वैश्वीकरण और विदेशी निवेश
निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण ने हमारी अर्थव्यवस्था को मज़बूती दी है. वाणिज्य और व्यापार के तेज़ी से बढ़ने से व्यावसायिक विवादों के मामलों में भी बढ़ोतरी होने की संभावना है. जब तक इनसे तेज़ और असरदार तरीक़े से निपटने के लिए एक नए और प्रभावी तंत्र की व्यवस्था नहीं होती, तब तक यह हमारे विकास में रोड़ा बनता रहेगा.
भारत में आनेवाले विदेशी निवेशकों को यह भरोसा होना चाहिए कि भारतीय अदालतें उतनी ही तेज़ हैं, जितनी कि विश्व के विभिन्न विकसित देशों की अदालतें और अब यहां भी न्यायिक प्रक्रिया में लंबा समय नहीं लगता.
कई देशों ने अपने यहां न्यायिक फैसलों की प्रक्रिया में व्यावसायिक मामलों के लिए एक अलग शाखा बनाने का विचार अपनाया है. हालांकि उनमें थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात व्यावसायिक शाखा को अलग करने का विचार ही है.
व्यावसायिक अदालतें वर्तमान न्यायिक व्यवस्था से अलग नहीं है बल्कि उसी की एक नई शाखा हैं. ये वे न्यायालय हैं जहां आर्थिक महत्व वाले मामलों का निपटारा होगा और जहां उन अदालतों से बड़े पैमाने पर कार्रवाई करेंगे, जहां आम तौर पर ये मामले दर्ज़ होते हैं.
विभिन्न देशों में इस तरह के न्यायालयों में आर्थिक मामलों के जानकार जज नियुक्त होते हैं. इन न्यायालयों में मामले का निपटारा काफी तेज़ी से होता है. साथ ही इन न्यायालयों में सबसे ऊंचे स्तर की सुविधाएं मौजूद होती हैं.
अमेरिका और इंग्लैंड के न्यायालयों की अवधारणा :-
अमेरिका और इंग्लैंड के न्यायालयों में भारत में न्यायिक मामलों के निपटारे में देरी की धारणा है. इस वजह से इस व्यासायिक शाखा का गठन करना बहुत ज़रूरी है, ताकि यह व्यवसायिक शाखा उच्चस्तरीय आर्थिक मामलों का निपटारा फास्ट ट्रैक अदालतों की तर्ज़ पर सभी आधुनिक और ज़रूरी सुविधाओं के साथ करे. अगर एक बार ऐसा हो गया तो विदेशी अदालतों की भारतीय अदालतों में फैसले में होने वाली देरी की धारणा नहीं रहेगी.
भटनागर बनाम सुरेंद्र ओवरसीज लिमिटेड (1995)(52 एफ.2.डी. 1220) (थर्ड सर्किट), का मामला अपीलों के तीसरे सर्किट कोर्ट का है (इस मामले का उल्लेख अब अमेरिका में मामलों की सुनवाई के दौरान अक्सर किया जाता है). जज लेविस ने प्रो. मार्क गैलेंटर और शार्दूल श्रॉफ (एक भारतीय वकील) के शपथपत्र का हवाला दिया, जिसमें दोनों ने खेदपूर्वक यह बात कही थी कि भारतीय न्यायालयों की व्यवस्था ढहने के कगार पर है. जज लेविस ने उनके शपथपत्रों को स्वीकार किया और जिला कोर्ट के अमेरिका में ही सुनवाई के फैसले को सही ठहराया. उन्होंने कहा कि जिला कोर्ट ने यह पाया कि भारतीय न्याय व्यवस्था में काफी मामले लंबित पड़े हैं. अगर यह मुकदमा
भारत में दर्ज होगा तो इससे निपटने में 25 वर्ष भी लग सकते हैं.
भटनागर केस के संदर्भ में पाइपर एयरक्राफ्ट (1981 454 यूएस 235) का हवाला देते हुए कहा गया कि मामले के निपटारे में इस तरह की देरी अमेरिकी अदालतों में भी होती है और दो या ढाई वर्ष की देरी को समझा जा सकता है. जज लेविस ने कहा कि अगर उपचार इतनी देर से मिले कि वह किसी काम का न रहे तो वह उपचार नहीं है.
भटनागर मामले में, अमेरिका में भारतीय प्रतिवादी द्बारा दायर आवेदन (स्टे के लिए आवेदन दिया गया था) को ज़िला कोर्ट ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि अगर इस मामले को कोलकाता हाईकोर्ट स्थानांतरित कर दिया जाए तो इस मामले के निपटाने में 15 से 20 वर्ष लग सकते हैं और उसके बाद पांच वर्ष से अधिक अपील करने में लगेगा. थर्ड सर्किट कोर्ट ने भी इस राय की पुष्टि की.
यूनाइटेड किंगडम (यूके)की अदालतों में हाल में दिए गए कुछ महत्वपूर्ण फैसले, अमेरिकी कोर्ट द्बारा दिए गए़ फैसलों के जैसे ही हैं. इनमें भी भारतीय अदालतों की देरी के बारे में कहा गया है. यूरोपियन एशियन बैंक बनाम पंजाब एंड सिंध बैंक (1982) लायड्स रिप 356(सीए) के मामले में, कहा गया था कि साफ है कि इंग्लैंड की तुलना में न तो भारत और न ही सिंगापुर सुनवाई की कार्यवाही के लिए ठीक हैं. इस मामले में, वादी वेस्ट जर्मन बैंक ने इंग्लैंड में भारतीय बैंक के ब्रांच ऑफिस के खिलाफ एक क्रेडिट लेटर पर भुगतान के मामले में रिट याचिका भेजकर कार्रवाई की. प्रतिवादी द्बारा इस मामले में दायर स्टे आवेदन को खारिज़ कर दिया गया था और यह केस इस आधार पर यूके में चलता रहा था कि भारतीय अदालत में फैसले में देर लगती है. कुछ इसी तरह की राय विष्णु आभा (1990)(2)(लायड्स रिप. 312) के मामले में भी अपनाया गया था. विश्वास अजय (1986) (लायड्स रिप. 558) के मामले में भी यह मान लिया गया था कि भारत में मामले की सुनवाई शुरू होने में 10 साल का समय लग जाता है और यह न्याय नहीं है. प्रतिवादी के आवेदन को खारिज़ करते हुए यह मामला इंग्लैंड के न्यायालय में ही चला.
संविधान में प्रावधान
सूची तीन के 11-ए में प्रविष्टि-3 में दिए गए न्याय की व्यवस्था और सूची एक की प्रविष्टि-78 में दी गई हाईकोर्ट के संविधान और उसके संगठन की व्याख्या के संदर्भ में हाई कोर्ट में व्यावसायिक मामलों (जो एक करोड़ से अधिक के हों) की सुनवाई के लिए एक अलग शाखा की व्यवस्था संसद के द्वारा की जा सकती है या अलग से एक फास्ट ट्रैक व्यवस्था भी की जा सकती है. साथ ही जहां तक हाई कोर्ट एकल और बहुसदस्यीय खंडपीठ के सामने लंबित मामलों की बात है तो संसद यह व्यवस्था कर सकती है कि इन मामलों को व्यावसायिक शाखा द्वारा एक फास्ट ट्रैक अपील प्रक्रिया द्बारा निपटाया जाए. इसे हाई कोर्ट के नियमों के द्बारा या पूर्णन्यायालय के प्रस्ताव के द्बारा ही करना जरूरी नहीं है. अनुच्छेद 225 में दिए गए उपयुक्त विधेयन के मुताबिक क़ानून के विषयानुसार यह संसद के द्बारा किया जा सकता है. इसी तरह मुख्य न्यायाधीश की जजों को काम सौंपने की शक्तिको भी संसद के द्बारा बनाए गए क़ानून में वर्णित किया जा सकता है. कई बिंदुओं पर विचार के बाद, हमारे विचार से इसमें कोई शक़ नहीं है कि संसद उच्च न्यायालयों में अलग से एक व्यावसायिक शाखा के लिए प्रावधान कर सकती है.
व्यावसायिक अदालतों की स्थापना के तरीक़े
भारत में, हाईकोर्ट में विभाजनों का वर्गीकरण हाईकोर्ट के द्बारा बनाए गए नियमों के आधार पर ही होता है या फिर पूर्ण अदालतों के प्रस्तावों द्बारा होता है. हाईकोर्ट के विभिन्न जजों को न्यायिक कार्य सौंपने का अधिकार हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का है. मुख्य न्यायाधीश द्वारा तैयार की गई सूची के अनुसार विभिन्न तरह के मामलों को निपटाने और उसकी सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में जज या तो एकल पीठ या दो या उससे अधिक की संख्या में पैनल में बैठते हैं. हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के बंटवारे के हिसाब से कुछ जज रिट क्षेत्राधिकार, कुछ दीवानी क्षेत्राधिकार में, अन्य की आपराधिक क्षेत्राधिकार में और इसी तरह अलग-अलग क्षेत्रों के मामलों की सुनवाई करते हैं. हालांकि भारत में ब्रिटेन, अमेरिका और दूसरे देशों की तरह अलग से व्यावसायिक विभाजन नहीं होने के बाद भी, दिल्ली उच्च न्यायालय के नियमों के अनुसार अपील और फैसले के लिए इस तरह के मामलों का वर्गीकरण व्यावसायिक मामलों के तौर पर ही होता है. इस तरह का वर्गीकरण सभी उच्च न्यायालयों में नहीं है. इस तरह के व्यावसायिक मामलों का निपटारा अलग से करने की व्यवस्था सभी उच्च न्यायालयों में लागू होनी चाहिए. हालांकि अहम सवाल यह है कि क्या इस तरह के वैधानिक प्रावधानों के द्वारा हाईकोर्ट की व्यावसायिक शाखा का गठन कर हाईकोर्ट में ही एक करोड़ से अधिक महत्व वाले व्यावसायिक मामलों का निपटारा करने की व्यवस्था करने या इसी स्तर की अपीलों से क्या हम इस तरह की शाखा के गठन की या जजों को अलग तरह के न्यायिक कार्य सौंपने की हाईकोर्ट की या हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों में निहित शक्ति में हस्तक्षेप तो नहीं कर रहे.
भारत में व्यवसायिक न्यायालयों की स्थापना, क्यों और कैसे
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