परमाणु डील पर भारत और अमेरिका के बीच चल रहे रगबी खेल में भारत को एक बार फिर से मुंह की खानी पड़ी. भारत सरकार को इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) में ईरान के ख़िला़फ अपना वोट दर्ज़ कराना पड़ा. अमेरिका की पहली राजकीय यात्रा से लौटते व़क्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति बराक ओबामा प्रशासन की ओर से एक सा़फ हिदायत दी गई. यह हिदायत अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेम्स जोंस ने भारत सरकार को सुझाव के तौर पर दी. जोंस ने अपने सुझाव में कहा कि भारत को ईरान के परमाणु कार्यक्रम मामले में अपना रु़ख सा़फ करना चाहिए, क्योंकि ईरान पर भारत का दृष्टिकोण यह तय करेगा कि अप्रैल 2010 में राष्ट्रपति बराक ओबामा अपनी भारत यात्रा के दौरान परमाणु डील पर क्या सौगात परोसने वाले हैं.

यह पहला मौक़ा नहीं है, जबकि भारत ने ईरान के खिला़फ अपना वोट दिया हो. इससे पहले 2006 में भी अमेरिकी दबाव में आकर भारत को अपनी विदेश नीति से समझौता करना पड़ा था. नतीज़तन, ईरान के साथ भारत के रिश्तों में दरार पड़ी थी. यहां तक की 2006 के फैसले के बाद यूपीए सरकार को भारत के अंदर भी विपक्ष और वामपंथी पार्टियों का विरोध झेलना पड़ा था.

भारत सरकार का यह एक अहम फैसला है. जहां जोंस के ज़रिए अमेरिका ने सा़फ कर दिया कि भारत ईरान मामले पर न चुप बैठ सकता है और न ही कोई अलग राग अलाप सकता है. लिहाजा, उसे बराक ओबामा का वह संबोधन याद रखना चाहिए, जिसमें भारत को एक परमाणु देश कहा गया. ओबामा के इस बयान से भले ही भारतीय आधिकारिक खेमे में खुशी का माहौल बना और देश के अंतरराष्ट्रीय समीक्षकों को यह एक कूटनीतिक छलांग लगी, लेकिन मनमोहन सिंह के अमेरिका छोड़ने के पहले ही यह झटका लगा और ईरान मामले को मनमोहन सिंह के सामने रख दिया गया.
नतीज़तन भारत ने एक बार फिर दुनिया के पांच घोषित न्यूक्लियर मुल्कों के सुर में सुर मिलाते हुए ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अपनी आपत्ति दर्ज़ करा दी. इसके चलते भारत को ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे अपने पुराने दोस्तों का साथ भी गंवाना पड़ा और इतिहास में यह भी दर्ज़ कराना पड़ा कि भारत ऐतिहासिक गुट निरपेक्षता में विश्वास नहीं रखता. वहीं पाकिस्तान ने ईरान मामले में वोट देने की प्रक्रिया से खुद को अलग रखा. भारत का दूसरा पड़ोसी मुल्क अ़फग़ानिस्तान भी अमेरिका के दबाव को टाल गया और इस मामले से दूर ही रहा.
दरअसल, भारत को उम्मीद है कि इस वोट के बदले भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील को जल्द से जल्द क्रियान्वित किया जा सकेगा और भारत अमेरिका से यह भी समझौता कर सकेगा कि इस्तेमाल किए हुए न्यूक्लियर फ्यूल को वह दोबारा इस्तेमाल कर सके. हालांकि इस उम्मीद को अभी आधिकारिक तौर पर ज़ाहिर नहीं किया गया है. इसके अलावा एक और डर भारत को परेशान कर रहा था. अगर भारत ईरान मामले पर अपने रु़ख को इस तरह  सा़फ नहीं करता और मामले में वोट देने से बच जाता तो डील को कार्यान्वित करने का मामला अमेरिकी सीनेट में एक बार फिर  फंस जाने की आशंका व्यक्त की जा रही थी. इस बार इसे सीनेट की ताक़तवर यहूदी लॉबी का सामना करना पड़ता. यह लॉबी किसी भी सूरत में यह नहीं चाहती कि ईरान का साथ देने के बाद भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील को आगे बढ़ाया जाए.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस अमेरिकी दौरे से एक बात और सा़फ है. यह पहला मौका है कि किसी भारतीय प्रधानमंत्री का इतनी गर्मजोशी के साथ अमेरिका ने अपने यहां स्वागत किया है. इस स्वागत से भावविभोर प्रधानमंत्री अपनी खुशी को छुपाने में विफल हो रहे थे. इस खुश़फहमी में उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि इस स्वागत के महज़ एक हफ्ता पहले अपने चीन दौरे के दौरान ओबामा ने बीजिंग में सा़फ कहा था कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच चीनी मध्यस्थता की इच्छा रखते हैं.
ओबामा ने अमेरिका और भारत के बीच की इस बैठक को दुनिया के दो सबसे पुराने और बड़े लोकतंत्र के एक साथ होने का नाम दिया. लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि महज़ इतना कह देने भर से भारत का अपनी लोकतांत्रिक परंपरा से मुंह मोड़ लेना उचित है? क्या भारत का यह मान लेना उचित है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के सामने मायने नहीं रखता? क्या मनमोहन सिंह को इस दौरे के दौरान यह ध्यान रखना ज़रूरी नहीं लगा कि वह सौ करोड़ से भी ज़्यादा लोगों के प्रधानमंत्री हैं और उनकी मुलाक़ात एक ऐसे राष्ट्रपति से हो रही है, जो महज़ तीस करोड़ लोगों के हितों की रक्षा करता है. अगर विदेश नीति से फिर से हुए इस समझौते का खेल मनमोहन सरकार को फायदे का सौदा लगता है तो आंकड़ों के दूसरे खेल में मनमोहन सिंह बुरी तरह मात खा गए और इस शिकस्त का जवाब उनको देश के सौ करोड़ लोगों को देना होगा.

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