12भारत की 16वीं लोकसभा का चुनाव कथित भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. गत दस वर्षों की कांग्रेस हुकूमत के दौरान जनता के धन एवं संपदा की गई लूट के रूप में मनमोहन-सोनिया गांधी का नेतृत्व अपने भ्रष्ट आचरण के चलते जो नजीरें दे गया है, उसका हिसाब-किताब करना असाध्य कार्य है. 2012 के अंत में क़रीब आधा दर्जन राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव हुए, जिनमें गुजरात में भाजपा लगातार चौथी बार जीतकर आई, तभी से भारत के शासक वर्ग ने गुजरात के कथित विकास मॉडल को देश भर में प्रचारित कर उसके नाम पर केंद्र की हुकूमत बनाने का मंसूबा बना लिया था. समय गुजरा और पिछले वर्ष भारत के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने मोदी को अपने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया.
मीडिया और देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों ने इस चुनाव में जिस पेशेवर सक्रियता का नमूना देशवासियों के सामने रखा, वह अपने आप में अनूठा है. यह सक्रियता उनकी बेचैनी का सुबूत है. प्रचार माध्यमों द्वारा ऐसा भ्रामक प्रचार भारत के इतिहास में अपना पहला अनुभव है. ऐसा लग रहा है कि देश में लोकसभा नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री पद के लिए सीधा चुनाव हो रहा है. पूरे चुनाव में राजनीतिक दलों के किसी घोषणापत्र, आर्थिक नीति, विदेश नीति, सामाजिक कार्यक्रमों आदि पर चर्चा किए बगैर स़िर्फ मोदी, राहुल अथवा केजरीवाल जैसे राजनीतिक चरित्रों पर फोकस किया जा रहा है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गत दस वर्षों के कांग्रेसी शासन में की गई कारगुजारियों के चलते भाजपा को लगभग वाकओवर दे चुके हैं. ऐसे पस्त हालात में मीडिया को केजरीवाल जैसा फिलर मिल गया है, जिसका दोहन वह मोदी समर्थित जनविरोधी ताकतों के पक्ष में दिन-रात कर रहा है. मोदी को डिजाइनर पारंपरिक लिबास में पगड़ी थमाकर, तो कभी तलवार के साथ मंच पर किसी ऐसे नायक की तरह पेश किया जाता है, जैसे वह कोई राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि फ़िल्मी हस्ती हों, जो अपनी किसी फिल्म के प्रमोशन के लिए देश भर की गलियां-कूचे नाप रही हो. मोदी के मंच पर आते ही सीटियां बजती हैं, जिससे आप यह अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत का कौन सा प्रबुद्ध समाज उनकी राजनीतिक विचारधारा का बोझ उठा रहा है.
सवा अरब से अधिक और दुनिया का दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश जब अपने अगले पांच वर्षीय राजकाज का निर्णय लेने वाला हो, उसकी पूर्व संध्या पर देश की राजनीतिक आबो-हवा ज्वलंत समस्याओं पर केंद्रित न होकर व्यक्ति आधारित हो, तब पाठक अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत का भविष्य कैसा होगा? देश की तमाम बुनियादी समस्याओं यथा पानी, बिजली, सड़क, परिवहन, पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा, विज्ञान-तकनीक एवं रोज़गार के मसले जहां एक तरफ मुंह चिढ़ाते हैं, वही देश के लगातार बिगड़ते सामाजिक परिवेश पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है. देश में बढ़ते सांप्रदायिक दंगे, खापों का बढ़ता प्रभाव, ऑनर किलिंग, सत्ता में अकलियतों, पिछड़ों एवं दलित तबकों की भागीदारी पर न कोई विचार है, न कोई नीति, न दिशा. भारत के शासक वर्ग द्वारा इन तमाम समस्याओं से जनता का ध्यान हटाकर मोदी जैसे गुब्बारे को इतना फुला देना ही उनके हित में है, जिसकी ओट में वह देश के संसाधनों पर अपने विदेशी आकाओं के साथ मिलकर अपनी लूट अनवरत रूप से न केवल जारी रखे, बल्कि उसे स्थायी अमलीजामा पहना सके.
यह भारत का पहला ऐसा चुनाव है, जिसके एजेंडे से 20 करोड़ मुसलमान और 20 करोड़ दलित आबादी के जलते सवाल सिरे से गायब हैं. गुजरात के कथित विकास मॉडल पर मीडिया और कॉरपोरेट ताकतों ने जिस तरह तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है, वह निस्संदेह अकल्पनीय है. विकास मॉडल को देश भर में बेचने के साथ-साथ राजनीतिक दुष्प्रचार की सभी सीमाएं लांघ दी गई हैं. छह करोड़ की आबादी वाले गुजरात में लगभग 10 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है. मोदी की फासीवादी प्रचारक संस्थाएं एक ऐसे झूठ को देश भर में फैला रही हैं कि गुजरात का मुसलमान 2002 के जनसंहार को भूलकर मोदी के पीछे खड़ा है और उसे वोट देता है. भाजपा का मुसलमानों के प्रति क्या राजनीतिक दृष्टिकोण है, यह जगजाहिर है. लेकिन, यहां इस बात को ग़ौर से देखना चाहिए कि बतौर प्रतिपक्ष एक केंद्रीय दल अथवा कई सूबों में सत्ता संभाले दल का रवैया देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति कैसा है?
गुजरात विधानसभा में 182 सीटें हैं, जिनका 10 प्रतिशत यानी 18 सीटें मुसलमानों की होनी चाहिए. गुजरात भाजपा ने 2012 के विधानसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा. 2007 की विधानसभा में कुल पांच मुस्लिम विधायक थे, जो 2012 में घटकर मात्र दो रह गए. गुजरात भाजपा मुसलमानों को मात्र वार्ड प्रत्याशी बनाती है. जामनगर ज़िले के सलाया नगर (33 हज़ार आबादी, 90 फ़ीसद मुसलमान) में भाजपा ने 27 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे, जिनमें 24 जीते. ये सभी मुस्लिम बाहुल्य आबादी से थे. इसके अतिरिक्त भुज और अंजार जैसे नगरों में भाजपा के कुछ मुस्लिम पार्षद हैं, जिनमें से एक रियल स्टेट का बड़ा कारोबारी है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में 500 प्रत्याशियों में भाजपा ने मुसलमानों को कुल छह टिकट दिए, जिनमें क़रीब 50 मुस्लिम बाहुल्य आबादी के चुनाव क्षेत्र शामिल हैं. इसमें मात्र एक सदस्य आरिफ अकील भोपाल से चुने गए. चुनाव पूर्व इन राज्यों में मुस्लिम विधायकों की संख्या 17 थी. राजस्थान में 8.5 फ़ीसद आबादी मुसलमानों की है, जहां भाजपा ने 200 सीटों वाले सदन में से कुल 4 टिकट दिए, जिनमें मात्र 2 विधायक चुने गए, जबकि यह संख्या उनकी आबादी के अनुसार 17 होनी चाहिए थी. दिल्ली में मुसलमानों की आबादी 12 फ़ीसद है. 70 सदस्यों वाले सदन में भाजपा ने स़िर्फ एक मुस्लिम उम्मीदवार को चुनाव लड़ाया, जबकि यह संख्या 8 होनी चाहिए थी.
उक्त आंकड़ों से मुसलमानों और राजनीतिक नेतृत्व में उनकी हिस्सेदारी के सवाल को लेकर भाजपा की समझ साफ़ हो जाती है. अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र के सिद्धांतों में मुसलमानों की क्या स्थिति होगी, यह अंदाजा स्वत: ही लगाया जा सकता है. मरहूम सिकंदर बख्त, मुख्तार अब्बास, शाहनवाज हुसैन, नजमा हेपतुल्लाह, आरिफ मोहम्मद खान और हाल में शामिल हुए एम जे अकबर जैसे चेहरे दिखाने वाले मुसलमानों को प्रचार माध्यमों में रखकर देश का सबसे प्रमुख राजनीतिक दल अपनी मंशा साफ़ कर चुका है. चंद दिखावटी चेहरों का प्रदर्शन करके भाजपा-संघ परिवार भारत के बीस करोड़ मुसलमानों को किसी विधायिका में बैठने का हक़ छीन लेना चाहता है, उन्हें उन इदारों में मुसलमानों को बैठाने की कतई ज़रूरत महसूस नहीं होती, जहां वे नीति निर्धारण करें अथवा अपने भविष्य के लिए किसी नीति-योजना पर क़ानून बना सकें.
संघ परिवार का दूसरा सबसे बड़ा झूठ यह है कि गुजरात का मुसलमान उन्हें (भाजपा-मोदी) वोट देता है. यह एक तथ्य है और तथ्य सच नहीं होते. सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता प्रतीत होता है और हमें रात-दिन की अनुभूति होती है, सदियों तक इसी आंखों देखी बात पर मानव जाति ने यकीन किया, लेकिन वस्तुत: पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही होती है, यह वैज्ञानिक सत्य है. गुजरात के मुसलमानों के वोट मोदी को पड़ना कोई ऐसा जटिल प्रश्‍न नहीं है, जिसे समझा न जा सके. बोहरा एवं खोजा दोनों मुस्लिम व्यापारी तबके हैं और व्यापारियों के अपने निहित स्वार्थ उन्हें सत्ता के इर्द-गिर्द रहने को मजबूर करते हैं. यह समुदाय आर्थिक दृष्टि से ऐतिहासिक रूप से संपन्न रहा है. इन्हीं बोहरा टोपियों को दिखाकर देश भर के मुसलमानों को यह संदेश दिया जा रहा है कि मोदी को मुस्लिम समर्थन प्राप्त है. यह एक प्रायोजित सत्य है. बोहरा देश में मुसलमानों का एक प्रतिशत भी नहीं हैं. दूसरा कारण भय की राजनीति है, जिसे न तो देश का मीडिया बताता है और न कांग्रेस जैसी राजनीतिक ताकतें.
जर्मन के फासीवादी तानाशाह हिटलर और इटली के मुसोलिनी संघ की प्रेरणा के प्रमुख स्रोत हैं. हिटलर द्वारा जर्मन के यहूदी समुदाय का दमन किसी से छिपा नहीं है, लेकिन उसके प्रचार तंत्र, जिसका मुखिया गोयबल्स था, उसने भी प्रचार किया था कि हिटलर को यहूदी समुदाय का समर्थन प्राप्त है. 1933 में मात्र 33 फ़ीसद वोट हासिल करके संसद में आए हिटलर को जर्मन राष्ट्रपति पॉल वान हिंडेन्बार्ग ने सरकार का मुखिया बनाया था, 87 वर्ष की उम्र में 2 अगस्त, 1934 को राष्ट्रपति की मृत्यु होने के तुरंत बाद हिटलर ने अध्यादेश पारित कर खुद को जर्मन का चांसलर घोषित कर दिया, जिसके तहत सभी संवैधानिक ताकत उसके पास आ गई. इस अध्यादेश का जनता से अनुमोदन लेने के लिए 19 अगस्त, 1934 को जर्मनी के 3.8 करोड़ मतदाताओं से एक जनमत संग्रह कराया गया था. अभी तक हिटलर की सत्ता को मात्र 19 माह हुए थे, उसके नाजी कार्यक्रम के चलते देश में जनतंत्र को कुचल कर सभी विपक्षी दलों के नेताओं को जेल में डाल दिया गया था या उनकी हत्याएं कर दी गई थीं. 19 अगस्त, 1934 के न्यूयार्क टाइम्स में इस जनमत संग्रह की रिपोर्ट की छपी ख़बर आज बड़ी प्रासंगिक है. जनमत संग्रह में 90 फ़ीसद मतदाताओं ने हिटलर को हां में जवाब दिया था. इसी मतदान में यहूदियों और कम्युनिस्ट समर्थकों ने भी हिटलर के पक्ष में मतदान किया था. यह भी एक तथ्य है, लेकिन सच से दूर.
उदाहरण के लिए जर्मनी के एक ज़िले में यहूदी इलाके से 168 वोट हां और 92 न में पड़े, 46 रद्द हुए. दूसरे ज़िले के एक यहूदी वृद्ध आश्रम से 94 वोट हां और 4 न में पड़े, 3 रद्द हुए. दचाऊ स्थित यातना शिविर में 1554 वोट हां और 8 न में पड़े और 10 रद्द हुए. जाहिर है, इनमें अधिकतर यहूदी समुदाय से थे. ठीक इसी प्रकार पश्‍चिमी बर्लिन, जो मजबूत कम्युनिस्ट प्रभाव क्षेत्र था, वहां क्रमश: 840 वोट हां और 237 न में पड़े. दूसरे कम्युनिस्ट गढ़ वेडिंग ज़िले में 949 वोट हां और 237 वोट न में पड़े. ध्यान रहे, उस वक्त कम्युनिस्ट नेता अर्नेस्ट थेलमान को हिटलर ने जेल में डाल रखा था. पूरे जर्मनी के शहरों में नाजियों ने बिल बोर्ड लगाए थे, जिनकी इबारत कुछ यूं थी, जर्मनी के पुनर्जन्म के लिए हिटलर अब तक हवाई जहाज, रेल, मोटरकार, पैदल 15 लाख किलोमीटर का सफ़र तय कर चुका है. तुम घर से 100 मीटर चलो और उसे हां का वोट दो. मतदान 19 अगस्त की सुबह आठ बजे से शुरू होना था, लेकिन हिटलर के नाजी दस्ते, जिसमें हिटलर यूथ ट्रूप्स, नाजी लेबर यूनियन और अन्य संगठनों के कार्यकर्ता थे, सुबह 6 बजे सड़कों पर सक्रिय हो चुके थे और जनता को मतदान में जाने के लिए उकसा रहे थे. मतदान केंद्रों पर हिटलर की पुलिस, फ़ौज और गेस्टापो के दस्तों की गहरी नज़र प्रत्येक मतदाता को देख रही थी और दबाव बना रही थी कि जनता को क्या वोट करना है. इन परिस्थितियों की पड़ताल किए बिना कोई मतदान के मनोविज्ञान को कैसे अनदेखा कर सकता है? लेकिन यह सच है कि हिटलर उस जनमत संग्रह में 90 फ़ीसद वोट पाकर जनता द्वारा अनुमोदित हुआ था.
उक्त घटना के अध्ययन के बाद गुजरात में भाजपा-मोदी को पड़े मुस्लिम वोटों का मूल्यांकन करना ज़रूरी है. भारत में वोटों की गिनती के दौरान यह सब जानकारी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को होती है कि किस वार्ड में कितने मुस्लिम मतदाता हैं और चुनाव जीतने अथवा हारने वाले दल को किस जनसमूह से कितने वोट मिले. 2002 का जनसंहार भुगत चुकी मुस्लिम अवाम के इस भयग्रस्त मनोविज्ञान के चलते यदि कोई गुजरात के मुसलमानों को भाजपा का मतदाता बता रहा है, तो वह हिटलर-गोयबल्स के ही वक्तव्य को दोहरा रहा है, जब 1934 में उन्होंने प्रचार किया कि उनकी सरकार को यहूदियों का समर्थन प्राप्त है. भाजपा विरोधी वोट करके गुजरात का मुसलमान क्या फिर कोई नई आफत मोल लेगा? क्या यह वही जगह नहीं, जहां दंगों के बाद केंद्र सरकार की राहत राशि भी वितरित नहीं हुई? आज अहमदाबाद के बाम्बे होटल एरिया में दंगा पीड़ितों को खत्तों पर बसाने वाली मोदी सरकार से उन्हें किसी रहम की उम्मीद हो सकती है, जहां न बिजली है, न पानी, न चिकित्सा सुविधा और न शिक्षा. गुजरात के मुसलमानों को दंडित करने के मोदी छाप फासीवादी हथकंडे आज पूरे देश को न बताए जा रहे हैं, न दिखाए. हाल में बीबीसी के मधुकर उपाध्याय ने गुजरात के कथित विकास की तस्वीर विस्तार से बताई. उन्होंने मुस्लिम बस्तियों में जाकर उनका मन टटोलने की कोशिश की, लेकिन भय इस कदर व्याप्त है कि उन्हें सफलता नहीं मिली. जब वह एक मदरसे में पहुंचे, तो उन्हें धकिया कर बाहर कर दिया गया. मधुकर का तजुर्बा मेरे उपरोक्त आकलन का जीता-जागता सुबूत है.
सूचना क्रांति के इस दौर में गुजरात के मुसलमानों का दर्द पूरा देश देख रहा है. संघ-भाजपा की यह राजनीतिक महत्वाकांक्षा है कि गुजरात के प्रयोग को पूरे देश में लागू किया जाए, जिसके लिए उन्होंने विकास का नाम लेकर मोदी को अपना उम्मीदवार बनाया है, लेकिन ऐसा नहीं है कि 20 करोड़ की मुस्लिम आबादी इस जहर को आराम से निगल जाएगी. इतिहास गवाह है कि एक कट्टरपंथ दूसरे रंग के कट्टरपंथ को खाद-पानी देता है. यह ज़रूरी नहीं कि मुसलमान पूरे देश में किसी योजनाबद्ध तरीके से इस राजनीतिक चुनौती का जवाब देगा, लेकिन मोदी-तोगड़िया की वाणी औवेसी जैसी प्रतिध्वनि पैदा कर ही सकती है. हाल में राजस्थान में छह मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी इंडियन मुजाहिदीन के नाम पर की गई. पुलिस ने खुलासा किया कि वे मोदी पर हमला करने वाले थे. मुझे उनकी झूठी-सच्ची दलीलों पर यकीन नहीं होता, लेकिन मेरे लिए फ़िक्र इस बात की है कि उनमें से तीन युवक इंजीनियरिंग के छात्र हैं. वर्तमान स्थिति में अगर पढ़े-लिखे मुसलमानों ने धैर्य खोकर हथियार और आतंक का रास्ता अपना लिया, तो उसका ज़िम्मेदार भारत का राजनीतिक वातावरण होगा, जिसके दृश्य पटल पर आज मोदी का चेहरा लटका हुआ है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here