माॅरल पुलिसिंग’ करना चाहता है। प्रोफेसरों के अनुसार छात्रों के साथ डांस करके हमने डांस करके कोई गंभीर अपराध नहीं किया। देखने की बात यह है कि इन ‘डांसर प्रोफेसरों’ के खिलाफ विवि आगे क्या कार्रवाई करता है और जो कार्रवाई होगी, उसका समाज में क्या संदेश जाएगा?

पूरा मामला पिछले साल का और बिहार में छपरा की जेपी यूनिवर्सिटी का है। जेपी यूनिवर्सिटी की स्थापना बिहार सरकार ने 1990 में की थी। देश के पहले राष्ट्रपति स्व. डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद की जयंती पर विगत 3 दिसम्बर को स्थानीय राजेन्द्र काॅलेज में समारोह आयोजित किया गया था। इसमें विवि के कुलपति डाॅ. फारूक अली सहित अनेक‍ शिक्षाविद शामिल हुए। कार्यक्रम करीब 8 घंटे तक धूमधाम से चला। उसका समापन राष्ट्रगान के साथ हुआ।

लेकिन कार्यक्रम के औपचारिक समापन के बाद भी वहां जमे श्रोताओं की फरमाइश पर भोजपुरी गानों का अनौपचारिक कार्यक्रम शुरू हुआ। इसी दौरान मशहूर लोक नर्तकी सपना चौधरी के चर्चित गाने ‘आंख्या का यो काजल…’ पर प्राचार्य डाॅ. प्रमेन्द्र रंजन सिंह समेत सभी महिला-पुरूष सहायक प्रोफेसर झूमे। इसका वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ। जिस मंच पर ये डांस हुआ, उस पर डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद जयंती से सम्बन्धित बैनर आादि लगे हुए थे। लिहाजा इस पृष्ठभूमि में हुए डांस की सोशल मीडिया में कुछ लोगों ने खासी आलोचना की।

जिससे समारोह और आयोजको की किरकिरी हुई। राजभवन ने भी इसे गंभीरता से लिया और कुलपति को कार्रवाई का आदेश दिया। कुलपति और राजभवन ने अलग-अलग जांच कमेटियां गठित कीं। दोनों कमेटियों ने जांच में लगाए गए आरोपों व वीडियो की पुष्टि की। घटना के डेढ़ माह आरोपी प्राचार्य व सहायक प्रोफेसरों को सस्पेंड कर दिया गया। इसके पहले राजभवन ने डांस करने वाले सभी प्रोफेसरों के इंक्रीमेंट भी रोकने के निर्देश दिए। उन सभी को ‘कारण बताओं ’ नोटिस‍ थमाए गए और 15 दिन में जवाब न देने पर विभागीय कार्रवाई की चेतावनी दी गई।

‘कारण बताओं नोटिस पर अपने जवाब में ‍नाचने वाले प्रोफेसरो ने माना कि हां, हमने कार्यक्रम समापन के पश्चात हिंदी गाने पर डांस किया, लेकिन वह न तो औपचारिक कार्यक्रम का हिस्सा था और न ही कोई अश्लील डांस था। वह भी मात्र पांच मिनट। इसके लिए हमे सस्पेंड करने का कोई औचित्य नहीं है। शिक्षकों ने आरोप लगाया कि यह उन लोगों द्वारा की गई अनुचित माॅरल पुलिसिंग है, जो खुद को संस्कृति का ठेकेदार मानते हैं। काॅलेज के शिक्षक संघ ने भी शिक्षकों को इस तरह निलंबित करने पर कड़ी आपत्ति जताई है।

अब मामला एक और डांसर प्रोफेसर का। राज्य मध्यप्रदेश और शहर विदिशा। करीब तीन साल पहले इंजीनियरिंग के असिस्टेंट प्रोफेसर संजीव श्रीवास्तव उर्फ डब्बूजी ने पहले अपने साले की शादी में और बाद में काॅलेज के समारोह में फिल्म अभिनेता गोविंदा के गाने पर जबर्दस्त ठुमके लगा कर ऐसी वाहवाही बटोरी कि राज्य के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी उनकी नृत्य प्रतिभा के कायल हो गए और बाकायदा ट्वीट कर बधाई दी। शिवराज ने कहा था कि मप्र के पानी में कुछ तो खास बात है..। नतीजा यह हुआ कि प्रोफेसर संजीव श्रीवास्तव की शोहरत सात समुंदर पार तक पहुंच गई और विदिशा नगरपालिका ने तो उन्हें अपना ब्रांड एम्बेसेडर बना डाला। वो आइकन बन गए।

अब सवाल यह है कि एक मामले में डांसिंग प्रोफेसर सत्ता की निगाह में आइकन हो सकता है तो दूसरे मामले में 12 असिस्टेंट प्रोफेसर सार्वजनिक मंच पर नाचने के आरोप में सस्पेंड कर दिए जाते हैं। यह कला की समझ की कमी है या शिक्षकों के सार्वजनिाक आचरण को दोहरे पैमाने हैं? पहले राज्य में भाजपा सत्ता में हैं तो दूसरे में भाजपा सत्ता में भागीदार है। लेकिन कला के रसास्वादन और अनुशासन के पैमाने अलग-अलग दिखते हैं। मजेदार बात यह है कि जिस गाने पर नाचने के आरोप में प्रोफेसर सस्पेंड हुए, वह भोजपुरी भाषा में है ही नहीं।

वह गाना सपना चौधरी के गाने ‘आंख्या का यो काजल..’ हरियाणवी बोली में है। इसका एक अर्थ यह हुआ कि हरियाणवी बोली के गाने भोजपुरी पर भी सिर चढ़कर बोलते हैं। दूसरा यह कि ( (जिसे लोक नृत्य कहना भी सही नहीं होगा) ऐसे लोकरंजक डांस के फैन्स की भी कमी नहीं है। अगर सपना चौधरी के डांस की ही बात की जाए तो उसमें कातिल अदाओं और दिलकश ठुमकों के अलावा कुछ नहीं होता। जो गाने होते हैं, वो भी चालू किस्म के और कई बार फूहड़ता को स्पर्श करने वाले होते हैं। फिर भी उसके प्रशंसकों की तादाद करोड़ो में है। यानी कुछ तो बात है उसके डांस में। ऐसे नाच और गाने हमारी शास्त्रीय कला का हिस्सा भले न हो लेकिन वह लोकरंजक कला की श्रेणी में जरूर आता है और उसकी लोकप्रियता को नकारना सच से आंखें चुराने जैसा है।

बहरहाल, शिक्षकों पर लगे आरोपों में केवल एक बात जायज हो सकती है कि महापुरूष डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद पर केन्द्रित कार्यक्रम के बाद इस तरह के लोकरंजक डांस करने की कोई आवश्यकता न थी। लेकिन यह कार्यक्रम भी वहां मौजूद छात्रों व अन्य लोगों की फरमाइश पर हुआ, जो (संभवत:) लंबे और उपदेशपरक भाषणों आदि से ऊब चुके थे। ऐसे में ‘तनाव मुक्ति’ के लिए ही सही काॅलेज प्रिंसिपल सहित कई प्रोफेसर सपना चौधरी के गाने पर छात्रों के ठुमके लगाने लगे।
हालांकि आरोपी प्रोफेसर चाहते तो इस डांस वगैरह से बच सकते थे।

लेकिन उन्होंने मंच पर कुछ ठुमके लगा भी लिए तो कोई महापाप नहीं किया। वैसे भी हम भारतीय शादी की बारात में खुली सड़कों को मनमाफिक जाम कर जिस ढंग, बेफिकरी और मस्ती के साथ डांस करते हैं, उसको ‘एंज्वाय’ करते हैं, उसके आगे प्रोफेसरो का यह डांस तो कुछ भी नहीं है। जब ऐसे ‘डांसों’ को लोकस्वीकृति है तो फिर उसे अश्लील मानना तो कहीं से सही नहीं लगता। अगर यह शिष्टता का मापदंड है तो दोहरा मापदंड है। अगर राजभवन को इस बात पर आपत्ति थी कि कि वो प्रोफेसर सपना चौधरी के डांस पर क्यों नाचे तो वही सपना चौधरी आजकल भाजपा में हैं।

अगर ऐतराज शिक्षा के मंदिर में इस प्रकार का डांस करने पर है तो मध्यप्रदेश में स्टार डांसिंग प्रोफेसर संजीव श्रीवास्तव ने अपने काॅलेज में गोविंदा के जिस गाने पर डांस किया था, उसके बोल थे ‘ मय से, मीना से न साकी से, दिल बहलता है मेरा आपके आ जाने से।’ यानी जब डांस ‘मय और मीना’ को लेकर हुआ किसी को संस्कृति खतरे में नहीं दिखी, लेकिन ‘आंख्या का काजल..’ पर ठुमके लगाना इतना भारी पड़ा कि असिस्टेंट प्रोफेसरों की नौकरी पर बन आई। बेशक शिक्षा संस्थाओं में अनुशासन होना चाहिए, लेकिन प्रशासन को भी ‘मय’ की मस्ती और ‘आंखों के काजल’ की नजाकत का फर्क भी समझना चाहिए। इसे नैतिकता के आईने में देखना दुराग्रह ज्यादा है। विवि प्रशासन चाहता तो मामला ‘चेतावनी’ देकर भी खत्म हो सकता था। क्या नहीं..!

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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