करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी मध्य प्रदेश में आदिवासी बैगा जनजाति अभी भी भुखमरी की शिकार है. एक अनुमान के अनुसार, सरकार की ओर से अब तक जितना अनुदान बैगा जनजाति के कल्याण कार्यों के लिए मिला है, यदि उसे बैगा परिवारों में बांट दिया जाता तो प्रत्येक परिवार को लगभग साढ़े सात लाख रुपये अपनी हालत सुधारने के लिए सीधे मिल सकते थे. सरकारी तंत्र ने बैगाओं के नाम पर केंद्र सरकार द्वारा आवंटित धनराशि पिछले डेढ़ दशक के दौरान जमकर लूटी.
आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए केंद्र और राज्य सरकारें सामान्य बजट से हर साल करोड़ों रुपये खर्च करती हैं. इसके अलावा बैगा विकास प्राधिकरण को केंद्र ने करोड़ों रुपये की सहायता अलग से दी है, लेकिन इसके बावजूद बैगाचक का न तो कोई विकास हुआ है और न ही बैगाओं की हालत में कोई सुधार दिखाई देता है. आजादी के बाद से वर्ष 2002 तक केंद्र एवं राज्य सरकार के आदिवासी बजट और बैगा विकास प्राधिकरण के लिए प्राप्त केंद्रीय सहायता की कुल धनराशि 95 अरब 93 करोड़ रुपये थी. यह पूरा धन बैगाचक के विकास और बैगाओं के सामाजिक- आर्थिक कल्याण के लिए खर्च बताया जाता है, लेकिन बैगाचक और बैगाओं की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ.
मध्य प्रदेश के पांच ज़िलों में बैगा प्राधिकरण कार्यरत हैं. मंडला प्राधिकरण में 249 गांव हैं, जिनमें 23509 बैगा निवास करते हैं. डिंडौरी ज़िले में 217 गांवों में 21239, शहडोल ज़िले में 238 गांवों में 35120, उमरिया ज़िले के 248 गांवों में 37600 और बालाघाट ज़िले में 191 गांवों में 13957 बैगा निवास करते हैं. इस प्रकार मध्य प्रदेश में कुल 1,31,425 बैगा हैं. लगभग डेढ़ लाख बैगा छत्तीसगढ़ के विभिन्न ज़िलों में रहते हैं. सरकार ने इन बैगाओं के उत्थान और विकास के लिए जो धन सीधे खर्च होना बताया है, यदि उसे सीधे बैगाओं में बांट दिया जाता तो हर परिवार के हिस्से में 7.30 लाख रुपये आते. लेकिन सरकार के इरादे चाहे जितने पवित्र क्यों न हों, सरकारी तंत्र ने जिस प्रकार काम किया, उससे बैगाओं के कल्याण और विकास का करोड़ों रुपया भ्रष्टाचार के हवन में स्वाहा हो गया.
चौथी दुनिया ने मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बैगाओं की स्थिति का जायज़ा लिया. बालाघाट ज़िले के हर्राटोला, गुदमा, कुमादेही और महुरदा गांव में तो बैगा जनजाति भगवान भरोसे ही रहती है. सरकार की ओर से इन गांवों में बुनियादी नागरिक सुविधाएं नहीं हैं. पास ही विद्युत लाइन और खंभे हैं, लेकिन गांव में बिजली का एक भी कनेक्शन नहीं है. सरकार ने ग्रामीण रोज़गार गारंटी समेत कई योजनाएं चला रखी हैं, लेकिन इन गांवों में बैगाओं को आज भी मध्ययुगीन अर्थ व्यवस्था पर निर्भर रहना पड़ता है.
यहां के बैगा वनोपजों के संग्रह और मोटे अनाज एवं साग-सब्जी की खेती के ज़रिए अपना पेट पालते हैं. कभीकभार वन विभाग में बैगाओं को कुछ दिनों की दैनिक मज़दूरी मिल जाती है तो वे स्वयं को धन्य समझने लगते हैं. मंडला ज़िले में आदिवासी उपयोजना के तहत बैगाओं के लिए कई योजनाओं एवं कार्यक्रमों को लागू किया गया है, लेकिन नौकरशाही की सुस्ती और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण उक्त योजनाओं का लाभ बैगाओं को नहीं मिल पाता है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के किसी भी सरकारी कार्यक्रम से बैगाओं को कोई फायदा नहीं हो पाता. धनगांव की 70 वर्षीय वृद्धा बस्तो बैगा बताती हैं कि सुपात्र होते हुए भी उन्हें वृद्वावस्था पेंशन योजना का लाभ नहीं मिल रहा है, क्योंकि पेंशन के लिए ज़रूरी काग़जात तैयार करने और पेंशन मंजूर करने के लिए सरकारी कर्मचारी उनसे रिश्वत मांगते हैं. ग़रीबी के कारण वह रिश्वत नहीं दे सकती हैं, इसलिए भीख मांगकर अपना पेट पाल रही हैं. कलिराम बैगा का कहना है कि सरकार ने ग्रामीण मज़दूरों के दुर्घटनाग्रस्त होने पर बीमा और मुआवज़े की योजना लागू की है, लेकिन एक दुर्घटना में एक आंख पूरी तरह खो देने के बाद भी उन्हें इस योजना का कोई लाभ नहीं मिला है, क्योंकि सरकारी कर्मचारी उनकी मदद नहीं कर रहे हैं.
सरकार की जनश्री बीमा योजना के तहत जन्म लेते ही प्रत्येक बैगा का 50 से 75 हज़ार रुपये का बीमा हो जाता है, लेकिन इस योजना का लाभ किसे मिल रहा है, यह तो सरकारी कर्मचारी ही बेहतर जानते हैं. दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना और ग़रीबों की मुफ्त चिकित्सा के सरकारी कार्यक्रम का जमकर प्रचार-प्रसार हुआ, लेकिन कोयलीबाई बैगा बताती हैं कि पिछले कुछ महीनों से पेट में ट्यूमर के कारण वह ज़िंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रही हैं, पर सरकारी अस्पताल में उनका ठीक से इलाज नहीं हो रहा है. डॉक्टर ऑपरेशन के लिए पैसे मांगते हैं. पैसा न मिलने पर वे जबलपुर जाकर प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराने की सलाह देते हैं. दूसरी ओर सरकार के बैगा विकास प्राधिकरण और आदिम जनजाति कल्याण विभाग की विभिन्न सेवाओं में लगे अधिकारियों और कर्मचारियों की माली हालत देखकर लगता है कि बैगाओं का तो नहीं, लेकिन उनका ज़रूर कल्याण और विकास हुआ है. यह एक जांच का विषय है.