छत्तीसगढ़ के नगरीय निकाय के नतीजे सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ गए. क्यों गए, इस पर मंथन शुरू हो चुका है. लेकिन जिन हालात में यह नतीजे ख़िलाफ गए उसने चौंकाने से ज़्यादा पार्टी को चिंतित कर दिया है. जब देशभर में कांग्रेसमुक्त देश करने के लिए मोदी का अश्वमेध का घोड़ा पूरे देश में दौड़ रहा है तब भाजपा के सबसे मजबूत गढ़ बन चुके छत्तीसगढ़ में कैसे रुक गया? वह भी तब जब तीन-तीन विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा को एकतरफा जीत दिलाने वाले रमन सिंह ने प्रदेश में हर जगह खुद नगरीय निकायों को कांग्रेस मुक्त बनाने के नारे के साथ वोट मांगे थे. कांग्रेस के सामने एक समस्या यह भी थी कि उनके सबसे बड़े जनाधार वाले नेता अजीत जोगी ने बिलासपुर के टिकट विवाद के बाद खुद को प्रचार से अलग कर लिया था. जोगी के बाद कांग्रेस में कोई नेता नहीं बचा था, जिसकी पकड़ पूरे प्रदेश में हो.
चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले कांग्रेस खेमे के तमाम नेता और भाजपा के नेता यही मान रहे थे कि अपने कुशल चुनावी मैनेजमेंट और रमन सिंह व नरेंद्र मोदी की इमेज के सहारे छत्तीसगढ़ में भाजपा ज्यादातर सीटों पर काबिज होगी. लेकिन 4 जनवरी को जब परिणाम आए तो कहानी पूरी तरह से पलट गई. पिछली बार की तुलना में भाजपा के हाथ से 2 निगम निकल गए. नगर पालिका में कांग्रेस भाजपा से आगे और नगर पंचायत में काफी आगे निकल गई. दो निगमों पर निर्दलीयों की जीत हुई, जिसमें से एक कांग्रेस से जुड़ा है.
नगरीय निकायों में खराब प्रदर्शन ने संघ से लेकर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व दोनों को परेशानी में डाल दिया है. हार के कारणों की समीक्षा की जा रही है. कोई भितरघात को इसकी वजह बता रहा है तो कोई प्रत्याशी चयन को इसकी वजह मान रहा है लेकिन इस हार को रमन सिंह सरकार के ख़िलाफ जनाधार माना जा रहा है. तीसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद भाजपा की राज्य सरकार ने एक के बाद एक कई फैसले लिए, जिनका खूब विरोध हो रहा था. पहले लाखों लोगों के राशनकार्ड रद्द कर दिए. उसके बाद धान की खरीद की सीमा घटा दी गई. इस फैसले के खिलाफ पूरे प्रदेश में आंदोलन हुआ. रही सही कसर बिलासपुर में नसबंदी कांड और उस पर स्वास्थ्यमंत्री अमर अग्रवाल और मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के बयानों ने पूरी कर दी.
नसबंदी कांड और सुकमा नक्सली हमले की हताशा से सरकार उबरी भी नहीं थी कि नगरीय निकाय चुनाव आ गए. हालात को भांपते हुए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह खुद रायपुर आए और निकाय चुनाव पर पार्टी की रणनीति तैयार की. उन्होंने कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संदेश दे दिया था कि आलाकमान निकाय चुनाव में हार को बर्दाश्त नहीं करेगी.
नगरीय निकायों में खराब प्रदर्शन ने संघ से लेकर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व दोनों को परेशानी में डाल दिया है. हार के कारणों की समीक्षा की जा रही है. कोई भितरघात को इसकी वजह बता रहा है तो कोई प्रत्याशी चयन को इसकी वजह मान रहा है लेकिन इस हार को रमन सिंह सरकार के ख़िलाफ जनाधार माना जा रहा है. तीसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद भाजपा की राज्य सरकार ने एक के बाद एक कई फैसले लिए, जिनका खूब विरोध हो रहा था.
तमाम बातों के बाद भी जोगी के चुनाव से हटने और अपने बेहतर मैनेजमेंट कौशल के बूते भाजपा को उम्मीद थी कि वह चुनाव मोदी और रमन के नाम के सहारे निकाल लेगी. ऐसा मानने की एक बड़ी वजह थी कि राशनकार्ड पर विरोध के बाद सरकार ने राशन चालू कर दिया था. जबकि नसबंदी कांड और धान के मसलों का संबंधगांवों से था, लिहाज़ा पार्टी यह मानकर चल रही थी कि इसका असर नगरीय क्षेत्रों में नहीं होगा. भाजपा को मोदी के तिलस्म का भी सहारा था. चुनाव से पहले झारखंड के नतीजे आने थे. पार्टी को लगा कि नतीजे पक्ष में आएंगे तो माहौल बन जाएगा और उसी माहौल में पार्टी जीत हासिल कर लेगी.
इन सब हालात के बीच छत्तीसग़ढ में भाजपा का चेहरा बन चुके रमन सिंह ने दस दिनों का अपना तूफानी दौरा किया. उन्होंने मोदी के कांग्रेस मुक्त देश की तर्ज पर कांग्रेस मुक्त नगरीय निकाय का नारा दिया. दूसरी तरफ प्रचार में कांग्रेस पूरी तरह से स्टारविहीन दिखाई दी. प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल ने राज्य के मध्य और दक्षिणी इलाके में प्रचार किया जबकि नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहेदव ने उत्तरी हिस्सों में कमान संभाल रखी थी. परिणाम आने के बाद सत्ता और राजनीति के नए समीकरण बनते और पुराने टूटते दिखाई दे रहे हैं. परिणामों के बाद नेताओं के बयानों से इसके संकेत भी मिलने लगे. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल ने रमन सिंह से इस्तीफा मांगकर उन पर दबाव बनाने की कोशिश की तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने ज्यादा संख्या में भाजपा पार्षदों के जीतने का दावा करके हार पर रफू लगाने की कोशिश की.
भाजपा में हार पर मंथन का दौर चल रहा है. रमन सिंह ने खुद ही कमान अपने हाथ में लेकर, पार्षद या मेयर पर नहीं, अपने नाम पर वोट देने की अपील की थी. ज़ाहिर है यह हार उनकी लोकप्रियता कम होने का संकेत देती है. जब से मनोहर पर्रिकर को गोवा से दिल्ली बुलाया गया है तब से ये चर्चा जोरों पर है कि अगला नंबर रमन सिंह का भी हो सकता है. हालांकि रमन सिंह इससे इनकार करते रहे हैं. लेकिन नसबंदी कांड और सुकमा नक्सल हमले के बाद राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि काफी फीकी पड़ी है. उनके विरोधी कैंप के माने जाने वाले नेता रमेश बैस, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेम प्रकाश पांडेय की सक्रियता दिल्ली में काफी ब़ढी है. इससे भी इस बात को हवा मिलती रही है दिल्ली में रमन की पहुंच कमजोर हो रही है. अब नगरीय निकाय चुनाव की हार के बाद उनके विरोधियों की मुहिम तेज हो जाएगी.
दूसरी तरफ कांग्रेस की कामयाबी से दिल्ली भी गदगद है. लगातार हार से हताश आलाकमान को आशा की एक किरण छत्तीसग़ढ की कामयाबी से मिली है. मध्यप्रदेश की इकाई को छत्तीसग़ढ से सबक लेने की सलाह दी जा रही है. इस कामयाबी से प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव गदगद हैं. जब अजीत जोगी के सबसे बड़े विरोधी भूपेश बघेल को विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रदेश की कमान दी गई थी तो यह चर्चा का विषय रहा कि क्या आलाकमान अब जोगी को हाशिए पर डालना चाहता है. क्योंकि विधानसभा चुनाव से पहले दोनों नेताओं के बीच घमासान हो चुका था. जोगी भूपेश बघेल के क्षेत्र में जाकर उनके खिलाफ प्रचार कर चुके थे तो भूपेश ने जोगी की शिकायत आलाकमान से कर दी थी.
अध्यक्ष बनते ही भूपेश जोगी की दमदारी को कमजोर करने में लग गए. एक एक करके उन्होंने कई ऐसे फैसले लिये जिससे ये संकेत मिला कि वे जोछो’ मुहिम पर लगे हैं. सबसे पहले उन्होंने विधानसभा में विपक्ष के नेता टीएस सिंहदेव और प्रदेश में दूसरे सबसे कद्दावर कांग्रेसी चरणदास महंत का समर्थन लिया फिर जोगी के समर्थकों में सेंधमारी शुरु की. बदरुद्दीन कुरैशी, ताम्रध्वज साहू जैसे कम जोगी कट्टर नेताओं को उन्होंने अपने खेमे में शामिल कर लिया जबकि जोगी के कट्टर समर्थकों को एक एक करके किनारे लगाते गए. जोगी की ताकत रहे एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के रही है. भूपेश बघेल ने विकास उपाध्याय और देवेंद्र यादव के जरिए दोनों संगठनों पर अपनी पकड़ मज़बूत की. एनएसयूआई चुनाव में जोगी खेमे को पहली बार पटखनी मिली. जोगी के खिलाफ अब से पहले ऐसी गुस्ताखी करने का साहस कोई कांग्रेसी नहीं दिखा पाया था. लिहाज़ा भूपेश और टीएस ने जमीन पर काफी काम किया. सड़क से सदन तक राज्य सरकार को घेरते हुए कई आंदोलन खड़े किए. जोगी के गृह जिले में नसबंदी कांड पर भूपेश बघेल रात में ही पहुंच कर राज्य सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दिया. लेकिन जोगी भी खामोश नहीं बैठे है. जोगी को जानने वाले कहते हैं कि सिर्फ एक चुनाव के परिणाम जोगी की राजनीति में दखल को कमतर नहीं कर सकते. जोगी ने इसके संकेत भी दे दिए. परिणाम आने के फौरन बाद आया उनका बयान यही बताता है. उन्होंने कहा कि अगर वे होते तो जीत और बड़ी होती.