साल 2014 में दो सवालों के जवाब मिल जाएंगे. क्या कांग्रेस इतनी भरपाई कर पाएगी कि वह कम से कम एक सम्मानजनक हार का सामना करेगी और तीन अंकों तक अपनी सीट पहुंचा पाएगी या फिर वह 80 सीटों से भी कम पर सिमट कर रह जाएगी? दूसरा सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी राजनीति में टिक पाएगी  और राष्ट्रीय स्तर पर देश की तीसरी ब़डी पार्टी बन पाएगी?
arvind-kejriwal-press-confeप्रणब मुखर्जी जब भारत के 13वें राष्ट्रपति बने थे, उस समय उन्होंने कहा था कि 13 का अंक भारत के लिए दुर्भाग्यशाली नहीं है. हालांकि, ऐसे लोगों की संख्या कम ही है जिनके लिए वर्ष 2013 का अंत देखना सुखद होगा. राजनीतिक दृष्टि से बीता वर्ष कई मायनों में ऐतिहासिक रहा है. किसे याद होगा कि बीती जनवरी में राहुल गांधी ने नाटकीय रूप से अपनी मां के हाथों राजनीति का ज़हरीला पात्र लिया था और अपने परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे ब़ढाया था. वे उस समय कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने थे और उन्होंने कहा था कि उनकी मां ने उन्हें बताया कि राजनीति ज़हर है. उस समय भाजपा के सामने यह चुनौती ख़डी हो गई थी कि वह किसी ऐसे नेता की तलाश करे जो राहुल की तरह युवाओं की पसंद बन सके.
अब जबकि साल के आख़िरी समय में अगर हम नज़र दौ़डाते हैं तो परिप्रेक्ष्य कुछ अलग तरी़के का दिखाई प़डता है. शुरुआत में तो कांग्रेस पीएम प्रत्याशी का नाम घोषित करने को लेकर काफ़ी उत्साहित दिख रही थी. उनके पास पीएम पद का प्रत्याशी चुनने का अपना एक अनोखा तरीक़ा है. लेकिन पीएम प्रत्याशी को लेकर कांग्रेस द्वारा लगाए गए सारे अनुमान काफ़ी ग़लत साबित हुए. यह वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में एक ग़लत अनुमान था. समय बीतने के साथ ही बीते 8 दिसंबर को कांग्रेस को बहुत भयावह परिणामों का सामना करना प़डा.
राजनीति में अब बहुत ब़डा बदलाव आया है. न स़िर्फ नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक ज्ञानियों के सारे अनुमानों को बदल कर रख दिया, बल्कि सम्मान की ल़डाई में अरविंद केजरीवाल सबसे आगे निकले जिन्होंने मतदाताओं को सबसे अच्छे ढंग से सुना. मंडल की राजनीति का ज़माना अब निकल गया है अब मतदाता पहचान की राजनीति को तरज़ीह दे रहे हैं. अरविंद केजरीवाल और मंडल के बाद की राजनीति क्षेत्रीय पार्टियों को चेतावनी दे रहे हैं जो तीसरा मोर्चा बनाने का सपना पाले हुए हैं.

राजनीति में अब बहुत ब़डा बदलाव आया है. न स़िर्फ नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक ज्ञानियों के सारे अनुमानों को बदल कर रख दिया, बल्कि सम्मान की ल़डाई में अरविंद केजरीवाल सबसे आगे निकले, जिन्होंने मतदाताओं को सबसे अच्छे ढंग से सुना. मंडल की राजनीति का ज़माना अब निकल गया है. अब मतदाता पहचान की राजनीति को तरज़ीह दे रहे हैं.

साल 2014 में दो सवालों के जवाब मिल जाएंगे. क्या कांग्रेस इतनी भरपाई कर पाएगी कि वह कम से कम एक सम्मानजनक हार का सामना करेगी और तीन अंकों तक अपनी सीट पहुंचा पाएगी या फिर वह 80 सीटों से भी कम पर सिमट कर रह जाएगी? दूसरा सवाल यह है कि क्या आप पार्टी राजनीति में टिक पाएगी और राष्ट्रीय स्तर पर देश की तीसरी ब़डी पार्टी बन पाएगी. क्या वह कांग्रेस और वाम दलों को धकेलकर देश की दूसरी ब़डी पार्टी बन जाएगी?
हालांकि, कांग्रेस ल़डाई ल़ड रही है लेकिन जितना ही ज्यादा वह ल़डती है, हास्यास्पद रूप से उसे उतना ही स्पष्ट होता जाता है कि उसने कितनी देर कर दी है. दो वर्ष पूर्व राहुल गांधी नियमागिरी गए थे जहां उन्होंने आदिवासियों के लिए ल़डाई ल़डने की बात कही थी. इससे कांग्रेसी मंत्रियों को इस बात के स्पष्ट संकेत मिल गए थे कि आदिवासियों और पर्यावरण के बचाव में सभी खनन और ढांचागत निवेश को रोकना होगा. अपने एक भाषण के दौरान दो साल पहले राहुल गांधी ने लोकसभा में कहा था कि संविधान संशोधन करके लोकपाल बिल बनना चाहिए. उनका यह भाषण एक गेम चेंजर की तरह साबित हुआ और आख़िरकार कांग्रेस गेम हार ही गई. अब राहुल उसी राजनीति को लेकर काफ़ी उत्साहित दिख रहे हैं, जिसे लेकर वे कुछ समय पहले काफ़ी परेशान हो गए थे. हालांकि, उनकी राजनीतिक खोज में अभी तक दो साल बर्बाद हो चुके हैं.
हमें यह बताया गया था कि कांग्रेस राहुल गांधी को अपना पीएम प्रत्याशी घोषित करेगी. आश्‍चर्यजनक बात है! पार्टी को यह बात महसूस हो जानी चाहिए कि उसके पास एक मात्र चुनावी संपत्ति सोनिया गांधी ही हैं. राहुल गांधी को प्रचार अभियानों में शामिल होकर अधिक से अधिक अपनी मां की मदद करनी चाहिए. वह चाहें तो भारत दर्शन यात्रा पर भी जा सकते हैं, लेकिन उन्हें शांत रहना चाहिए. यह एकमात्र उपाय है जिससे कांग्रेस लोकसभा चुनाव में तीन अंकों के आक़डे को छू सकेगी.
यह आप पार्टी ही है जो कांगे्रस को तीसरे स्थान पर धकेल कर भाजपा के विकल्प के रूप में उभर सकती है. यह पार्टी नई, आधुनिक और गैर-सांप्रदायिक है. इसकी नीतियां लोकलुभावन हैं, जिससे सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ प़डता है. हमें यह देखना होगा कि राजनीतिक सच्चाइयों के साथ यह पार्टी कितने दिनों तक रह पाती है. लेकिन हाल में इसने कुछ ऐसे कीर्तिमान बनाए हैं जिससे राजनीति की पुरानी अवधारणा टूटी है. एक पुरानी पार्टी होने के नाते कांग्रेस का अस्तित्व बने रहने की कोई गारंटी नहीं है, विशेष रूप से उन परिस्थितियों में, जब कांगे्रस 80 सीटों से भी कम सीट लेकर आए. ब्रिटेन में 1905 में लेबर पार्टी भारी बहुमत से चुनाव जीतकर आई थी, लेकिन उसके बाद वह कभी भी दोबारा सत्ता में नहीं आ सकी. इसके बाद लेबर पार्टी पूरी बीसवीं सदी में ब्रिटेन की मुख्य विपक्षी पार्टी बनी रही.
भारत एक जवान देश है और इसे नई राजनीति चाहिए, जिसमें मतभेद कम हों, जो ज्यादा काम करना चाहती हो, जहां काम को अधिक महत्व दिया जाए. अब साल 2014 के चुनावों को देखना होगा.

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