कहा जा रहा है कि अगर विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ ज्यादातर निर्वाचन-क्षेत्रों में अपना संयुक्त उम्मीदवार खड़ा कर सकें तो वे 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के हाथ से सत्तर-अस्सी सीटें छीन सकते हैं। यह आकलन बताता है कि सत्ता में पूर्ण बहुमत से मोदी की वापसी रोकने के लिए पहली और अनिवार्य शर्त विपक्ष की एकता है।

यानी भाजपा विरोधी वोट किसी कीमत पर बंटने नहीं चाहिए। अगर ऐसा किया जा सके तो जिन सीटों पर भाजपा मुश्किल से जीती थी, वहां विपक्षी एकता का बेहतर सूचकांक गैर-भाजपा राजनीति का दावा मजबूत कर सकता है। लेकिन क्या आज के हालात में इस तरह की विपक्षी एकता मुमकिन है?

यह लाख टके का सवाल है और फिलहाल सभी तरह के राजनीतिक संकेतक कह रहे हैं कि यह संभव नहीं। ऐसी एकता न तो 2014 में हुई थी और न ही 2019 में। गैर-भाजपा राजनीति तब भी वोटों के बंटवारे के लिए अभिशप्त थी और आज भी है।

क्या संयुक्त विपक्षी उम्मीदवार की थीसिस के पीछे कोई नया परिप्रेक्ष्य है? मुझे तो लगता है कि विपक्ष साठ के दशक में चले गैर-कांग्रेसवाद के चुनावी मुहावरे को ही आज की एकदम भिन्न परिस्थितियों में गैर-भाजपावाद की तरह चलाना चाहता है। यही है वह मुख्य कारण, जिसके चलते पिछले दो आम चुनावों में विपक्षी एकता नहीं हो सकी।

राजनीति बदल चुकी है, सार्वजनिक विमर्श बदल चुका है, मतदाता बदल चुके हैं, चुनाव लड़ने का तरीका बदल चुका है। अब न सेकुलरवाद का फिकरा चलता है, न सामाजिक न्याय की बातें असरदार रह गई हैं। मुसलमान वोटों की भाजपा विरोधी प्रभावकारिता खत्म हो गई है। पिछड़ों की एकता को भाजपा ने स्थायी रूप से खंडित कर दिया है। बिहार के अपवाद को छोड़ दें तो भाजपा अब ब्राह्मण-बनिया पार्टी नहीं रह गई है, उसे दलित-आदिवासी भी वोट देने लगे हैं।

इस बदली हुई परिस्थिति के मर्म में ‘स्प्लिट वोट’ का यथार्थ है। वोट डालते समय मतदाता पंंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और लोकसभा में अलग-अलग तरीके से सोचता है। जिस पार्टी को वह विधानसभा में हराता है, उसी को लोकसभा में उतने ही जोश से जिता देता है। ऐसा कई राज्यों में हो चुका है।

जो पार्टियां भाजपा को राज्यों के चुनाव में हराती हैं, वे भी लोकसभा में उसके मुकाबले बुरी तरह से हार जाती हैं। भाजपा ने इसी ‘स्प्लिट वोट’ का लाभ उठाकर 2019 का चुनाव जीता और इसी के बूते 2024 का समां बांधना चाहती है। बहुत कम समीक्षकों ने यह बात कही है कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात में भाजपा की रणनीति राष्ट्रीय मुद्दों पर फोकस करने की थी, जबकि विपक्ष ने स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता दी।

मुद्दों का यह बंटवारा इसलिए हुआ कि भाजपा की निगाह विपक्ष के मुकाबले कहीं अधिक और कहीं पहले से 2024 पर टिक चुकी है। वह मतदाताओं को संदेश देना चाहती है कि वे स्थानीय समस्याओं से परे जाकर राष्ट्रीय और एक हद तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दें। 2023 नौ विधानसभा चुनावों का साल है। भाजपा इन चुनावों में कश्मीर, राम मंदिर, तीन तलाक, नागरिकता कानून और समान नागरिक संहिता पर जोर देगी। सभी मुद्दे राष्ट्रीय हैं।

जिस समय राजनीतिक समीक्षकों का दिमाग हिमाचल और गुजरात के चुनावों में फंसा था, उसी समय नरेंद्र मोदी और उनका प्रचार-तंत्र अपने किसी और इरादे को जमीन पर उतारने में लगा था। 1 दिसम्बर को जी-20 की अध्यक्षता भारत को मिलने का जिस तरह से प्रचार किया गया, उसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि भाजपा ने अघोषित रूप से 2024 के चुनाव की मुहिम का आगाज कर दिया है।

पूरे 2023 के दौरान मोदी इस ग्रुप की अध्यक्षता करेंगे। सत्तारूढ़ दल इसका पूरा चुनावी दोहन करने के मूड में है। वह दिखाएगा कि किस तरह भारत विश्व-शक्ति के रूप में उभर रहा है। इस क्षण के महत्व का अहसास दिलाने के लिए सारे देश में मोबाइलधारकों को संदेश भेजे गए। जितने राष्ट्रीय स्मारक हैं, उन पर होलोग्राम प्रक्षेपित किए गए।

अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित हुए। खुद प्रधानमंत्री ने अखबारों में अपने नाम से लेख प्रकाशित कराए। क्या यह बात किसी से छिपी रह सकती है कि जी-20 का लोगो भी कमल का फूल है? वैसे यह एक संयोग है, लेकिन अब यह चुनाव लड़ने में माहिर भाजपा के हाथों लग गया है। वह सुनिश्चित करेगी कि जी-20 से वोटों की बारिश होनी चाहिए।

विपक्ष साठ के दशक में चले गैर-कांग्रेसवाद के चुनावी मुहावरे को ही आज की एकदम भिन्न परिस्थितियों में गैर-भाजपावाद की तरह चलाना चाहता है। जबकि आज की राजनीति पहले से बहुत बदल चुकी है।

Source: Dainik Bhaskar

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