Israr-Ansari-on-power-loomरहमान मियां से दशाश्‍वमेध घाट पर मुलाकात हुई थी. वही दशाश्‍वमेध घाट, जहां की गंगा आरती देखने के लिए देश और परदेस से पर्यटक इकट्ठा होते हैं. रहमान मियां एक बुनकर भी हैं. मुझे अच्छी तरह याद है कि दिल रखने के लिए हमने रहमान मियां से 10-10 रुपये के दो खिलौने खरीदे थे. रहमान मियां का चेहरा, उनका अंदाज़ और आवाज़ आज भी मेरा पीछा कर रहा है. मेरे लिए बनारसी बुनकरों से मिलना और उनके साथ घंटों बातें करना कम से कम पिछले 12 वर्षों से कोई नई बात नहीं है. आख़िर रहमान मियां में ऐसा क्या था कि जब कभी भी बुनकरों का जिक्र आता है, रहमान मियां के साथ गुजारे चंद लम्हे और उनका चेहरा बरबस ही चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूम जाते हैं. चलने से पहले रहमान मियां से मैंने पूछा था कि वह बनारस की खटर-पटर से अलग, ढलती हुई शाम में गंगा आरती के वक्त यहां घाट पर क्या कर रहे हैं? तब उन्होंने बेचारगी भरी मासूमियत के साथ स़िर्फ इतना ही कहा था कि क्या करें, लूमवा का धंधवा फेल मार गवा ना…

लूमवा का धंधवा ऐसा उद्योग है, जहां एक परिवार एक साथ एक इकाई की तरह काम करता है. अपनी मेहनत और लाजवाब कर देने वाली कला से पूरी दुनिया में बनारस को एक खास पहचान देने वाले बनारसी बुनकरों के परिवार लूम इंडस्ट्री को हमेशा से आगे बढ़ाने के लिए अपना खून-पसीना बहाते रहे हैं, लेकिन उनके धंधे के तौर-तरीके ऐसे रहे हैं कि लगभग हर 5 साल के अंदर उन्हें मुंह की खानी पड़ती है. एक तरफ़ उनके लिए सरकारी कोशिशें होती हैं, जिनमें दस्तकारों की पहचान, उनके स्वास्थ्य एवं सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के उपाय, जैसे ॠण देने और ॠण माफ़ करने जैसी योजनाएं शामिल होती हैं. वहीं दूसरी तरफ़ बुनकरों की मुंहज़बानियां होती हैं, जिनमें मांग और आपूर्ति के हवाले से यह बताया जाता है कि अभी तो मंदी चल रही है. जब धंधा मंदा नहीं होता, तब यहां के बुनकर कहते हैं कि पहले से ठीक है.
पिछले साल जब लोकसभा चुनाव के बाद बनारस प्रधानमंत्री के प्रतिनिधित्व वाला क्षेत्र बना, तो यहां के लोगों की आंखों में उम्मीदों की नई किरण देखी गई, लेकिन आज भी हमारे जैसे रिसर्चर जब बनारस के बुनकरों के घरों में पहुंचते हैं, तो मंदी की आह नज़रों में उतरती हुई सुनाई देती है. एक बड़ा सवाल है कि ऐसा क्यों है कि अपने पूरे परिवार को एक इकाई बनाकर मेहनत करने वाले बुनकरों पर ही लूम इंडस्ट्री की मंदी का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है? जवाब में एक बड़ी वजह यह बताई जाती है कि बनारसी साड़ी के कारोबार में बिचौलियों की बड़ी भूमिका है. बाज़ार किसी भी आर्थिक गतिविधि का एक अभिन्न अंग होता है. बुनकरी में अगर बनारस को एक बड़े केंद्र या प्रतीक के तौर पर देखा जाए, तो बुनकर बाज़ार की पहचान कहीं चौक, तो कहीं बैठका के रूप में होती है. बैठका और चौक वे स्थान हैं, जहां से महाजन बुनकरों को कच्चा माल यानी धागा (यार्न) उपलब्ध कराते हैं और उनसे तैयार माल लेते हैं.

पिछले साल जब लोकसभा चुनाव के बाद बनारस प्रधानमंत्री के प्रतिनिधित्व वाला क्षेत्र बना, तो यहां के लोगों की आंखों में उम्मीदों की नई किरण देखी गई, लेकिन आज भी हमारे जैसे रिसर्चर जब बनारस के बुनकरों के घरों में पहुंचते हैं, तो मंदी की आह नज़रों में उतरती हुई सुनाई देती है. एक बड़ा सवाल है कि ऐसा क्यों है कि अपने पूरे परिवार को एक इकाई बनाकर मेहनत करने वाले बुनकरों पर ही लूम इंडस्ट्री की मंदी का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है?

इसके अलावा ढेरों बुनकर, जो खुद को इस दायरे से बाहर रखते हैं, उन्हें भी तैयार माल यानी साड़ी वगैरह किसी चौक स्थित किसी महाजन या फिर किसी के बैठका तक ही पहुंचाना पड़ता है. आगे का काम जिसे बिजनेस या व्यापार कहा जाता है, वह महाजन या बैठका वाले करते हैं. बुनकर, जो ताना-बाना का निगहबान होता है, वह व्यापार की प्रक्रिया से बाहर रहता है. जितनी डिजाइन, उतनी मेहनत, वक्त और लागत. हर साड़ी अपने-आप में सुंदर और आकर्षक. समझना ज़रूरी हो जाता है कि मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया क्या होती है और उसमें कौन लोग शामिल होते हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए लल्लापुरा के इनामुल हक़ अंसारी कहते हैं कि महाजन जो रेट तय करते हैं, उसी रेट में तैयार माल देना होता है. आगे उनकी मर्जी कि वे उस माल को कितनी क़ीमत में बेचते हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, दोनों ही बाज़ार में साड़ियों की क़ीमत वही तय करते हैं.
जाहिर है, बाज़ार से सीधा संपर्क बुनकरों की ज़रूरत रही है. बुनकरों की मानें, तो इससे रेट का फ़़र्क ठीक हो सकता है. साड़ियों की मांग और आपूर्ति पर महाजनों के रूप में बिचौलियों का जो नियंत्रण है, वह कमज़ोर होगा. निश्‍चित तौर पर फ्लिपकॉर्ट जैसी युक्ति बुनकरों को इन समस्याओं का ऐसा समाधान दे सकती है. लेकिन, दसवीं पास इनामुल हक़ की बात भी नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकती है. वह कहते हैं कि फ्लिपकॉर्ट जैसी ऑनलाइन मार्केटिंग के तौर-तरीकों को समझने के लिए पहले बुनकरों को इस लायक बनना होगा. अगर बनारस में बिचौलियों को छोड़ दिया जाए, तो आम बुनकरों को फ्लिपकॉर्ट पर व्यापार के बारे में न तो कोई जानकारी है और न कोई अनुभव. कुछ नौजवान बुनकरों को टच स्क्रीन मोबाइल पर वाट्सअप और फेसबुक चलाते देखा जा सकता है, उन्हें गूगल पर गाने सर्च करते हुए भी देखा जा सकता है, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि बुनकरों के जवान होते बच्चे अपनी खुद की मेहनत के उस विमर्श से दूर हैं, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आजीविका जैसी महत्वपूर्ण बातें शामिल हैं.
रहमान मियां जैसे हज़ारों बुनकर गंगा आरती की भीड़-भाड़ में हर माल दस रुपये वाले खिलौने बेचने को मजबूर होते हैं. बुनकरों को इस बात की जानकारी है कि महाजन ही पूरे बाज़ार को नियंत्रित करता है और फ्लिपकॉर्ट जैसी युक्ति का लाभ भी फिलहाल वही हासिल करने की स्थिति में है, क्योंकि अभी तक यह पता नहीं चल सका है कि फ्लिपकॉर्ट की ऑनलाइन मार्केटिंग प्रक्रिया में मूल्य निर्धारण कैसे होगा और उसमें बुनकरों की भूमिका क्या होगी. बेहतर होता कि सरकार स्थानीय स्तर पर विपणन केंद्रों को बढ़ावा देने संबंधी क़दम उठाती. खासकर, कृषि फसल की खरीद-बिक्री की तर्ज पर लूम प्रोडक्ट की खरीद-बिक्री को बढ़ावा देने संबंधी उपाय करती. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे केंद्रों के संचालन में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं परंपराओं को स्थापित किया जाए.
अगर नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अंतर्गत स्कूलों की प्रबंधन समितियों में 75 प्रतिशत अभिभावकों की उपस्थिति मुमकिन है, तो साड़ियों की खरीद-बिक्री के लिए स्थानीय स्तर पर (मुहल्ला या वार्ड स्तर) विपणन केंद्रों की स्थापना और उनके संचालन में 75 प्रतिशत आम बुनकरों की उपस्थिति सुनिश्‍चित करना भी संभव है. सोशल ऑडिट की तरह ऐसे केंद्रों की निगरानी करके लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को भी आगे बढ़ाया जा सकता है. ऐसा करने से महाजन या बिचौलिए भी अपने दायित्वों के प्रति संवेदनशील होंगे. तभी सामाजिक ढांचे में भी लोकतांत्रिक तरीके से बदलाव संभव होंगे. और, तभी यह भी मुमकिन होगा कि रहमान मियां जैसे काबिल शख्स को लुंगी और टोपी संभालते हुए घाट-घाट खिलौने बेचने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा.

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