लोकसभा चुनाव के बाद दिल्ली विधानसभा की रिक्त हुईं तीन सीटों के उपचुनाव की घोषणा कर दी गई है. 23 नवंबर को चुनाव होना है और क़रीब एक महीने बाद झारखंड एवं कश्मीर विधानसभा के चुनाव परिणामों के साथ ही इन तीनों सीटों के परिणाम भी आएंगे. दिल्ली की तुगलकाबाद, महरौली एवं कृष्णा नगर सीट पर उपचुनाव होना है. मई में खाली हुई इन सीटों पर छह महीने के भीतर चुनाव कराना ज़रूरी था. इसीलिए इन तीनों सीटों के उपचुनाव के लिए अधिसूचना जारी कर दी गई. दिल्ली की ये तीनों सीटें भाजपा के पास थीं. इन तीन सीटों के विधायक भाजपा के टिकट पर लोकसभा पहुंच चुके हैं. इसलिए कोई विशेष राजनीतिक माथापच्ची करते हुए यह मान भी लें कि ये तीनों सीटें भाजपा के खाते में जा सकती हैं, तो इसमें कुछ विशेष ग़लत नहीं होगा. लेकिन असली सवाल इसके बाद है. क्या ये तीनों सीटें जीत लेने के बाद भी भाजपा दिल्ली में अपने दम पर सरकार बना पाएगी? क्या उसके पास इतनी सीटें (बहुमत के लिए ज़रूरी 36) आ जाएंगी? ग़ैर राजनीतिक रूप से ऐसा होता नहीं दिखता, लेकिन राजनीति के अपने सिद्धांत होते हैं, अपने नियम होते हैं और अपनी सुविधा भी होती है. आम आदमी पार्टी जब 28 सीटों के साथ और कांग्रेस के सहारे दिल्ली में सरकार बना सकती है, तो फिर 32 सीटों के साथ भाजपा (अगर उपचुनाव की तीन सीटें जीत जाती है) सरकार बनाने के बारे में सोच तो सकती ही है.
लेकिन यह सब लिखना जितना आसान है, धरातल पर इस सबका घट पाना उतना ही मुश्किल है. एक तरफ़ मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुका है. सुप्रीम कोर्ट बार-बार दिल्ली के उप-राज्यपाल से यह पूछ रहा है कि आख़िर दिल्ली में कब तक राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा? भाजपा सरकार कैसे बनाएगी, आदि. बहरहाल, विधानसभा चुनाव पर अभी तक कोई निश्चित ़फैसला नहीं हो पाया है. वैसे राष्ट्रपति ने अपना सुझाव एलजी को भेज दिया है और उसके मुताबिक यदि एलजी चाहें, तो वह बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता दे सकते हैं. उधर तीन सीटों पर उपचुनाव की घोषणा के बाद यह लगभग साफ़ हो गया है कि फिलहाल दिल्ली में चुनाव कराने की स्थिति बनती नहीं दिख रही है. मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, आख़िरी ़फैसला क्या होता है, यह देखना बाकी है.
सवाल यह है कि जिस भाजपा ने 32 सीटें मिलने के बाद भी दिसंबर 2013 में दिल्ली में सरकार बनाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि जनता ने उसे विपक्ष में बैठने का आदेश दिया है, क्या अब वही भाजपा इन सारे तिकड़मों के सहारे सरकार बनाना पसंद करेगी? हाल में हरियाणा एवं महाराष्ट्र में शानदार जीत दर्ज करने वाली भाजपा क्या स़िर्फ सत्ता के लालच में अपने ही बनाए उच्च मानदंडों को तोड़ देगी? हालांकि, यही सवाल आम आदमी पार्टी के लिए भी है, जिसने कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़कर फिर कांग्रेस के समर्थन से ही सरकार बनाई थी.
लेकिन, इस बीच अगर दिल्ली विधानसभा के चुनाव नहीं होते हैं, तो क्या स्थिति होगी? क्या भाजपा सरकार बनाएगी और अगर बनाएगी, तो कैसे बनाएगी? अभी उसके पास 29 सीटें हैं और मौजूदा स्थिति के हिसाब से (तीन सीटें हटा दें, जिनके परिणाम दिसंबर में आएंगे) भाजपा को बहुमत के लिए 67 में से 34 सीटें चाहिए. कांग्रेस के पास 8 और आम आदमी पार्टी के पास 27 सीटें हैं. एक निर्दलीय, एक जद (यू) और आप के एक बागी विधायक का समर्थन भी अगर भाजपा को मिल जाता है, तो उसके पास कुल संख्या होती है 32. यानी अभी भी बहुमत से 2 कम. अब सवाल है कि ऐसे में भाजपा के पास सरकार बनाने के क्या रास्ते बचते हैं? आइए, ऐसे ही कुछ विकल्पों पर ग़ौर करें. पहला, आम आदमी पार्टी या कांग्रेस के विधायक तोड़ लिए जाएं, दूसरा, कांग्रेस या आम आदमी पार्टी के विधायक सीक्रेट बैलेट वोटिंग में क्रास वोटिंग कर दें और तीसरा यह कि अल्पमत की सरकार बन जाए, कोई एक दल मतदान का बहिष्कार कर दे. अब होने को इनमें से कुछ भी हो सकता है या फिर कुछ भी नहीं हो सकता है.
लेकिन सवाल यह है कि जिस भाजपा ने 32 सीटें मिलने के बाद भी दिसंबर 2013 में दिल्ली में सरकार बनाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि जनता ने उसे विपक्ष में बैठने का आदेश दिया है, क्या अब वही भाजपा इन सारे तिकड़मों के सहारे सरकार बनाना पसंद करेगी? हाल में हरियाणा एवं महाराष्ट्र में शानदार जीत दर्ज करने वाली भाजपा क्या स़िर्फ सत्ता के लालच में अपने ही बनाए उच्च मानदंडों को तोड़ देगी? हालांकि, यही सवाल आम आदमी पार्टी के लिए भी है, जिसने कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़कर फिर कांग्रेस के समर्थन से ही सरकार बनाई थी. लेकिन, लोकसभा से लेकर हाल के विधानसभा चुनावों तक शानदार जीत हासिल करती आ रही भाजपा मेरी कमीज तुम्हारी कमीज से कम गंदी वाली राजनीति करेगी, इसकी उम्मीद कम है. वैसे, अभी सुप्रीम कोर्ट का अंतिम ़फैसला भी इस मुद्दे पर आना बाकी है. इधर भाजपा के शीर्ष नेताओं, जिनमें वैंकैया नायडू एवं राजनाथ सिंह आदि शामिल हैं, ने भी यह साफ़ कर दिया है कि हम जोड़-तोड़ करके सरकार नहीं बनाएंगे. बहरहाल, एक स्वस्थ लोकतंत्र और दिल्ली के लिए अब बेहतर विकल्प स़िर्फ और स़िर्फ चुनाव है. एक बार चुनाव हो जाए, तो फिर यह भी साबित हो जाएगा कि किसके दावों में कितना दम है और अगर भाजपा को बहुमत मिल जाता है, तो उसे कम से कम जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ेगा. कुल मिलाकर चुनाव ही हमारे लोकतंत्र, दिल्ली, दिल्ली की जनता एवं भाजपा के लिए आख़िरी और बेहतर विकल्प है.