बिहार में स़िर्फ दवा खरीद के नाम पर नहीं, चिकित्सा उपकरणों, दवा की जांच, मरीजों के लिए सुख-सुविधाओं के नाम पर घोटाले का खेल चलता रहा है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनएचआरएम) के धन की अलग-अलग तरीकों से प्रभावशाली सामाजिक समूहों ने व्यापक पैमाने पर लूट की, जिसकी चर्चा बिहार विधान मंडल के सदनों में राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी समेत कई विधायकों एवं विधान पार्षदों ने की. लेकिन, इस बार दवा खरीद के लिए गठित निगम के कामकाज की जांच महा-लेखाकार ने की और उसकी रिपोर्ट भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी के हाथ लग गई. उसके बाद तो भारी वर्षा के बावजूद सूबे की राजनीति सरगर्म हो गई. मोदी ने शुरू से ही नीतीश कुमार को निशाने पर ले लिया.
जीतन राम मांझी सरकार ने साफ़ कर दिया है कि सूबे के दवा घोटाले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से नहीं कराई जाएगी. राज्य की जांच एजेंसियां पूरी तरह सक्षम हैं और उन्होंने कई मामलों में सीबीआई से बेहतर काम किया है, लिहाजा उन्हीं से इस मामले की जांच कराई जाएगी. मुख्यमंत्री मांझी ने खुद यह बात कही है, तो किसी को और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन स्वास्थ्य मंत्री रामधनी सिंह कैसे चुप रहते! सो, उन्होंने कह दिया, यह ऐसा कोई बड़ा मामला नहीं है कि सीबीआई को जांच की ज़िम्मेदारी दी जाए. वह तो इसे घोटाला या गड़बड़ी मानने से भी इंकार करते हैं. वह कहते हैं, कुछ भी ऐसा नहीं है, यह एक-दो करोड़ रुपये का मामला है, इतनी कम रकम की गड़बड़ी को घोटाला कैसे कहा जा सकता है!
राज्य में इस दवा घोटाले की जबरदस्त चर्चा है, जिसने पिछले सप्ताह नई उड़ान ली है. इस प्रकरण में बचाव की कमान अब तक मांझी, रामधनी सिंह सहित पार्टी के दो-तीन मंत्री और दो-तीन प्रवक्ता थामे हुए थे. लेकिन, भाजपा के बड़े नेता सुशील कुमार मोदी के निरंतर हमले पर अंतत: नीतीश कुमार की चुप्पी टूटी. मोदी का आरोप है कि नीतीश कुमार को इस घोटाले की पूरी जानकारी रही है, उनके जानते-बूझते सब कुछ हुआ है. मोदी के अनुसार यह उन दिनों का मामला है, जब नीतीश स्वास्थ्य मंत्री के प्रभार में थे. उन्होंने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि इस घोटाले के धन का इस्तेमाल गत लोकसभा चुनाव के दौरान जदयू के लिए किया गया था. इस मामले में अब तक बाजी सुशील मोदी के हाथ रही है, वह नीतीश कुमार को अखाड़े में उतार लाने में सफल रहे. इस प्रकरण में सुशील मोदी एवं भाजपा के अन्य नेता (नेतृत्व से नाराज़ तबका छोड़कर) हमलावर हैं, वहीं सरकार, नीतीश कुमार एवं जदयू के कुछ नेता बचाव की मुद्रा में हैं. बचाव के लिए उनके पास बख्तर भी थोड़े हैं.
ठीक एक साल बाद राज्य विधानसभा के चुनाव होने हैं. चुनाव के ऐन पहले दवा घोटाले के रूप में भाजपा को बिहार की मौजूदा राजनीति में उसके दुश्मन नंबर एक नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ एक बड़ा हथियार मिल गया है. भाजपा अब उनसे अपना सारा हिसाब चुकता करने की हरसंभव कोशिश करेगी. एनडीए-1 और फिर एनडीए-2 की सरकार के दौरान अपने तत्कालीन दबंग बड़े भाई से पार्टी नेतृत्व बार बार प्रताड़ित होता रहा. इसमें उस भोज को वापस लेने की नीतीश कुमार की कार्रवाई भी शामिल है, जो नरेंद्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर छापे जाने की प्रतिक्रिया थी. इस मामले के सतह पर आने से नीतीश कुमार (व्यापक अर्थों में जदयू-राजद-कांग्रेस महा-गठबंधन) की पूरी राजनीति दांव पर लग गई है. नीतीश कुमार का सार्वजनिक जीवन बहुत सारे मामलों में किसी बिहारी राजनेता से अधिक साफ़-सुथरा रहा है. अपनी बहुत सारी राजनीतिक-प्रशासनिक उपलब्धियों एवं गुणों के कारण भाजपा विरोधी राजनीति में वह बिहार के सभी तबकों में सबसे अधिक स्वीकार्य हैं. ऐसे में इस राजनीतिक ध्रुव की साफ़ छवि का यह पराभव स़िर्फ जदयू नहीं, महा-गठबंधन को भी नई परेशानी में डालने के लिए काफी है. इसलिए बिहार में इस घोटाले को लेकर दोनों राजनीतिक ध्रुवों यानी भाजपा-राजग और जदयू एवं उसके महा-गठबंधन के अपने-अपने लाभ-हानि हैं तथा इसीलिए अपनी-अपनी राजनीति के दांव-पेंच भी हैं, जो साफ़ दिख रहे हैं.
राज्य में इस दवा घोटाले की जबरदस्त चर्चा है, जिसने पिछले सप्ताह नई उड़ान ली है. इस प्रकरण में बचाव की कमान अब तक मांझी, रामधनी सिंह सहित पार्टी के दो-तीन मंत्री और दो-तीन प्रवक्ता थामे हुए थे. लेकिन, भाजपा के बड़े नेता सुशील कुमार मोदी के निरंतर हमले पर अंतत: नीतीश कुमार की चुप्पी टूटी. मोदी का आरोप है कि नीतीश कुमार को इस घोटाले की पूरी जानकारी रही है, उनके जानते-बूझते सब कुछ हुआ है.
बिहार में स़िर्फ दवा खरीद के नाम पर नहीं, चिकित्सा उपकरणों, दवा की जांच, मरीजों के लिए सुख-सुविधाओं के नाम पर घोटाले का खेल चलता रहा है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनएचआरएम) के धन की अलग-अलग तरीकों से प्रभावशाली सामाजिक समूहों ने व्यापक पैमाने पर लूट की, जिसकी चर्चा बिहार विधान मंडल के सदनों में राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी समेत कई विधायकों एवं विधान पार्षदों ने की. लेकिन, इस बार दवा खरीद के लिए गठित निगम के कामकाज की जांच महा-लेखाकार ने की और उसकी रिपोर्ट भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी के हाथ लग गई. उसके बाद तो भारी वर्षा के बावजूद सूबे की राजनीति सरगर्म हो गई. मोदी ने शुरू से ही नीतीश कुमार को निशाने पर ले लिया. सरकार ने मामला सामने आते ही आनन-फानन में दवा खरीद के मामले की जांच के लिए गठित के के सिंह कमेटी की रिपोर्ट जारी की, दो वरिष्ठ एवं ज़िम्मेदार अधिकारियों समेत कई लोगों पर कार्रवाई की, दागी कंपनियों की दवाओं की खरीद-आपूर्ति पर रोक लगा दी. लेकिन, उसने शुरू से दो बातें साफ़ कर दीं, पहली यह कि मामले की जांच किसी भी क़ीमत पर सीबीआई से नहीं कराई जाएगी और दूसरी यह कि नीतीश कुमार इस प्रकरण में कहीं नहीं हैं.
हालांकि कैग रिपोर्ट जिस कालखंड की है, उस दौरान नीतीश कुमार ही स्वास्थ्य विभाग के प्रभारी मंत्री थे. इतना ही नहीं, दवा खरीद में गड़बड़ी की जानकारी बतौर मुख्यमंत्री और विभागीय मंत्री उन्हें एक साल पहले किसी के जरिये दी गई थी. सुशील मोदी का आरोप है कि नीतीश ने जानकारी के बावजूद गड़बड़ी होने दी. अब क्या सच है, क्या गलत, यह जांच का विषय है और बिहार सरकार राज्य से बाहर किसी बड़ी एजेंसी से जांच कराने के लिए कतई तैयार नहीं है. इससे भी बड़ी बात यह कि इस प्रकरण में नीतीश कुमार अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं. मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री, विजय कुमार चौधरी, भीम सिंह जैसे दो-तीन मंत्रियों एवं जदयू के दो-तीन प्रवक्ताओं के अलावा कोई भी उनके पक्ष में खुलकर सामने नहीं आ रहा है. ये लोग इसे अपने विरोधियों को शांत करने की मोदी की राजनीति बता रहे हैं और बिहार के कुछ हलकों में यह बात असर भी डाल रही है, लेकिन नीतीश कुमार की छवि को लेकर बन रही नकारात्मक हवा कमजोर नहीं हो रही है.
उधर, सरकार के सहयोगी दल कांग्रेस ने मामले की जांच किसी बड़ी एजेंसी से कराने की बात कही है, लेकिन राजद ने खुलकर कोई बात नहीं की. उसकी राजनीतिक लाइन की प्रतीक्षा की जा रही है. दल के भीतर और सहयोगियों की यह बेरुखी यदि कोई संकेत करती है, तो वह नीतीश के लिए कतई चिंता की बात है. लेकिन उससे भी आगे यह बिहार की जनता में उनकी स्वीकार्यता को शक की तरफ़ ले जाता है. सबसे बड़ी बात यह कि राजनीतिक स्तर पर इस प्रकरण ने उपचुनाव की जीत की उपलब्धि की चमक धूमिल कर दी है. वास्तविकता जो भी हो, दवा घोटाला सामने आने से स़िर्फ जदयू सरकार नहीं, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा नीतीश कुमार को नुकसान उठाना पड़ रहा है. मौजूदा दौर में (विधानसभा चुनाव से पहले) उनकी राजनीति ढलान पर आ गई दिखती है. देखना यह है, कहां तक लुढ़कती है.
दवा घोटाले ने भाजपा को नई ताकत दी है, जिसे सुशील कुमार मोदी किसी भी क़ीमत पर अगले एक साल तक केवल ज़िंदा नहीं रखना चाहते, बल्कि धारदार बनाने की हरसंभव कोशिश में लगे हैं. इस मामले की पहली सकारात्मक उपलब्धि यह रही कि उपचुनाव में भाजपा की हार का प्रतिकूल असर समाप्त होता जा रहा है. पार्टी कार्यकर्ता उससे उबरते दिख रहे हैं. मोदी चाहते हैं कि चुनाव के पहले नीतीश कुमार की राजनीति दागदार बना दी जाए, भाजपा के सत्तारोहण की राह की सबसे बड़ी राजनीतिक प्रतिरोधक शक्ति नि:स्तेज कर दी जाए. इसी ख्याल से वह सीधे नीतीश कुमार और उनके खास लोगों पर निशाना साध रहे हैं. बिहार की जांच एजेंसियों की बनावट और उन पर शासक समूह के असर से वह वाक़िफ हैं, इसलिए सीबीआई जांच से कम पर मानने को तैयार नहीं हैं. सीबीआई जांच का सीधा लाभ है, भाजपा नीतीश की छवि को निशाने पर लेगी. एक ख़तरा भाजपा के कुछ नेताओं को लेकर भी है. बिहार सरकार ने यदि एनडीए सरकार का कार्यकाल जांच के दायरे में डाल दिया, तो संभव है कि छींटे उसके नेताओं पर भी पड़ें. एनडीए के समय चंद्रमोहन राय, नंद किशोर यादव एवं अश्विनी कुमार चौबे राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रहे थे. रामधनी सिंह ने चंद्रमोहन राय के पाक-साफ़ होने की तस्दीक़ कर दी है. हालांकि यादव और चौबे ने भी सीबीआई जांच की मांग की है.
इस घोटाले ने एक बड़ा राजनीतिक काम और किया है, वह यह कि भाजपा की अंदरूनी लड़ाई सड़कों पर आ गई है और लोगों को दिखने लगी है. भाजपा के बड़े नेताओं का एक बड़ा तबका राज्य नेतृत्व से नाराज़ है और इस मामले में भी कुछ बातों के लिए सुशील मोदी का विरोधी है. अगड़े सामाजिक समूहों के नेताओं के साथ-साथ पिछड़ों का भी पूरा समर्थन मोदी को नहीं मिल रहा है. डॉ. सी पी ठाकुर ने नीतीश कुमार पर बगैर जांच के आरोप लगाने की आलोचना की है, वहीं चंद्रमोहन राय, हरेंद्र प्रताप, रामेश्वर चौरसिया, प्रेम कुमार, सत्यदेव नारायण आर्य जैसे लोग सार्वजनिक तौर पर मोदी विरोधी मुहिम में आ गए हैं. नंद किशोर यादव एवं मंगल पांडेय जैसे नेताओं और मुख्य प्रवक्ता विनोद नारायण झा को छोड़ दिया जाए, तो मोदी के नीतीश विरोधी अभियान में कोई बड़ा नेता खुलकर नहीं आया है. यह सही है कि राष्ट्रीय नेतृत्व बिहार के बारे में मोदी के कहे मुताबिक ही निर्णय लेता है, यह भी सही है कि बिहार भाजपा में मोदी से बड़ा नाम दूसरा कोई नहीं है. बावजूद इसके पार्टी के भीतर उनका विरोध लगातार तेज होता जा रहा है. नेतृत्व के बड़े तबके का भरोसा वह गंवाते जा रहे हैं. यह इस दवा घोटाला प्रकरण में भी दिखता है. विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा के भीतर ऐसा माहौल होना नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है.
बहरहाल, बिहार का यह दवा घोटाला चारा घोटाले की याद ताजा कर रहा है, राजनेताओं एवं अधिकारियों की संलिप्तता चाहे जैसी हो, रकम चाहे जो हो. चारा घोटाला खुलने का सूत्रपात कैग रिपोर्ट से ही हुआ था और इसी तरह लोक लेखा समिति एवं राज्य की जांच एजेंसियों का हवाला दिया गया था, छोटी-छोटी धनराशियों के मामले सामने आने लगे थे, राजनीति बंट गई थी, मुख्यमंत्री के प्रियजन शक के दायरे में आने लगे थे और इसी तरह मामले कोर्ट में ही निपटाए गए थे. बिहार की जनता अभी दिल थामकर प्रतीक्षा कर रही है कि देखें, कौन-कौन फंसता है. लेकिन, कई तरह और कई रंगों की बड़ी-बड़ी मछलियों का इसमें फंसना तय है, यह भी लगने लगा है.