manamohanकांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बिहार की अपनी टीम के पहले चरण के गठन का काम शुरू कर दिया है. उनके नेतृत्व में सूबे में यह पहला बड़ा सांगठनिक कदम है. पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष और चार कार्यकारी अध्यक्षों का मनोनयन किया है. यहां कांग्रेस की कमान पुराने कांग्रेसी और पूर्व मंत्री मदनमोहन झा को दी गई है. उनके साथ ही चार कार्यकारी अध्यक्ष के तौर पर अशोक कुमार राम, श्यामसुन्दर सिंह धीरज, कौकब कादरी व समीर कुमार सिंह को भी मनोनीत किया गया है. अभी तो पूरी कमिटी के साथ ही, संगठन को सूबे की राजनीति की चुनौतियों का सामना करने लायक बनाने के लिए बहुत सारे काम आलाकमान को करने हैं. ये काम कब होंगे, यह कहना कठिन है.

पर इतना तो तय है कि संसदीय चुनावों के पहले इस संदर्भ में अब कुछ और होने की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं दिखती है. अर्थात इस अधूरे नेतृत्व को बिहार कांग्रेस के प्रभारी महासचिव शक्ति सिंह गोहिल के साथ मिलकर संसदीय चुनावों में अपनी सार्थकता दिखानी है. गोहिल के साथ मिल कर इस टीम को ही संसदीय चुनावों की सरजमीनी रणनीति तय करनी है. उन सीटों और उसके लिए सक्षम उम्मीदवारों की पहचान भी इसी कमिटी को करनी है, जहां कांग्रेस अपने उम्मीदवार दे सकती है.

इन संभावित सीटों के लिए महागठबंधन के घटक दलों से प्रारंभिक बातचीत भी इसी टीम को करनी है. अर्थात संसदीय चुनावों को लेकर सभी तरह की आरंभिक पीठिका इस नई टीम को ही तैयार करनी है, इसी आधार पर दल का नेतृत्व अपने सहयोगी दलों से बात करेगा. कांग्रेस के आंतरिक ही नहीं, सूबे के राजनीतिक हलकों में भी यह सवाल किया जा रहा है कि ऐसे काम में यह टीम किस हद तक सफल हो पाएगी. सवाल तो यह भी किया जा रहा है कि यह टीम किस हद तक अपने में तालमेल रख पाएगी. बिहार कांग्रेस के नेतृत्व की इस नई टीम के सामाजिक समीकरण को लेकर भी कई बातें की जा रही है. इन सवालों का जवाब कांग्रेस के पुराने एवं नए लोग दे नहीं रहे हैं, या देना नहीं चाहते हैं. पार्टी में आम तौर अभी देखो और इंतजार करो का ही माहौल है.

सवर्ण मतदाताओं को आकर्षित करने की पहल

बिहार कांग्रेस की इस नई टीम से कांग्रेस को आनेवाले चुनावों या सूबे की राजनीति में क्या लाभ होगा, यह कहना अभी कठिन है. पर, इतना तो तय है कि इसने एनडीए विशेषकर भाजपा से नाराज अगड़े मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की एक पहल की है. एससी/एसटी कानून में बदलाव या दलित आरक्षण को लेकर सवर्ण उथल-पुथल ने अभी गति पकड़ी है, पर यह मतदाता समूह एनडीए सरकारों की रीति-नीति और भाजपा व जद (यू) की राजनीति में खुद को उपेक्षित पाता रहा है. हां, उक्त मसलों ने इस उपेक्षा को आक्रामक तेवर दे दिया.

वस्तुतः मंडल राजनीति के दौर में कांग्रेस से सवर्णों विशेषकर भूमिहार व ब्राह्मण की नाराजगी बढ़ी और ये राजनीतिक तौर पर भाजपा से जुड़ गए. इसका लाभ भाजपा और उसका सहयोगी होने के कारण नीतीश कुमार की पार्टी को मिलता रहा. बाद में ये नीतीश कुमार से छिटकने लगे और भाजपा के अघोषित अगड़ा विरोधी राजनीतिक रूख ने भी उन्हें निराश किया. 2015 के विधानसभा चुनावों में सूबे के अगड़ा मतदाता समूह में इस ट्रेंड की झलक मिली.

उस चुनाव में उन अगड़ा बहुल अनेक क्षेत्रों में कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत हुई, जो पिछले कई चुनावों से भाजपा (या एनडीए) की सीटें मानी जाने लगी थीं. उस हालत में अब भी कोई सुधार नहीं दिखता है. इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस आलाकमान का यह फैसला उसे यदि कुछ राजनीतिक लाभ दिला दे तो बड़ी बात नहीं है. पर यह लाभ अधिकाधिक तभी मिल सकता है जब पूरी कमिटी पूरे तालमेल से काम करे. कांग्रेस में तालमेल से एकमत होकर काम करने की परंपरा वर्षों पहले लगभग खत्म हो गई है. पिछले कई दशकों से सत्ता से दूर होने के बावजूद कांग्रेस में नेताओं के बीच बहुधा तालमेल नहीं रहा है.

चुनाव जैसे नाजुक मौकों पर भी यह जोरदार तरीके से उभर कर सामने आ जाता है. इसकी गारंटी कांग्रेस अध्यक्ष भी नहीं ले सकते हैं कि यह टीम भी बगैर किसी विवाद के एकजुट होकर काम करेगी. यह इसलिए भी कि इस कमिटी में कौन किसका नेतृत्व मानेगा, यह कहना कठिन है. इसमें चार कार्यकारी अध्यक्ष हैं, जिनमें एक प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी अध्यक्ष थे. बाकी तीनों अध्यक्ष पद के घोषित-अघोषित दावेदार रहे. एक तो अध्यक्ष न होते हुए भी अध्यक्ष जैसे ही व्यवहार कर रहे हैं. फिर इन चारों में से दो की उत्कट जातिगत कमजोरी रही है, जो बार-बार दिख भी जाती है. इनमें से एक तो अभी से सीट और उम्मीदवारी बांट भी रहे हैं. ऐसे में राहुल गांधी की इस नई बिहारी टीम में कभी समन्वय बन पाएगा, यह कहना कठिन है. हां, विवाद जल्द ही पैदा हो जाने की आशंका है.

शक्ति सिंह गोहिल की मेहनत

बिहार कांग्रेस के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल खूब मेहनत कर रहे हैं. वे पार्टी के भीतर ही नहीं, बाहरी स्रोतों से भी संसदीय चुनावों के साथ-साथ अन्य सभी तरह की जानकारी हासिल कर रहे हैं. संगठन व नेताओं को लेकर सभी संभव सूचनाएं इकट्ठा कर रहे हैं. बिहार के राजनीतिक-सामाजिक समीकरण को जानने समझने की कोशिश कर रहे हैं. यह जानते हुए भी कि बिहार में जातियों के अपने-अपने राजनीतिक दल हैं, गोहिल इस व्यवस्था में सेंधमारी कर कांग्रेस के लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. कांग्रेस के कई नेताओं का मानना है कि नई टीम के गठन में उनकी जानकारी का लाभ हासिल करने का प्रयास किया गया है, लेकिन तब भी कमी रह ही गई. उनकी इस टीम में महिलाओं को कोई जगह नहीं दी गई. इसी तरह पिछड़ों व अतिपिछड़ों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया. ये कमी कांग्रेस के लिए अच्छी राजनीति के संकेत तो नहीं ही देते हैं.

फिर, मुसलमान समुदाय भी इस टीम से खुश नहीं है. उसे लगता है कि उसके हित को दरकिनार कर दिया गया है. सो, कांग्रेस को इन सारी कमी की भरपाई के बारे में बगैर देर किए सोचना होगा. यह सही है कि पिछड़ों के दबंग तबके कांग्रेस से दशकों पहले अलग हो गए. पर यह भी सही है कि पिछड़े सामाजिक समूहों के कई बड़े तबकों की राजनीतिक नेतृत्व की खोज अब भी पूरी नहीं हो सकी है. सूबे के कई अतिपिछड़े व महादलित समुदायों को भी उपयुक्त राजनीतिक आवाज़ की खोज है. पर, इस कमिटी के गठन के बाद ऐसा लगता नहीं है कि कांग्रेस इन सामाजिक समूहों को लेकर बहुत चिंतित है. चूंकि, बिहार में कांग्रेस को नए सिरे से खड़ा करना है, लिहाजा इन सामाजिक समूहों के बारे में उसे सोचना होगा. हालांकि इसका लाभ कब और कितना मिलेगा, यह कहना कठिन है. पर इससे कांग्रेस की समावेशी राजनीति को ताकत तो जरूर मिलेगी.

कांग्रेस को 10 सीटें मिल सकती हैं

कांग्रेस के लिए अगले कुछ हफ्तों में संसदीय चुनावों को लेकर कई समस्या दरपेश आनी है. हालांकि लालू प्रसाद के साथ कांग्रेस का रिश्ता काफी पुराना है, पर महागठबंधन में वह दूसरे नम्बर की पार्टी ही है. अर्थात राजद जो चाहेगा, वही होगा. यह कांग्रेस के सभी नेता समझते हैं, वे राहुल गांधी हों या शक्ति सिंह गोहिल. इसीलिए बिहार कांग्रेस की मौजूदा टीम का यह कहना उचित ही है कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस हरसंभव कुर्बानी करेगी. हालांकि वह यह भी कहती है कि पार्टी सम्मान के साथ ही समझौता करेगी. ऐसा माना जाता है कि महागठबंधन की मौजूदा संरचना में लोकसभा की अधिकतम दस सीटें कांग्रेस को मिल सकती हैं.

पर यदि कोई नया घटक इसमें आएगा तो यह संख्या और कम हो सकती है. गत चुनाव में भी इसके हिस्से बारह सीटें आई थीं. सो, कांग्रेस नेतृत्व भजपा को हराने के नाम पर इसे स्वीकार करने को तैयार ही दिखता है. पर, कांग्रेस के लिए महागठबंधन में उसकी हिस्सेदारी और सीटों की पहचान से अधिक परेशानी का सबब है, सक्षम उम्मीदवारों का चयन. यह बात सही है कि उम्मीदवारों को लेकर अंतिम फैसला आलामान को ही करना है और यह भी कि इसमें शक्ति सिंह गोहिल की भूमिका अहम हो जाएगी. हर सीट के लिए तीन-तीन नामों का पैनल तो राज्य में ही बनना है. वह दृश्य अनुपम होगा जब हर सामाजिक समुदाय, प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व की टीम का हर मेम्बर अपनी हिस्सेदारी मांगेगा. मात्र दस या उससे भी कम सीटों की बदौलत सबको साधना सामान्य राजनीतिक प्रबंध कौशल के बूते संभव नहीं है.

कांग्रेस की एक परेशानी गणेश परिक्रमा की राजनीति शैली की पुरानी परंपरा है. इस राजनीति-शैली का मूल मंत्र है- एक साधे, सब सधे. हालांकि यह अब सभी राजनीतिक दलों में आम आचरण हो गया है. पर, कांग्रेस में यह पांच दशक से भी अधिक पुरानी है. सो, इस शैली की राजनीति के लाभान्वितों की अच्छी भीड़ शक्तिसिंह गोहिल के आसपास जुट गई है. इनमें वैसे लोगों की संख्या काफी है, जो राजद से नाता न रखने के पक्षधर हैं. इन लोगों में कुछ तो जद (यू) और गोहिल के बीच सेतु की भूमिका जैसा राजनतिक आचरण कर रहे हैं. इससे और कुछ हो या नहीं, एक निश्चित अंतराल पर जद (यू) को लेकर महागठबंधन में भ्रम का माहौल तो बनता रहा है. ऐसे लोगों को अवांछित महत्व देकर गोहिल ने भी इसमें कुछ न कुछ भूमिका निभाई है.

मौजूदा चुनावी राजनीति के संदर्भ में यह माहौल कांग्रेस के हित में नहीं है. इससे कांग्रेस की राजनीतिक लाइन में स्थिरता के अभाव के आरोप को बल मिलता है. कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व पर भरोसा करनेवालों, जिनमें पैंतालीस वर्ष की उम्र से कम की आबादी है, की संख्या बहुत कम है. उनका मानना है कि कांग्रेस का नेतृत्व बचकाना और अपरिपक्व है. बिहार में गोहिल का कुछ राजनीतिक आचरण इन बातों को बल प्रदान करता है. फिर, कांग्रेस आलाकमान बिहार में नई टीम के गठन के साथ मतदाताओं के जिन सामाजिक समूहों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है, वे नीतीश कुमार के कथित राजनीतिक अवसरवाद से अत्यधिक नाराज तो हैं ही, उनके अघोषित अगड़ा विरोध से घोर पीड़ित भी हैं. संसदीय चुनाव की तैयारी धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगी है. ऐसे में कांग्रेस को ऐसे किसी भी राजनीतिक आचरण से बचना होगा जो इसकी राजनीति को लेकर भ्रम का माहौल बनाए.

बिहार ही नहीं, देश में भी, कांग्रेस एक अजीब द्वंद में फंसी दिख रही है. वह भाजापा के विरोध में सभी भाजपा विरोधी राजनीतिक ताकतों की एकजुटता भी चाहती है और इसके लिए नरेन्द्र मोदी से लड़ रही क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों के सामने झुकती हुई भी नहीं दिखना चाहती है. कांगेस नेतृत्व में अन्तर्द्वंद्व की यह स्थिति पिछले चुनाव से पहले, यूपीए-2 के अंतिम वर्षों में बनी थी और अब तक कायम है. हालात को सुधारने की दिशा में राहुल गांधी क्या उपाय कर रहे हैं, यह साफ नहीं हो रहा है.

पर हाल के दिनों में राफेल सौदे और पेट्रो-उत्पादों की कीमत में बढ़ोतरी व उससे बढ़ रही महंगाई को लेकर कांग्रेस ने जो कुछ किया है, उसका सकारात्मक असर पड़ा है. राहुल गांधी के नेतृत्व में और कहें तो वर्षों बाद कांग्रेस की यह पहली कार्रवाई थी. लेकिन इस एक उदाहरण को राजनीतिक सक्रियता के नमूने के तौर पर लंबे अर्से तक नहीं चलाया जा सकता है. कांग्रेस को दो तरफा राजनीतिक अभियान चलाना होगा. उसे केंद्र की कुछ नीतियों व फैसलों के खिलाफ तो जन-अभियान चलाना ही होगा, साथ ही उन राज्यों में उन मुद्दों की खोज कर तुरंत आंदोलन चलाना होगा, जिनसे लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है. बिहार में भी ऐसे मसलों की कमी नहीं है. पर, गोहिल हों या कोई और, इस ओर किसी की नज़र जा ही नहीं रही है.

30 से अधिक सीटें जीतेगा महागठबंधन : समीर कुमार सिंह


 

चौथी दुनिया से बात करते हुए बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नए कार्यकारी अध्यक्ष समीर कुमार सिंह कहते हैं, मनए अध्यक्ष और सभी कार्यकारी अध्यक्ष अनुभवी और संगठन के माहिर लोग हैं. मदनमोहन झा जी 42-43 साल से लगातार संगठन में काम कर रहे हैं. मैं डबल एमए, पीएचडी, एलएलबी हूं. मैं 35 साल से संगठन में काम कर रहा हूं. 2008 में मैं बिहार का कार्यकारी अध्यक्ष रह चुका हूं. अन्य कार्यकारी अध्यक्षों की बात करें, तो अशोक राम विधायक दल के नेता, सीडब्ल्यूसी मेंबर और कैबिनेट मिनिस्टर भी रहे हैं.

श्याम सुन्दर धीरज यूथ कांग्रेस के प्रेसिडेंट रहे हैं. कुल मिलाकर सभी लोग शिक्षित और योग्य हैं. कोई भी दागदार नहीं है. राहुल गांधी जी ने दूसरे दलों के मुकाबले अच्छी छवि वाले नेताओं को संगठन में आगे लाने का काम किया है. बिहार में जिस तरह से मोदी जी के खिलाफ माहौल बन रहा है, तो हम समझते हैं कि महागठबंधन 30 से ज्यादा सीटें जीतेगा. इस बार कांग्रेस की स्थिति पिछले चुनाव से बेहतर है. हम न्यूनतम 15 सीटें चाहते हैं, इससे कम पर सम्मानजनक समझौता नहीं होगा.

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