मैं यह नहीं कहता कि लोन राइट-ऑफ करना सही है या गलत. मैं केवल भौंडे कार्यप्रणाली की बात कर रहा हूं. सरकार संसद और संसद से बाहर, एक ही तथ्य के अलग-अलग आंक़डे नहीं पेश कर सकती है. लोकतंत्र ऐसे नहीं चलता है. संसद में काम न होना दुखद है. बेशक भाजपा के अपने हथकंडे हैं. उनकी तरफ से यह घोषणा हुई कि एनडीए के सांसद 22 दिन का वेतन नहीं लेंगे. अब सवाल यह उठता है कि क्या इससे समस्या का समाधान हो जाएगा? क्या देश का बजट इस पर निर्भर करता है कि 700 सांसद अपना वेतन लेते हैं या नहीं? सरकार अपने आप को बेवकूफ बना रही है. इस तरह की चीज़ों का जनता पर कोई प्रभाव नहीं प़डता. एक पूंजीपति सरकार के एक बैंक से 11 हजार करो़ड रुपए लेकर देश से बाहर चला जाता है और यहां यह जताने की कोशिश की जा रही है कि एनडीए के सांसद कुछ करो़ड रुपए नहीं लेंगे.


हंगामे के बीच वित्त विधेयक पारित करने और राज्यसभा के नए सदस्यों के शपथ के अलावा संसद के इस सत्र में कोई काम नहीं हुआ. 2014 में जब ये सरकार आई, तब से संसद का काम ठीक से नहीं चल रहा है. दरअसल, संसद एक द्विपक्षीय व्यवस्था है. एक कहावत है- ‘विपक्ष अपनी बात कहता है, सरकार अपना काम करती है.’ लेकिन यहां सरकार, विपक्ष को सुनना ही नहीं चाहती है, क्योंकि विपक्ष मुश्किल सवाल पूछ रहा है. संसद की अनदेखी कर सरकार जनता के बीच अपनी साख तो बचा सकती है, लेकिन ये लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. संसदीय व्यवस्था में लिखित प्रश्न का जवाब लिखित में दिए जाने का प्रावधान है. हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के सांसद ने एक सवाल पूछा कि 2014 के बाद बैंकों का कितना लोन राइट-ऑफ  (जो कर्ज वसूलना असंभव हो गया हो) किया गया है. वित्त राज्य मंत्री ने जवाब दिया कि अप्रैल 2014 से सितंबर 2017 के बीच 2 लाख 41 हजार करो़ड रुपए का लोन राइट-ऑफ किया गया है. जाहिर है, इसके लिए सरकार प्रक्रिया और नियमों का हवाला देगी, लेकिन सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह हर सार्वजनिक मंच से कहते रहे हैं कि हमने कॉरपोरेट सेक्टर का कोई लोन माफ नहीं किया है. चूंकि संसद में सरकार झूठ नहीं बोल सकती, इसलिए यह तथ्य सामने आ गया.

मैं यह नहीं कहता कि लोन राइट-ऑफ करना सही है या गलत. मैं केवल भौंडे कार्यप्रणाली की बात कर रहा हूं. सरकार संसद और संसद से बाहर, एक ही तथ्य के अलग-अलग आंक़डे नहीं पेश कर सकती है. लोकतंत्र ऐसे नहीं चलता है. संसद में काम न होना दुखद है. बेशक भाजपा के अपने हथकंडे हैं. उनकी तरफ से यह घोषणा हुई कि एनडीए के सांसद 22 दिन का वेतन नहीं लेंगे. अब सवाल यह उठता है कि क्या इससे समस्या का समाधान हो जाएगा? क्या देश का बजट इस पर निर्भर करता है कि 700 सांसद अपना वेतन लेते हैं या नहीं? सरकार अपने आप को बेवकूफ बना रही है. इस तरह की चीज़ों का जनता पर कोई प्रभाव नहीं प़डता. एक पूंजीपति सरकार के एक बैंक से 11 हजार करो़ड रुपए लेकर देश से बाहर चला जाता है और यहां यह जताने की कोशिश की जा रही है कि एनडीए के सांसद कुछ करो़ड रुपए नहीं लेंगे. यदि सरकार 2 लाख 41 हज़ार रुपए का लोन राइट ऑफ कर सकती है, तो फिर किसी को केवल 11 हज़ार करो़ड के लिए विदेश भागने पर कैसे मजबूर कर सकती है? ऐसे लोगों के साथ भी बैठ कर लोन का सेटलमेंट किया जा सकता है. मेरी जानकारी में ये पहली सरकार है, जो मनमाने तरीके से किसी को पक़डती है या छो़डती है. सरकार के पास कोई एक समान मानदंड नहीं है.

आपातकाल में भी प्रेस और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के अलावा किसी और चीज से छे़डछा़ड नहीं की गई थी. मौजूदा सरकार अपने कार्यकाल के अंत तक समाज के हर तबके में नाराजगी पैदा कर देगी. प्रेस हालांकि सेंसर्ड नहीं है, फिर भी पैसे से और भय से उसे प्रभावित किया जा रहा है. संपादक और पत्रकार निराश हैं. मैं बनाना रिपब्लिक की सही परिभाषा नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि शायद बनाना रिपब्लिक ऐसी ही स्थिति को कहते हैं. लोगों से कुछ कहा जा रहा है, हो कुछ और रहा है. इन सबके बीच सच्चाई का पता नहीं. क्या ये सरकार आने वाली सरकारों के लिए कोई नया मानक तैयार कर रही है? पहले भी मैंने सेनााध्यक्ष के बारे में कहा था कि वे हर मामले में ऐसे बोलते हैं, मानो सरकार के मंत्री हों. यह अच्छा संकेत नहीं है. आने वाली सरकारों के लिए काम करना मुश्किल हो जाएगा. जाहिर है, कोई सक्षम प्रधानमंत्री होता तो इन स्थितियों को एक हफ्ते में ठीक कर सकता था.

अब सरकार और न्यायपालिका के बीच के नाजुक सम्बन्ध की बात करते हैं. सुप्रीम कोर्ट के चार जज पहले ही बता चुके हैं कि मुख्य न्यायाधीश कैसे काम कर रहे हैं. कांग्रेस मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाना चाहती है. हालांकि यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता, क्योंकि कांग्रेस के पास पर्याप्त संख्या नहीं है. लेकिन सरकार का कहना है कि कांग्रेस अयोध्या पर आने वाले फैसले को टलवाना चाहती है. इसका मतलब है कि सरकार को पहले से मालूम है कि अयोध्या का फैसला क्या आने वाला है. यह बात साफ हो जानी चाहिए कि कोई भी जज यह फैसला नहीं दे सकता कि वहां मंदिर बनेगा या मस्जिद. देश के हिन्दू और मुसलमान आपस में बैठ कर फैसला करेंगे कि दोनों पक्षों के लिए शांतिपूर्ण समाधान क्या है. अदालती फैसले से केवल अशांति फैलेगी, जैसा कि पिछले दिनों एससी/एसटी एक्ट के मामले में देखने को मिला. उस फैसले में केवल गिरफ्तारी की अनिवार्यता समाप्त की गई थी. उस पर ऐसी प्रतिक्रिया हुई, जैसे आरक्षण ही खत्म कर दिया गया हो. कहने का अर्थ यह है कि न्यायपालिका सामाजिक बदलाव का नहीं, बल्कि यथास्थिति बनाए रखने का ज़रिया है. यदि कार्यपालिका अपनी सीमा लांघती है, तो न्यायपालिका आम नगरिकों को राहत देने के लिए सामने आती है. यदि सरकार अदालत के ज़रिए सामाजिक बदलाव लाना चाहती है तो वो खुद को अयोग्य साबित कर रही है. सरकार को सामाजिक बदलाव लाने के लिए भी चुना जाता है. यदि वो यह काम नहीं करना चाहती, तो उसे इस्तीफा दे देना चाहिए. यह काम कोई और करेगा. मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने के कांग्रेस के फैसले पर सरकार के रुख से संकेत मिलता है कि मुख्य न्यायाधीश यह फैसला दें कि अयोध्या में मंदिर बने. क्या आपको लगता है कि तब समाज में उस तरह की प्रतिक्रिया नहीं होगी, जैसी प्रतिक्रिया अभी एससी/एसटी एक्ट मामले में देखने को मिली है.

‘विपक्ष अपनी बात कहता है, सरकार अपना काम करती है.’ लेकिन यहां सरकार, विपक्ष को सुनना ही नहीं चाहती है, क्योंकि विपक्ष मुश्किल सवाल पूछ रहा है. संसद की अनदेखी कर सरकार जनता के बीच अपनी साख तो बचा सकती है, लेकिन ये लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. संसदीय व्यवस्था में लिखित प्रश्न का जवाब लिखित में दिए जाने का प्रावधान है. हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के सांसद ने एक सवाल पूछा कि 2014 के बाद बैंकों का कितना लोन राइट ऑफ  (जो कर्ज वसूलना असंभव हो गया हो) किया गया है.

भारत विविधताओं का देश है. हिन्दुत्व की राजनीति के पुरोधा मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. मुसलमानों के खिलाफ कौन है? केवल 18 फीसदी हिन्दू भाजपा और आरएसएस के हिन्दुत्व के विचार से सहमत हैं. यदि आरएसएस और वीएचपी की चलती तो यह देश टूट चुका होता. देश के टुक़डे करने जैसे नारे लगाने का आरोप जेएनयू के छात्रों पर लगाया गया, लेकिन देश के टुक़डे करने का काम आरएसएस और वीएचपी जैसे संगठन कर रहे हैैं.

कश्मीर पर इनके रुख ने कश्मीर को खतरे में डाल दिया है. आज कश्मीर की जो हालत है, इतनी खराब कभी नहीं थी. इनके गठबंधन की सहयोगी महबूबा मुफ्ती सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान से बातचीत करने की गुहार लगा रही हैं और भाजपा के मंत्री इसका विरोध कर रहे हैं. जम्मू ने भाजपा को इस उम्मीद में भारी बहुमत से जिताया कि भाजपा, कांग्रेस से कुछ अलग करेगी, लेकिन नतीजा सिफर रहा. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कश्मीर के प्रभारी राम माधव हैं. मुख्यमंत्री से कश्मीर समस्या के समाधान की उम्मीद रखना गलत है. इस समस्या का समाधान केंद्र सरकार कर सकती है. केंद्र सरकार को पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए. लेकिन ऐसा 4 साल में कभी नहीं हुआ. कुल मिला कर कहा जाए, तो इस सरकार ने चुनाव के दौरान जो वादे किए वो पूरे नहीं हुए. बेरोजगारी और गरीबी दूर करने के लिए इस सरकार को जो काम करना चाहिए था, उस दिशा में कुछ नहीं किया गया. इसकी जगह गाय की सुरक्षा और बीफ खाने की आशंका में किसी व्यक्ति की हत्या करने जैसे काम हुए. 4 साल में देश का माहौल खराब हुआ है. इसके लिए भाजपा और आरएसएस को कीमत चुकानी प़डेगी. बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में भाजपा की हार  यह साबित करती है कि सरकार जनता का भरोसा खोती जा रही है. सरकार के पास समय नहीं है. आचार संहिता आदि का समय निकाल दिया जाए, तो चुनाव में सिर्फ दस महीने बचे हैं. भाजपा को जीत और हार भुलाकर लोगों के जख्मों को भरना चाहिए. सिर्फचुनाव जीतने के लिए देश के सामाजिक तानेबाने को नष्ट नहीं करना चाहिए. हो सकता है कि भाजपा फिर जीत जाए. ऐसी स्थिति में इन्हें अपने लिए मुश्किलें पैदा नहीं करनी चाहिए. मान लिया जाए कि 2019 में भाजपा को बहुमत नहीं मिला, तो 2024 में बहुमत मिल सकता है. देश तो हमेशा रहेगा. सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन कोई ऐसा काम मत कीजिए जिससे देश को नुकसान हो. भारत को दंगों और प्रदर्शनों का देश मत बनाईए. अभी प्रधानमंत्री ने कहा कि सारे राजनीतिक दल अम्बेडकर के नाम पर राजनीति करते हैं, सिर्फ भाजपा ने उन्हें सर्वाधिक सम्मान दिया है. क्या यह राजनीतिक उद्देश्य के लिए दिया गया बयान नहीं है? यह हास्यास्पद बयान है. जितनी जल्दी प्रधानमंत्री सही सलाह लेकर काम करें, उतना ही देश के लिए बेहतर होगा.

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