भोपाल। कहने को तो मप्र के नाम कई बड़े और दिग्गज मुस्लिम नेताओं के नाम जुड़े हैं। लेकिन प्रदेश की राजधानी भोपाल से वाबस्ता इन अधिकांश नेताओं ने खुद को सीमित रखते हुए अपने शहर से बाहर न कदम रखा और न ही कोई पहचान स्थापित की। कागजों के पन्नों पर नजर आते इन मुस्लिम नेताओं के नाम जरूर पहचाने जाते हैं, लेकिन प्रदेश, समाज और मुस्लिम समुदाय के लिए लिए इनके योगदान को गिना जाए तो वह शून्य ही नजर आता है।
मप्र राज्य के वजूद में आने से अब तक प्रदेश में मुस्लिम लीडरशिप का परचम कई हाथों आया। प्रदेश से लेकर केंद्र तक इन्हें प्रतिनिधित्व भी मिला है। इनमें खान शाकिर अली खान, रसूल अहमद सिद्दीकी, गुफरान ए आजम, असलम शेर खान से लेकर आरिफ अकील तक के नाम शामिल हैं। लेकिन कमोबेश इनमें से ज्यादातर नेताओं ने अपना दायरा भोपाल या अपने चुनाव क्षेत्र तक ही सीमित रखा और खुद को प्रदेश के नेता के तौर पर स्थापित और साबित नहीं कर पाए।

फिर उभरा एक चेहरा, सूबे पर छाने लगा
कछुआ चाल से जीत की तहरीर लिख देने की के कहावत को चरितार्थ करता एक नाम आरिफ मसूद का उभर कर आया और धीरे धीरे उसने प्रदेश के सियासी आसमान पर अपना परचम फैला दिया। आज के हालात में प्रदेश की मुस्लिम सियासत में अगर कोई नाम सामने है, तो वह सिर्फ आरिफ मसूद का ही बाकी रह गया है। बाकी मुस्लिम नेताओं में कुछ के बीमारी की वजह से और कुछ के दुनिया से रुखसत हो जाने के कारण सुर्खियों से बाहर होते जा रहे हैं।

प्रदेशभर की एक ही आवाज
इंदौर, धार, उज्जैन या सागर, सीधी के अलावा कहीं भी मुस्लिम समुदाय की मुश्किलों में अब एक आवाज विधायक आरिफ मसूद की ही सुनाई देती है। मोब लिंचिंग हो, किसी नेता का विवादित बयान हो या सीए एनआरसी का मामला हो, मुस्लिम समुदाय की कोई परेशानी हो या उनके हक के लिए उठाई जाने वाली आवाज सबसे पहले मसूद का झंडा ही लहराता नजर आता है। यही वजह है कि अब मसूद को प्रदेश के बड़े मुस्लिम नेताओं में शुमार किया जाने लगा है।

एक जिद ने बना दिया विधायक
छात्र राजनीति के दौर से तत्कालीन मंत्री के साथ रहने और उनके नक्श ए कदम पर चलने की ख्वाहिश ने मसूद को विधानसभा की दहलीज तक पहुंचा दिया है। मसूद खुद कहते हैं कि उनका एक ही लक्ष्य रहा कि उन्हें विधायक बनना है। इसके लिए वे सतत प्रयास करते रहे। जहां से आगे बढ़ने की उम्मीद लगी, उस रास्ते को उन्होंने इख्तियार किया। नेताओं और समुदाय से तिरस्कार और बहिष्कार भी मिला। शुरुआती दौर में असफलता भी हाथ लगी। लेकिन इससे हतोत्साहित होने की बजाय उन्होंने इसे सबक माना और कदम पीछे नहीं किए। मसूद बताते हैं मुस्लिम समुदाय ने उन्हें सिर आंखों पर रखा ही है लेकिन मेहनत और ईमानदार कोशिश का नतीजा यह आया कि उन्हें उस क्षेत्र से जीत हासिल हुई, जहां दीगर समाज की बस्ती ज्यादा है।

हक के लिए अपनी पार्टी में भी मुखर
विधायक मसूद के ऊपर चस्पा हो चुका मुस्लिम नेता का तमगा कई बार उन्हें अपनी ही पार्टी में भी अलग थलग कर देता है। पार्टी के केंद्र बिंदु दिग्विजय सिंह से लेकर पार्टी अध्यक्ष कमलनाथ से भी वे कई बातों पर विरोधाभास करते दिखाई दिए हैं। पहले चुनाव में शिकस्त हाथ आने के बाद अगला टिकट उनकी दिल्ली दोस्ती और अपने रसूख से ही नसीब हो पाया था।

ओवैसी के साथ जाने की चर्चाएं भी उठने लगी थी
ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड की कार्यकारिणी में शामिल होने के नाते उनकी मुलाकात एमआईएम चीफ असद उद्दीन ओवैसी से भी होती रहीं हैं। मसूद की मुस्लिम नेता वाली छवि को सामने रखते हुए कई बार ये कयास लगाए गए कि वे कांग्रेस का दामन छोड़कर ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन की शरण में चले जाएंगे। लेकिन ताजा हालात में मसूद कई मामलों पर ओवैसी की बातों और बयानों के खिलाफ दिखाई देने लगे हैं।

मुस्लिम सियासत की खींचतान
प्रदेश या देश में मुस्लिम सियासत न पनप पाने की एक बड़ी वजह समुदाय के लोगों की आपस में टांग खिंचाई ज्यादा कुसुरवार कही जा सकती है। जो प्रभाव में आया, उसने पीछे अपनी सेकंड लाइन खड़ी करने की बजाए हर उस रास्ते को बंद करने की कोशिश की है, जिससे चलकर कोई दूसरा आगे आ सके या साथ जुड़कर हिम्मत दोगुनी कर सके।

भाजपा में भी सन्नाटा
केंद्रीय नेतृत्व में प्रदेश से मरहूम आरिफ बेग, नजमा हेपतुल्लाह के नाम शामिल रहे हैं। अब राज्यसभा में बराए नाम एमजे अकबर का नाम शामिल है लेकिन उनका प्रदेश से कोई वास्ता नहीं है। प्रदेश में भाजपा की मुस्लिम मौजूदगी को जिंदा रखने कई नाम जोड़े गए, लेकिन मौका मिलने के बावजूद ये मुस्लिम सियासत में अपना वजूद कायम नहीं कर पाए। इन नामों में मिर्जा जाफर बेग, मरहूम अनवर मोहम्मद खान, सलीम कुरैशी, एसके मुद्दीन, न्याज मोहम्मद खान, डॉ सनव्वर पटेल, हिदायत उल्लाह खान, इनायत हुसैन कुरैशी, शौकत मोहम्मद खान, आलमगीर गौरी, आगा अब्दुल कय्यूम खान, जावेद बेग, रफत वारसी जैसे कई नाम शामिल हैं। पद, पॉवर और सरकार की मौजूदगी ने भी इन लोगों की इतनी सलाहियत नहीं दी कि ये अपने समुदाय में खुद के लिए कोई जगह बना सके।

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