lalu-nitishउत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत बिहार की राजनीति में गरमाहट लाने के लिए काफी थी, लेकिन उसे मिले प्रचंड व ऐतिहासिक जनादेश से यहां सियासी समीकरणों में उलट-फेर होना तय है. अब आदित्यनाथ योगी (या योगी आदित्यनाथ) के सत्तारोहण से पूरे माहौल को नया रंग मिल गया है. इस नए रंग से बिहार की राजनीति ही नहीं, यहां के सामाजिक बुनावट में भी बदलाव की आशंका व्यक्त की जा रही है. हालांकि यह   जल्द शुरू होगा या इसकी प्रक्रिया तुरंत दिखने लगेगी, यह मान लेना अभी अपरिपक्वता होगी. यह दिल्ली से चले राजनीतिक संदेशों और भौगोलिक सुविधा के साथ-साथ आकार ग्रहण करेगा. यह इस पर भी निर्भर करेगा कि सूबे की राजनीति इसके लिए कितना वक्त देती है. बिहार के सत्तारूढ़ महागठबंधन के लिए असली परीक्षा का दौर अब आनेवाला है- राजनीतिक एकता व प्रशासनिक कौशल के लिहाज से भी. इसी तरह, उत्तर प्रदेश के लोकतांत्रिक तख्ता-पलट से एनडीए भी बेअसर नहीं रहेगा. उसके भीतर भी उथल-पुथल होनी है. अगले कुछ महीनों में कई स्तरों पर कई बातें साफ होंगी.

बिहार के सत्तारूढ़ महागठबंधन के लिए अब नई चुनौतियों का दौर शुरू होगा. इसकी राजनीतिक एकता की तो अग्निपरीक्षा होनी ही है, सरकार के नेतृत्व के प्रशासनिक कौशल को भी नए संकटों से निपटना होगा. महागठबंधन में सबसे बड़ा दल राजद है, लेकिन सत्ता में वह दूसरे नम्बर की पार्टी है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ अपने सहज ही नहीं, पुराने व मधुर रिश्ते की बात राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद या उनके परिवार के लोग पिछले डेढ़ साल से करते आ रहे हैं, नीतीश कुमार और उनके राजनीतिक खास भी इसे दुहराने में कतई पीछे नहीं रहते. ये दोनों जब एक राग में एक बोल को गाते हैं, तो भला कांग्रेस क्यों पीछे रहेगी, वह भी साथ देती है. सवाल हैः राजनीतिक एकता और मेल-मिलाप वाकई में इस स्तर की है?  यह सही है कि सरकार चलाने में नीतीश कुमार को अब तक राजद से किसी बड़ी परेशानी का औपचारिक तौर पर सामना नहीं करना पड़ा है.

मुख्यमंत्री, जब जो चाहते हैं, करते दिख रहे हैं- बस राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद से अनौपचारिक बातचीत भर जरूरी समझी जाती है. हालांकि महागठबंधन के तीसरे घटक कांग्रेस में इसे लेकर काफी रोष रहता है. यह भी सही है कि महागठबंधन को बड़े जनादेश के बावजूद कोई डेढ़ साल से मुख्यमंत्री और उनका जद (यू) महागठबंधन में सहज नहीं महसूस कर रहा है. जद (यू) के नेताओं का मानना है कि राजनीति व प्रशासन में सहजता विकसित नहीं हो पा रही है. राजद सुप्रीमो के पुत्रों व उसके कई मंत्रियों के विभागों के कामकाज में ‘ऊपर के निर्देश’ सर्वोपरि होते रहे हैं. सूबे में सत्ता का एक ‘समानान्तर और मजबूत’ केंद्र विकसित हो गया है. सरकार के दैनंदिन कामकाज में यह कई परेशानियों को जन्म दे रहा है, जिसका संदेश, उनके हिसाब से, सकारात्मक तो कतई नहीं है. फिर, अनेक राजद नेताओं के सरकार विरोधी बयानात भी असहज हालात पैदा कर देते हैं. ऐसे अनेक राजनीतिक आचरण के कारण जद (यू) में कई बार दबाव महसूस किया गया है.

हालांकि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक ही राजनीतिक धारा की उपज हैं और दोनों का राजनीतिक वैपटिज्म भी समान विचार के राजनेताओं की छत्रछाया में हुआ है. सूबे के कुछ खास समूहों को अलग कर दें तो दोनों के लक्षित सामाजिक समूह-सामाजिक मतदाता समूह-भी एक हैं. लेकिन कोई दो दशक के विलगाव और विपरीत राजनीतिक-शैली दोनों नेताओं को सहज नहीं होने दे रही है या यूं कहें कि 1990 के दशक के जनता दल के दौर में नहीं पहुंचने दे रही है. इस असहजता का लाभ किसी को तो मिलना ही है.   इस राजनीतिक माहौल को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले, चुनाव अभियान के दौरान और परिणाम की घोषणा व आदित्यनाथ योगी के सत्तारोहण के बाद भाजपा और इसका केन्द्रीय नेतृत्व अपने तरीके से खूब हवा दे रहा है. प्रधानमंत्री सहित केन्द्र के अनेक गैर-बिहारी मंत्री नीतीश सरकार के कामकाज की सार्वजनिक तारीफ कर रहे हैं और लालू प्रसाद, उनके परिजन व राजद पर निशाना साध रहे हैं. यह सुनिश्चित रणनीति के तहत हो रहा है.

भाजपा या केन्द्र सरकार का अगला निशाना अब बिहार ही है, यह सूबे की गैर भाजपाई राजनीति जानती है. हिन्दी पट्टी में बिहार ही एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा अपने समन्वित विरोधी (लालू प्रसाद- नीतीश कुमार की एकजुट ताकत) की राजनीति के सामने काफी कमजोर दिख रही है. हालांकि भाजपा के लिए रणनीतिक तौर पर काफी राहत है कि आज देश के सबसे बड़े राजनेता नरेन्द्र मोदी और सबसे बड़े आक्रामक हिन्दुत्ववादी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों (वाराणसी और गोरखपुर) से महागठबंधन सरकार के प्रभाव क्षेत्र को सीधे निशाने पर ले रखा है. लेकिन भाजपा की रणनीति में परोक्ष राजनीति ज्यादा महत्व रखती है. लिहाजा वह लालू-नीतीश को अलग करने के साथ-साथ गैर भाजपाई मतदाता समूहों की एकता को कमजोर करने का हरसंभव उपाय करेगी. भाजपा के दिल्ली से पटना वाया लखनऊ तक के नेतृत्व की यह रणनीति बिहार के प्रशासन के लिए परेशानी का सबब बन सकती है. सूबे के कई हिस्से सामाजिक और सांप्रदायिक तौर पर काफी संवेदनशील हैं.

शासन की निष्क्रियता से उत्पन्न असंतोष को इनके बीच भुनाना आसान होता है. प्रशासन की परिणाम-मुखी सक्रियता माहौल को सहज बनाने में सबसे ज्यादा मददगार होती है. संयोग से इस फ्रंट पर बिहार के हालात बेहतर नहीं कहे जा सकते हैं. ऐसे हालात में सत्ता-समूह के अंतर्विरोध व आंतरिक राजनीतिक अविश्वास भी अपनी भूमिका निभाते हैं. हाशिये पर फेंके गए सामाजिक समूह सत्ता में अपना हिस्सा चाहते हैं, अपनी सुनिश्चित भूमिका की अपेक्षा रखते हैं. शीर्ष पर पकड़ ढीली पड़ने से ये हालात अपना रंग दिखाते हैं. इसके अलावा शासन की विफलताएं भी होती हैं. ये सब कुछ न कुछ तो असरकारी होंगे ही. ये महागठबंधन की एका को तो प्रभावित करेंगे ही, सूबे में सत्ता के इकबाल को भी कमजोर करेंगे.

एनडीए के भीतर भाजपा के प्रति उसके सहयोगी, मगर छोटे दलों, का नजरिया चुनाव परिणाम आने के साथ ही बदला दिखने लगा. बिहार में भाजपा के अलावा लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) और हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) एनडीए में शामिल है. पिछले कई महीनों से इन दलों की ओर से दबे स्वर में भाजपा के प्रादेशिक नेतृत्व के प्रति आक्रोश तो जताया ही गया, साथ ही उन पर वर्चस्ववादी राजनीतिक आचरण का परोक्ष आरोप भी लगा है. विधान परिषद के हालिया चुनाव के दौरान तो ये बातें खुल कर कही जा रही थीं.

लोजपा के प्रादेशिक नेतृत्व ने तो ऐसा किया भी. हम के सुप्रीमो पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने भी विभिन्न अवसरों पर अपनी नाराजगी जताने में परहेज नहीं की. केन्द्रीय राज्य मंत्री व रालोसपा सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा ने तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी में हुए रोड शो के लिए भाजपा नेतृत्व को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था. चुनाव परिणाम के साथ- 11 मार्च के पूर्वाह्न से ही- एनडीए के इन दलों के सुर बदल गए. प्रधानमंत्री व भाजपा नेतृत्व की प्रशंसा के कसीदे पढ़े जाने लगे. मंदिर-मस्जिद विवाद को छोड़ दें तो इन दलों ने भगवा और हिन्दुत्व को लेकर भी कुछ खास कहने से परहेज करना शुरू कर दिया है. उत्तर प्रदेश की इस ऐतिहासिक जीत से भाजपा के भीतर – पटना से लेकर प्रखंड स्तर तक- जश्न का माहौल था, पर योगी आदित्यनाथ के सत्तारोहण ने तो इसे और गहरा भगवा रंग दे दिया.

भाजपा के नेता-कार्यकर्ता ही नहीं, इसके समर्थक और कुछ अर्थों में वोटर भी इस जीत से उत्साहित हैं. हालत यह है कि इसके समर्थक सरकारी परिसरों में जबर्दस्ती पार्टी का झंडा फहरा दे रहे हैं. पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व विभिन्न कार्यक्रमों की घोषणा कर इस मनोबल का राजनीतिक लाभ उठाना चाहता है. लिहाजा बिहार में भी अभियान की शुरुआत हो चुकी है. सवाल ये है कि क्या बिहार में पार्टी इस जीत का पूरा राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए हर तरह से तैयार है? इस सवाल का उत्तर देना किसी भी गैर भाजपाई के लिए सहज नहीं है. अनौपचारिक तौर पर भाजपा के नेता भी ‘अगर-मगर’ के साथ ही इसका जवाब दे रहे हैं. वस्तुतः बिहार में एनडीए- किसी बड़े उलट-फेर न होने पर- ठीक है, पर भाजपा के लिए ऐसी बात विश्वासपूर्वक कहना फिलहाल कठिन है.

प्रदेश भाजपा में अनौपचारिक तौर पर मान लिया गया है कि सुशील कुमार मोदी युग का अवसान निकट है, लेकिन संकट यह है कि उन्हें रिप्लेस करने के लिए सक्षम नेतृत्व गढ़ा नहीं गया है. केन्द्रीय नेतृत्व जिन नेताओं पर दांव खेल रहा है, उनमें लालू प्रसाद और नीतीश कुमार- संयुक्त या अलग-अलग-की आक्रामक राजनीति के मुकाबले की क्षमता नहीं दिखती है. बिहार के राजनीतिक- सामाजिक समीकरण की गंभीर समझ का तो उनमें अभाव है ही, विभिन्न सामाजिक समूहों में उनकी स्वीकृति भी सीमित है. इसके बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व किस हद तक जोखिम मोल लेगा, यह बड़ा सवाल है.

संसदीय चुनावों के लिए व्यावहारिक तौर पर अब दो साल का भी वक्त नहीं बचा है. हालांकि हाल के महीनों में लगभग हर नाजुक मौकों पर सुशील कुमार मोदी दरकिनार किए जाते रहे हैं. ऐसे में पार्टी किस हद तक कोई जोखिम लेती है, यह देखना है.  सबसे बड़ा सवाल यह है कि बिहार में केन्द्रीय नेतृत्व क्या चाहता है? केन्द्रीय नेतृत्व के राजनीतिक आचरण से इतना तो तय है कि सत्तारूढ़ महागठबंधन को विभाजन की सीमा तक जाते देखना उसकी बिहार की कार्य-नीति में सबसे ऊपर है. देखना है कि इस संदर्भ में उसका रोड मैप क्या होता है?

यह सब साफ होने में अभी वक्त लगेगा, पर उत्तर प्रदेश की आज की राजनीति और एक युवा संन्यासी के राजतिलक के बाद बिहार के हालात तो बदले-बदले से लग ही रहे हैं. उत्साह केवल भाजपा या एनडीए तक ही सीमित नहीं है, यह महागठबंधन में भी दिख रहा है. एनडीए का हाल भी कुछ ऐसा ही है. घटक दलों के कुछ लोग एनडीए के शीर्ष नेतृत्व के राजनीतिक कदमों के परिणामों की प्रतीक्षा कर रहे हैं. वे अपने राजनीतिक दोस्त-दुश्मन के ठिकानों का नए सिरे से पता लगा रहे हैं, अपने नए आशियाने की तलाश में लगे हैं. हिन्दी पट्टी की प्रखर राजनीतिक चेतना के इस भू-खंड में नए उथल-पुथल की हरसूरत संभावना है. इसके लिए कुछ सब्र कीजिए.

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