भारतीय राजनीति में युवा तुर्क के रूप में विख्यात रहे पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की पहचान एक ऐसे समाजवादी नेता की थी, जिसके माध्यम से न केवल राम मनोहर लोहिया के विचार आगे आए, बल्कि जिसने देश की राजनीति में एक अलग मुकाम बनाया. प्रधानमंत्री के रूप में अपने छोटे-से कार्यकाल में उन्होंने इस बात का बोध कराया कि निहित स्वार्थों को त्याग कर कैसे पूरे राष्ट्र और समाज के लिए निर्णय लिए जाते हैं. चंद्रशेखर निर्विवाद रूप से राष्ट्र की धरोहर थे और रहेंगे. राजनीति का अर्थ उनके लिए राज करने की नीति नहीं था, बल्कि राजनीति उनके लिए जनसेवा और अन्याय विहीन भारत की स्थापना का माध्यम थी. वह एक दृढ़ नेता और नेक इंसान की तरह घृणा और अन्याय को मिटा देने का प्रयास करते रहे. वह जीवनपर्यंत जातिवाद, सांप्रदायिकता, ग़रीबी और बेबसी से जूझ रहे देश में नवीन अमृत संचार का प्रयास करते रहे. उन्होंने कभी अपने बारे में नहीं सोचा. उन्होंने सदैव समाज के बारे में सोचा. घनघोर संकट के बीच अपनी मान्यताओं के लिए अकेले खड़े होने का गुण उन्हें समकालीन नेताओं से अलग करता है.
उनके जीवन पर बहुत कम किताबें लिखी गई हैं, लेकिन हाल में श्री चंद्रशेखर जी स्मारक ट्रस्ट, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित पुस्तक-राष्ट्रपुरुष चंद्रशेखर में उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर बड़ी बेबाकी से प्रकाश डालने की कोशिश की गई है. जिस तरह पांच तत्वों से शरीर बना है, उसी तरह इस किताब को भी पांच खंडों में विभाजित किया है, जिससे चंद्रशेखर का व्यक्तित्व परिभाषित होता है. पहले खंड में उनके भाषण, दूसरे में उनसे जुड़ी यादें और विचार हैं, तीसरे में उनकी कहानी उन्हीं की ज़ुबानी, चौथे में उनकी कहानी-जिनकी यादों को चंद्रशेखर कभी अपनी ज़िंदगी से बाहर नहीं निकाल पाए तथा पांचवें खंड में वह राष्ट्रपुरुष क्यों हैं, इसे रेखांकित किया गया है. किताब की भूमिका में दिनेश दीनू ने लिखा है कि चंद्रशेखर जी के पास जो जाता था, उसका स्वागत गुड़ और पानी से होता था. भारतीय जन संस्कृति की यह परंपरा उनकी चौखट पर हमेशा रही. इस पुस्तक में भी उसी गुड़ और पानी की मिठास है. यह किताब बताती है कि किस तरह उत्तर प्रदेेश के बलिया ज़िले के एक छोटे-से गांव इब्राहिम पट्टी से निकल कर एक शख्स देश का प्रधानमंत्री बन गया. बचपन के सामाजिक परिवेश का उनके व्यक्तित्व और विचारों पर कैसा प्रभाव पड़ा, इस पर किताब में विस्तार से चर्चा है. किताब में बताया गया है कि वह सामाजिक और राजनीतिक परिवेश के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करते थे. जैसे कि एक बार वह विवाह समारोह में गए. वहां वह ज़मीन पर बिछे गद्दों पर बैठ गए और उन्होंने उपस्थित महिलाओं से गाली (संस्कार गीत) सुनाने की फरमाइश की. उस वक्त वह राजनीतिज्ञ की जगह एक घरेलू चंद्रशेखर नज़र आ रहे थे. एक पूर्व प्रधानमंत्री, एक महान सांसद, एक क्रांति का प्रतीक अपने पूरे आवरण को किस घर के बाहर किस तरह छोड़ आया था. आज के नेताओं से इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती.
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को उन्होंने अपना आर्थिक सलाहकार भले ही बनाया था, लेकिन पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल में बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की चंद्रशेखर जी ने सदैव आलोचना की. पूरी ज़िंदगी उन्होंने समाजवादी सिद्धांतों को अपनी राजनीति का आधार बनाए रखा. वह कांग्रेस के बंटवारे के समय इन्हीं मूल्यों के तहत इंदिरा गांधी के साथ गए थे. उनका मानना था कि भारत जैसे देश में, जहां की दो-तिहाई आबादी खेती पर निर्भर है, वहां उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों की ज़रूरत नहीं है. वैश्वीकरण के भारतीय जीवन पर होने वाले असर को उन्होंने पहचान लिया था और जीवनपर्यंत वह इसका विरोध करते रहे. चंद्रशेखर का अर्थशास्त्र प्रचलित सैद्धांतिक खांचे से नहीं, बल्कि देश की हक़ीक़त से संचालित होता था. बैंकों के राष्ट्रीयकरण का श्रेय भले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दिया जाता है, मगर हक़ीक़त में वह चंद्रशेखर ही थे, जिन्होंने संसद में इस बिल को मजबूती से लाने में भूमिका अदा की थी. वह तब कांग्रेस के महासचिव थे.
प्रो. एसके गोयल ने यह बिल प्राइवेट मेंबर बिल के तौर पर तैयार किया था, मगर लंबी बातचीत के बाद चंद्रशेखर ने इस पर एक मजबूत प्रस्तुति बनाई और इसे पार्टी की तऱफ से पेश करने का निर्णय लिया. देश के लिए वैकल्पिक आर्थिक नीति लाने का श्रेय भी चंद्रशेखर को जाता है, जिसके आधार पर अपने पहले कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने समाजवादी नीतियां बनाईं.
सामाजिक रूप से वह कितने सचेत थे, इस किताब में कई उदाहरण हैं. इंदिरा गांधी द्वारा जयप्रकाश नारायण को जेल में डालने की सार्वजनिक रूप से आलोचना करके वह रातोंरात लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के प्रतीक बन गए थे. इसके बाद इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान उन्हें जेल में डाल दिया था, लेकिन जनता पार्टी के गठन के समय वह अध्यक्ष पद के सबसे निर्विवाद नाम थे. उन्होंने इंदिरा गांधी के ऑपरेशन ब्लू स्टार का विरोध किया था, वह स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के सख्त खिला़फ थे. उस वक्त सारा विपक्ष इंदिरा जी के क़दम की सराहना कर रहा था, लेकिन चंद्रशेखर ने उसका विरोध किया था. उन पर इसे लेकर राजनीतिक हमले किए गए, लेकिन वह अपने मत से टस से मस नहीं हुए. इसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और देश में सिख विरोधी दंगे भड़क गए. बावजूद इसके वह राजनीतिक ऩफा-नुक़सान का आकलन किए बगैर अपने सहयोगियों के साथ दंगाग्रस्त इलाकों में घूमते रहे.
चंद्रशेखर भारत की विरासत को समझते थे और मानते थे कि इस साझी विरासत को संभालना देश के हर व्यक्ति का दायित्व है. वह सांप्रदायिकता के खिला़फ थे. उन्होंने बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद संसद में कहा, यह जो गिराई गई है, वह महज मस्जिद नहीं थी, यह भारत की गौरवशाली परंपरा थी, भारत का इतिहास था, भारत का सह-अस्तित्व था और भारत की मानवीय परंपरा थी, जिसे हवाओं में उड़ा दिया गया. भारत के करोड़ों नागरिकों का हृदय टूटा है, जिसे जोड़ा नहीं जा सकेगा.
बिना झुके, बिना समझौते के खरी-खरी सीधी बात करने वाला एक साधारण इंसान देश की राजनीति के लिए कैसे अपरिहार्य हो जाता है, यह किताब उसे विस्तृत तरीके से बताती है. चंद्रशेखर वास्तव में राष्ट्रपुरुष थे. यदि वह लंबे समय तक देश के प्रधानमंत्री रहते, तो आज देश की दशा-दिशा कुछ और होती. संसद में जब चंद्रशेखर बोलते थे, तो पूरा सदन उनकी बात शांत होकर सुनता था. उनके बोलने के दौरान शायद ही कभी संसद में टोका-टाकी हुई हो. उनके जैसे नेता की कमी देश को हमेशा खलेगी.