BSP-Vidhan-Sabha-me-virodh-बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में मायावती के अलावा अन्य नेताओं के पास कुछ करने को अधिक नहीं होता. कहने का मतलब यह कि बसपा में मायावती की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता. माया की रैलियों में लाखों की भीड़ जुटना आम बात है. माया के वोटर उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं. तीनों (माया, कार्यकर्ता और वोटर) के बीच गजब का भरोसा देखने को मिलता है, लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान यह भरोसा टूटता दिखा. माना जा रहा है कि हालात खराब देखकर ही बसपा ने 12 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उप-चुनाव से स्वयं को दूर कर लिया है. वह वोटरों के बीच यह संदेश नहीं देना चाहती कि दलित वोटर उससे बिदक रहा है. बसपा को लगता है कि यदि वह उप-चुनाव में उतरी और कहीं हार गई, तो यह संदेश चला जाएगा कि दलित भाजपा के पाले में खिसक रहा है और इससे उसके (बसपा) भविष्य पर प्रश्‍नचिन्ह लग जाएगा. लेकिन, बसपा की सोच के विपरीत ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जिन्हें लगता है कि उप-चुनाव से दूरी बनाकर बसपा ने गलत किया है. बसपा की ग़ैर मौजूदगी में दलित वोटरों को अपनी तरफ़ लाने में भाजपा नेताओं को खास परेशानी नहीं होगी. मायावती को समझना होगा कि मैदान छोड़कर भागने से काम चलने वाला नहीं है. उप-चुनाव से दूरी बनाने की बजाय अगर मायावती मजबूती के साथ चुनावी जंग में कूदतीं और दलितों को यह बताने की कोशिश करतीं कि वही उनकी सच्ची हितैषी हैं, तो बसपा के लिए ज़्यादा उचित होता.
जानकार कहते हैं कि बसपा प्रमुख मायावती के पास कोई रास्ता ही नहीं बचा था, क्योंकि इधर कुछ वर्षों में दलितों में यह बात घर कर गई थी कि बसपा में दलित वोटों की पूंजी सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर सवर्ण एवं मुस्लिम प्रत्याशियों को ट्रांसफर करने का काम हो रहा है. बसपा में तमाम ऐसे चेहरे सामने आ गए हैं, जिनका दलितों के हितों से कुछ लेना-देना नहीं है. कुछ दलित चिंतक बसपा में आए बदलाव पर उत्साहित होकर कहते हैं कि मायावती संगठन को पुनर्गठित करते हुए ग़ैर जाटव एवं अति पिछड़ों को जोड़ने की जो कोशिश कर रही हैं, वह बसपा के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है, लेकिन यह काम सर्व समाज को जोड़े बगैर पूरा नहीं हो सकता, मायावती को यह हकीकत भी नहीं भूलनी चाहिए. जिस फॉर्मूले पर वह लौटती नज़र आ रही हैं, उस पर बसपा पहले भी काम कर चुकी है, लेकिन कभी वह सत्ता के निकट तक नहीं पहुंच सकी. ऐसे में दलितों के हितों के साथ-साथ संगठन में सोशल इंजीनियरिंग भी चलती रहनी चाहिए.
उत्तर प्रदेश की सत्ता गंवाने और लोकसभा चुनाव में खाता न खुलने के बाद बहुजन समाज पार्टी को इस सच का एहसास हो गया है कि बदले दौर में जनता के साथ खड़े हुए बगैर कुछ होने वाला नहीं है. इसीलिए बजट सत्र के दौरान महंगाई और बदहाल क़ानून व्यवस्था को मुद्दा बनाकर सदन के भीतर और विधान भवन के सामने जोरदार प्रदर्शन करके बसपा ने अपनी खोई ताकत वापस पाने का भरसक प्रयास किया. चुनावी रैलियों एवं सभाओं में लाखों की भीड़ जुटाकर सुर्खियां बटोरने वाली बहुजन समाज पार्टी ने हाल में जब जनता से जुड़े मुद्दों पर क़रीब साढ़े सात सालों (पांच साल बसपा शासनकाल के और ढाई साल अखिलेश सरकार के) में पहली बार प्रदर्शन का रुख अख्तियार किया, तो राजनीतिक पंडित हैरान रह गए. यह बसपा शैली के ख़िलाफ़ था. सब जानते हैं कि बसपाई विधानसभा, विधान परिषद और लोकसभा-राज्यसभा में तो खूब हल्ला मचाते हैं, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर सड़क पर संघर्ष नहीं करते हैं.
वजह यह है कि बसपा को गांव-देहात की पार्टी माना जाता है, शहर में उसके कार्यकर्ताओं की तादाद काफी कम है. इसीलिए जब बसपाइयों ने विधान भवन के बाहर प्रदर्शन करके अपनी ताकत का ढिंढोरा पीटना चाहा, तो उस प्रदर्शन में बमुश्किल हज़ार लोग जुट सके. यह भीड़ हर तरह से उम्मीद से काफी कम थी. प्रदर्शनकारियों का इतनी कम संख्या में मौजूद रहना इस बात का संकेत था कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिर रहा है. बसपा कार्यकर्ताओं में निराशा का आलम यह है कि पूरे लखनऊ के कार्यकर्ताओं ने ही प्रदर्शन में भाग नहीं लिया, जबकि लखनऊ में बसपा कार्यकर्ताओं की संख्या कई हज़ार है. 2007 से 2012 तक उत्तर प्रदेश की सरकार चलाने वाली मायावती ने अपने पूरे कार्यकाल में रैलियां-सभाएं तो कई कीं, लेकिन जनता से सीधे संवाद स्थापित करने की कोई कोशिश न उनकी ओर से हुई और न सरकार की ओर से.
स़िर्फ विरोधी दलों के नेता ही नहीं, बल्कि बसपा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले कई नेताओं (जो अब बसपा छोड़ चुके हैं) को भी लगता है कि मायावती एक तानाशाह की तरह पार्टी और सत्ता में आने पर सरकार चलाती हैं. मायावती का तानाशाही रवैया ही था, जिसकी वजह से उन्होंने अपनी सरकार रहते घोटाला करने वाले रंगनाथ मिश्र, बाबू सिंह कुशवाहा, चंद्रदेव यादव एवं बादशाह सिंह सहित नौ मंत्रियों के ख़िलाफ़ तो जांच बैठा दी, लेकिन अपने दामन के दाग किसी को नहीं देखने दिए. मायाराज में हुए एनआरएचएम, लैकफेड, स्मारकों एवं पार्कों के निर्माण के दौरान हुए घोटालों ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं. ताज्जुब की बात यह भी है कि विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के नेताओं ने मायावती को भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा करार देते हुए सत्ता में आने पर उन्हें (माया) जेल भेजने की बात कही थी, परंतु सत्ता मिलते ही समाजवादी अपना वादा भूल गए. शायद यह एक हाथ ले और दूसरे से दे वाली राजनीति का हिस्सा है. 2003 में मायावती ने भी सत्ता हासिल करने के बाद मुलायम सिंह को लेकर ऐसा ही लचीला रुख अपनाया था.
खैर, बहुजन समाज पार्टी ने विधान भवन के सामनेे जो प्रदर्शन किया, उससे कई सवाल उठते हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर महंगाई और लचर क़ानून व्यवस्था को मुद्दा बनाकर बसपा ने जिस प्रदर्शन का ऐलान किया, क्या उसे लेकर वह संजीदा नहीं थी? यदि थी, तो स़िर्फ एक हज़ार लोग विधान भवन के सामने क्यों जुटे, जबकि प्रदेश विधानसभा का बजट सत्र चल रहा है? यहां ग़ौर करने वाली एक और बात है. बीते साढ़े सात सालों के दौरान बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती बदायूं में दो बहनों की हत्या के बाद पहली बार किसी घटनास्थल पर पहुंचीं. यह घटना लोकसभा चुनाव के बाद की है. मायावती ने इस घटना का अपने हिसाब से राजनीतिकरण करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा, लेकिन यहां भी बसपाइयों में उत्साह की कमी दिखी. बसपा के मुकाबले भाजपा ने ज़्यादा नंबर बटोर लिए. राजनीति के जानकारों का कहना है कि लोकसभा चुनाव में खाता न खुल पाने की व्याकुलता ने बसपा प्रमुख को जनता के बीच जाने के लिए मजबूर कर दिया है.
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद बसपा की समीक्षा बैठक में यह बात कही गई थी कि जनता से दूर जाने का खामियाजा शर्मनाक हार केे रूप में भुगतना पड़ा. इसी के बाद पार्टी में नंबर दो समझे जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी और स्वामी प्रसाद मौर्य ने विधान सभा से लेकर सड़क तक तीखे तेवर अपना लिए. बसपा ने पहली बार राज्य की अखिलेश सरकार और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के ख़िलाफ़ एक साथ प्रदर्शन कर जनता से जुड़ने की कोशिश शुरू कर दी है. यह कोशिश कितना रंग लाएगी, देखने वाली बात होगी. बसपा जब धरना-प्रदर्शन की राजनीति शुरू कर रही है, तो इस मौ़के पर यह नहीं भूला जा सकता कि बीते ढाई सालों के दौरान केंद्र और राज्य सरकार ने उसे कई मा़ैके दिए, जिन्हें आधार बनाकर वह अपना जनाधार मजबूत करने की रणनीति बना सकती थी, लेकिन जातिवाद की राजनीति में उलझी बसपा ने ऐसा करना ज़रूरी नहीं समझा, जबकि सपा राज में क़ानून व्यवस्था की स्थिति शुरू से लचर है.
सवाल यह भी है कि क्या ढाई साल बाद प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा पुरानी ताकत हासिल कर पाएगी? जानकारों का कहना है कि इस बार प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के लिए अपनी खोई ताकत हासिल करना आसान नहीं होगा. अब तक वह चुनाव में अपनी पुरानी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के सामने होती थी, लेकिन इस बार मुकाबले में भारतीय जनता पार्टी भी है. ऐसे में पार्टी कार्यकर्ताओं को साथ लिए बगैर मायावती के लिए विधानसभा चुनाव में कुछ बेहतर कर पाना आसान नहीं होगा. वैसे, विधानसभा चुनाव से पूर्व बसपा को अपनी ताकत दिखाने का मौक़ा पंचायत और उसके बाद नगर निगम चुनाव में भी मिलेगा. पंचायत के चुनाव से गांव-देहात की नब्ज पता चलेगी, वहीं नगर निगम के चुनाव शहरी मतदाताओं के व्यवहार की जानकारी देंगे.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here