इंदिरा गांधी की हत्या के पच्चीस साल पूरे हुए, साथ ही दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में सिखों के क़त्लेआम के भी. 31 अक्टूबर 1984 की सुबह दिल्ली में सफदरजंग रोड स्थित प्रधानमंत्री निवास पर इंदिरा गांधी की सुरक्षा में लगे दो लोगों ने उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया था. लेकिन, उसके बाद दिल्ली में योजनाबद्ध तरी़के से सिखों का क़त्लेआम किया गया. पच्चीस सालों से कई आयोगों ने इसकी जांच की, लेकिन अब तक इंसा़फ हुआ हो, ऐसा लगता नहीं है. सिखों के नरसंहार के पच्चीस साल पूरे होने पर पत्रकार जरनैल सिंह की किताब कब कटेगी चौरासी, सिख कत्लेआम का सच प्रकाशित हुई है. पेंग्विन प्रकाशन से आई यह किताब एक साथ तीन भाषाओं में छपी है. अंग्रेजी और हिंदी के अलावा इसका प्रकाशन पंजाबी भाषा में भी हुआ है. जरनैल सिंह वही पत्रकार हैं, जिन्होंने इस वर्ष हुए आम चुनाव के पहले एक संवाददाता सम्मेलन में देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंका था. बाद में जरनैल ने अपने इस कृत्य पर अ़फसोस तो नहीं जताया था, लेकिन उन्होंने यह ज़रूर कहा था कि उन्हें इस कृत्य पर गर्व नहीं है.
1984 के सिख क़त्लेआम के पीड़ितों को समर्पित जरनैल की इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखी है. उन्होंने लिखा है, कब कटेगी चौरासी …एक चौंका देने वाली किताब है, जिसे पढ़ने के बाद हर भारतीय को शर्मसार हो जाना चाहिए.
यह दस्तावेज है दिल्ली और उत्तरी भारत के कई भागों में सिखों पर हुए नृशंस क़त्लेआम का, जो श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद हुआ. खुशवंत सिंह ने अपनी छोटी सी प्रस्तावना में इस किताब को उन लोगों के लिए एक बड़ा अभियोग क़रार दिया है, जिन्होंने इस क़त्लेआम की साज़िश रची और अपने कारिंदों के मा़र्फत इसे अंजाम दिया.
इस किताब की भूमिका में लेखक ने अपने पत्रकार बनने की कथा विस्तार से लिखी है. जब जरनैल पत्रकारिता के कोर्स में दाखिले के लिए इंटरव्यू देने पहुंचे तो यूएनआई के पत्रकार बी बी नागपाल ने उनसे पंजाब में उग्रवाद के बारे में सवाल पूछे. जरनैल के जवाब से नागपाल संतुष्ट हुए और उन्हें दाखिला मिल गया, लेकिन जरनैल के मन में यह सवाल मुंह बाए खड़ा था कि क्या किसी दूसरे प्रत्याशी से भी यही सवाल पूछा गया होगा. जरनैल के मन में इस सवाल का उठना जायज़ है, लेकिन सवाल तो खुशवंत सिंह से इस किताब की भूमिका लिखवाने पर मेरे मन में भी उठ रहे हैं. क्या जरनैल को खुशवंत सिंह से इतर कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया? यह एक मानसिकता है, जिसका कोई इलाज नहीं है. हम हर मुस्लिम सहयोगी को भाई लगाकर ही संबोधित करते हैं. इसमें सांप्रदायिकता ढूंढना ग़लत है.
जरनैल सिंह का कहना है कि यह किताब इसलिए लिखी गई कि उस व़क्त मीडिया ने सही तरी़के से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई. इस क़त्लेआम को जितनी कवरेज मिलनी चाहिए थी, उतनी मिली नहीं और पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरी़के से सामने नहीं आ पाया. जरनैल ने इस मामले में दूरदर्शन के संदिग्ध रवैये पर भी सवाल खड़े किए हैं. जरनैल ने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में जुटा था. पूरे समय इंदिरा गांधी के शव और उसके आसपास खून का बदला खून से लेंगे के लग रहे नारों को प्रसारित किया जा रहा था. अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे. हो सकता है कि उनकी आपत्ति जायज़ हो, लेकिन उस व़क्त जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में आलोक तोमर और अश्विन सरीन जैसे पत्रकारों ने जान की बाज़ी लगाकर रिपोर्टिंग की थी. फोटोग्राफर संदीप शंकर की दंगाइयों ने जमकर पिटाई की थी. जरनैल को मीडिया पर सवाल करने के पहले उस दौर के रविवार के अंक भी देखने चाहिए. उन दिनों दिल्ली से उदयन शर्मा और उत्तर प्रदेश से संतोष भारतीय की रिपोर्ट ने देश को हिलाकर रख दिया था. चंद लोगों की लिखी रिपोर्ट पर पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देने से जरनैल की हड़बड़ी दिखाई देती है.
इस किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों के दर्द का है, जिन्हें इस क़त्लेआम के 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला. दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गई. बेटे के सामने पिता का, पत्नी के सामने पति का, बहन के सामने भाई का क़त्ल कर दिया गया. किस तरह से एक शहर से एक पूरी कौम को खत्म करने की कोशिश की गई, किताब के पहले हिस्से में इस दर्द को जगह मिली है. दूसरे हिस्से में न्यायकर्ता और अन्यायकर्ता की चर्चा की गई है. इस हिस्से में जरनैल ने एच के एल भगत, सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर की भूमिका पर लिखा है. साथ ही उस दौर में पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इला़के के एसएचओ त्यागी के कारनामों को भी बयान किया है.
जरनैल ने मौन साधे रहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और गृहमंत्री नरसिम्हा राव पर भी उंगली उठाई है, लेकिन जरनैल की इस किताब में नया कुछ भी नहीं है. स़िर्फ आयोग की फाइलों से केस स्टडीज को निकालकर सामने रखा गया है. दरअसल इस क़त्लेआम पर इतनी हृदय विदारक घटनाएं और परिस्थितियां हैं कि पाठक उसे पढ़ते व़क्त भाषा और शैली को बिल्कुल ही भूल जाता है, लेकिन अगर चंद पल के लिए हम एक किताब के तौर पर इस पर विचार करें कि जिस तरह से जल्दबाजी में लोगों के दर्द को बयां किया गया है, वह पर्याप्त शोध की ज़रूरत को महसूस कराता है. इस विषय पर ही 2007 के अक्टूबर में रोली बुक्स से वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा और वकील एच एस फुल्का की किताब ह्वेन अ ट्री शूक डेल्ही आई थी, जो कि इस विषय पर लिखी गई एक बेहतरीन किताब है.
मनोज मिट्टा की किताब का फलक बहुत बड़ा है और उसमें जो दर्द है, उसमें जो घटनाएं और परिस्थितियां बयान की गई हैं, वे सचमुच दिल दहला देती हैं. शाहदरा स्टेशन पर एक नवविवाहिता के पति को मार देने वाली घटना दो साल पहले पढ़ी थी, लेकिन वह अब भी मेरे जेहन में है. मिट्टा और फुल्का की उक्तकिताब में न केवल क़त्लेआम के शिकार परिवार के दुखों की दास्तां है, बल्कि न्याय के लिए उनके संघर्ष को भी प्रमुखता से सामने रखकर पूरी व्यवस्था पर चोट की गई है. मुझे नहीं मालूम कि जरनैल ने वह किताब देखी थी या नहीं, लेकिन इतना ज़रूर तय है कि जरनैल ने बेहद हड़बड़ी में यह किताब लिखी है. काम पूरा करने की जल्दबाजी पूरी किताब में हर जगह दिखाई देती है. हो सकता है कि क़त्लेआम के पच्चीस साल पूरे होने पर किताब को बाज़ार में लाने की जल्दबाजी हो या फिर कोई और भी वजह हो सकती है. सच्चाई क्या है, इस रहस्य पर से पर्दा तो स़िर्फ लेखक ही उठा सकता है.