बिहार में एक नया राजनीतिक समीकरण बन रहा है. पिछले कई सालों से रामविलास पासवान और लालू यादव की पार्टी एक-दूसरे के साथ खड़ी थी और उनका गठबंधन था. लालू यादव के जेल जाने के बाद भी रामविलास पासवान लालू यादव के साथ खड़े रहे. जेल से जो भी लोग लालू यादव से मिलकर लौटते थे, वे यह बताते थे कि लालू यादव रामविलास पासवान को लेकर बहुत संतुष्ट नहीं हैं. उन्हें ये लगता है कि लोकसभा चुनावों में रामविलास की सीटों के बारे में शायद फिर सोचना पड़ सकता है. दरअसल, पिछले लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी. पर उसके उम्मीदवारों ने कुछ जगहों पर अच्छा प्रदर्शन किया था.
लालू यादव अपने को शायद मुसीबत में घिरा हुआ देख रहे हैं. अगले ग्यारह साल तक वो ख़ुद चुनाव नहीं लड़ सकते. और जिस तरह के संकेत देश के लोग दे रहे हैं, इससे यह लगता है कि परिवार को भी लोग अब शायद ज्यादा पसंद न करें. लालू यादव जी के परिवार में तीन लोग हैं जो लोकसभा में पहुंचकर लालू जी की जगह संभाल सकते हैं. पहली ख़ुद उनकी पत्नी राबड़ी देवी, जो बिहार की मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष भी रहीं. दूसरे उनके पुत्र तेजस्वी और तीसरी उनकी बड़ी बेटी मिसा. समाचार निकल के आते हैं कि लालू के दोनों बेटों-तेजस्वी और तेजप्रताप में कुछ प्रतिस्पर्धा है. राष्ट्रीय जनता दल में या किसी भी पार्टी में परिवार के अलावा कोई भी व्यक्ति अध्यक्ष नहीं बन सकता. माहौल ऐसा है कि सबसे बड़े नेता को हमेशा यह डर बना रहता है कि अगर कोई दूसरा व्यक्ति पार्टी अध्यक्ष बन गया तो वो उनकी रातनीति पर विराम लगा सकता है. अपनी इसी परेशानी में लालू यादव बिहार में अपने को पुन: प्रतिष्ठित करना चाहते हैं. इस प्रक्रिया में वो पार्टी के इन नेताओं से अपने पूरे जेल प्रवास के दौरान बातचीत करते रहे. ये बातचीत गुप्त नहीं रह गई और रामविलास पासवान के पास ये सारी ख़बरें पहुंचने लगीं. सबसे आख़िर में रघुवंश प्रसाद सिंह ने प्रेस के सामने यह कहा कि रामविलास पासवान की सीटें तभी तय होंगी, जब वे अपने उम्मीदवारों का नाम बताएंगे.
सारे समाचारों से बौखलाए रामविलास पासवान को ये सबसे अपमानजनक लगा. यहीं से उन्होंने बिहार के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल से अलग होकर अकेले जाने का फैसला लिया. लालू यादव ये भूल गए कि लालू यादव और रामविलास पासवान का मेल स़िर्फ सीटों के लिए नहीं है, बल्कि ये मेल पिछड़े और दलित की एकता का संकेत भी है. लालू यादव संपूर्ण पिछड़े वर्ग के नेता नहीं रह गए हैं. अति पिछड़े नीतीश कुमार के साथ चले गए हैं. इसी तरह रामविलास पासवान भी संपूर्ण दलितों के नेता नहीं रह गए हैं. उनके साथ रहा एक बड़ा वर्ग अब महादलित के नाम पर नीतीश कुमार के साथ चला गया है. लेकिन इसके बावजूद पिछड़े
नेताओं में सबसे बड़ा क़द लालू यादव का है. इसके बाद नीतीश कुमार सहित तमाम नेता आते हैं. दलितों में तो निर्विवाद रूप से रामविलास पासवान का सबसे बड़ा क़द बिहार में है ही. इस चीज़ पर बिना ध्यान दिए सीटों को लेकर खींचतान की वजह से लालू यादव ने अपना और रामविलास पासवान का रिश्ता यानी पिछड़ों और दलितों का रिश्ता तोड़ने की शुरुआत कर दी.
यहीं पर नीतीश कुमार का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने रामविलास पासवान से सीधा संपर्क स्थापित कर लिया. उन्होंने रामविलास पासवान के प्रति अपनी आतुरता बिल्कुल नहीं छिपाई. उन्होंने कहा कि अगर रामविलास पासवान उनके साथ आते हैं, तो रामविलास पासवान के साथ सीटों के बंटवारे की समस्या नहीं आएगी. वे रामविलास का साथ वैचारिक आधार पर भी और रणनीति के आधार पर भी लेना चाहते थे. रामविलास पासवान पर एक तरफ राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी और भाजपा के तमाम बड़े नेता डोरे डाल रहे थे, दूसरी तरफ कांग्रेस के लोग रामविलास पासवान के साथ समझौता करने की बात कर रहे थे. रामविलास का यह कहना था कि हम भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लालू यादव को साथ लेकर कैसे लड़ सकते हैं. अगर राहुल गांधी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अध्यादेश, जो क़ानून बनने वाला था, की प्रति सार्वजनिक रूप से फाड़ सकते हैं, तो फिर कांग्रेस लालू यादव को लेकर देश में कैसे घूम सकती है. हालांकि, लालू यादव पर कोई भी भ्रष्टाचार का आरोप साबित नहीं हुआ है. निचली अदालत में मुक़दमा चल रहा है. हमारे देश में जबतक सुप्रीम कोर्ट आख़िरी ़फैसला न दे दे, ़फैसला नहीं माना जाता. कांग्रेस के जो लोग रामविलास पासवान से मिलते थे, उनमें कुछ स़िर्फ कांग्रेस और रामविलास पासवान के गठजो़ड की बात करते थे और कुछ रामविलास पासवान, लालू यादव और कांग्रेस के गठजोड़ की बात करते थे. यहीं से शायद रामविलास पासवान को ये लगा होगा कि कांग्रेस में ख़ुद ही एका नहीं है, तो ये रास्ता वैसा ही गड़बड़ है, जैसा लालू यादव के साथ जाने में.
रामविलास पासवान ने नीतीश कुमार से वैचारिक मुद्दों पर भी बातचीत करने की बात की और नीतीश कुमार ने तत्काल इन सवालों का सकारात्मक जवाब रामविलास पासवान को दिया. रामविलास पासवान को ये डर था कि नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच अगर कोई मतभेद हैं, जिस तरह की ख़बरें जदयू के नेता समय-समय पर बाहर निकालते रहते हैं तो इनका यह सारा प्रयास व्यर्थ जा सकता है. इसलिए उन्होंने अपनी तरफ से पहल कर शरद यादव से भी संपर्क स्थापित किया. और इस सारे घटनाक्रम की शुरुआत में जदयू के महासचिव केसी त्यागी सामने आए, जिन्होंने एक तरफ नीतीश कुमार को नये समीकरण की
संभावनाओं के लिए तैयार किया और दूसरी ओर शरद यादव को उन्होंने इस गठबंधन के भविष्य के फ़ायदे समझाए. दरअसल, केसी त्यागी का ये मानना है कि रामविलास पासवान देश में दलितों का सौम्य चेहरा है जो आक्रामक भी हो सकता है, लेकिन रामविलास पासवान का एक चेहरा ऐसा भी है जो दलितों के अलावा
ग़ैर-दलितों को भी पसंद आता है. और रामविलास उनसे बातचीत में कभी भी फैनेटिसिज्म नहीं दिखाते हैं. इसलिए रामविलास पासवान भविष्य के एक बड़े सहयोगी हो सकते हैं.
बिहार में रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक तरफ भारतीय जनता पार्टी है, दूसरी तरफ़ लालू यादव हैं और तीसरी तरफ़ कांग्रेस है. कांग्रेस अभी तक इस दुविधा में है कि वो बिहार में करे तो क्या करे. ये कांग्रेस का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि वह चुनाव से पहले कभी नहीं सोचती कि उसे राज्यों के संगठन को चुस्त-दुरुस्त भी करना है या संगठन को गतिशील बनाना है. जब चुनाव आता है तो कांग्रेस की कॉस्मेटिक सर्जरी शुरू होती है और कांग्रेस की इस रणनीति ने या कांग्रेस की इस काहिली ने कांग्रेस के सारे कार्यकर्ताओं को मायूस कर दिया है. बिहार में लोकसभा चुनाव में एक नई चुनौती खड़ी हो रही है और वो नई चुनौती आम आदमी पार्टी की है. बिहार में आम आदमी पार्टी अन्ना की पार्टी कही जाती है. बिहार में मैंने जितने लोगों से फोन पर बात की, सबका यही मानना है कि दिल्ली में अन्ना की सरकार बन गई है. इस भ्रम के बावजूद अरविंद केजरीवाल के प्रति पार्टियों से बाहर के लोग एक स्वाभाविक आकर्षण में बंध गए हैं और ये आकर्षण जहां बीजेपी और कांग्रेस के लिए परेशानी का कारण है, वहीं लालू यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के लिए भी चिंता का कारण हो सकता है. बिहार को टेस्ट केस इसलिए मान रहे हैं, क्योंकि अभी-अभी बिहार में बीजेपी और जदयू का गठबंधन टूटा है. इसके बाद नीतीश कुमार घूम रहे हैं, सभाएं कर रहे हैं. उनकी सभाओं में भीड़ आ रही है. लेकिन वो भीड़ कितनी कन्सॉलिडेट हो रही है, यह अभी नहीं कहा जा सकता. ऐसे समय रामविलास पासवान और नीतीश कुमार का मिलना बिहार में एक तरह का संकेत है तो दूसरी तरह का संकेत वहां पर आम आदमी पार्टी के नाम पर लड़ने वाले लोगों का भी है. पर आम आदमी पार्टी की विडंबना ये है कि वो कितनी जगहों पर नये लोगों को खड़ा करेगी, यह नहीं कहा जा सकता है. वहां पर बीजेपी, कांग्रेस छोड़कर आने वालों की तादाद बढ़ रही है. बल्कि कहें कि हर जगह बढ़ रही है और वो सब लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं. दिल्ली में जीत के पीछे एक सबसे बड़ा कारण खाली स्लेट थी. ऐसे उम्मीदवार ल़डे, जिनका कोई इतिहास नहीं रहा. लोगों ने उन्हें समर्थन दिया और विधायक बनाया. पर जिनके बारे में लोग जानते हैं, अगर वो अच्छे लोग नहीं हैं, साख़ वाले लोग नहीं हैं, तो ऐसे लोगों को किस तरह से जनता का समर्थन मिलेगा, अभी नहीं कह सकते. बिहार शायद नये समीकरणों की ओर बढ़ने वाला पहला प्रदेश बन रहा है. प
बिहार नये समीकरण की ओर बढ रहा है
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