rtr2cdvcदेश के बच्चों को गुणात्मक शिक्षा दिलाने के लिए केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति बनाने के साथ ही उसे पूरे देश में लागू करने की तैयारी में है. नई शिक्षा नीति में भारत सरकार को भी अमेरिका, हांगकांग, न्यूज़ीलैंड, कोलंबिया, यूके, नीदरलैंड, चिली, आयरलैंड तथा स्वीडन जैसे देशों में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) के अंतर्गत चल रहे ‘स्कूल वाउचर’ की सुविधा लागू करनी चाहिए, ताकि शिक्षा में पारदर्शिता बनी रहे और गरीब अभिभावकों को भी अपने बच्चों को मनपसंद स्कूल में पढ़ाने का अधिकार मिल सके. इस ‘स्कूल वाउचर व्यवस्था’ के माध्यम से देश के सभी दुर्बल वर्ग एवं वंचित समूह के प्रत्येक बच्चे तक क्वालिटी एजुकेशन को आसानी से पहुंचाया जा सकता है.

स्कूल वाउचर के माध्यम से सभी दुर्बल वर्ग एवं वंचित समूह के बच्चों को एक निश्चित धनराशि का वाउचर उनकी फीस की प्रतिपूर्ति के लिए दिया जाता है. इस वाउचर को बच्चे अपने फीस के रूप में अपने स्कूल में प्रतिमाह जमा करा देते हैं. स्कूल इन सभी वाउचरों को किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक, जिसे सरकार ने भुगतान हेतु अधिकृत किया होगा, में प्रस्तुत कर वाउचर के बराबर की धनराशि प्राप्त कर सकते हैं. स्कूल वाउचर मिलने से प्रत्येक दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के बच्चों के अभिभावकों के ऊपर यह नैतिक दबाव होगा कि वे अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए स्कूल जरूर भेजें. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में चलने वाले निजी स्कूल अपने यहां पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों से प्रतिमाह 100 से 200 रुपये फीस ले रहे हैं, जबकि दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के बच्चों की फीस के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार प्रतिमाह 450 रुपये दे रही है. स्कूल वाउचर व्यवस्था शुरू होने पर जिस क्षेत्र में निजी स्कूल नहीं हैं, वहां भी निजी स्कूलों का खुलना शुरू हो जाएगा.

संविधान ने 6 से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को मौलिक अधिकार के रूप में निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को दी है. लेकिन सरकारी स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता बेहतर नहीं होने के कारण अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल (जहां निःशुल्क शिक्षा के साथ ही सरकार उन्हें दोपहर का खाना, किताबें, कॉपियां और बैग तक मुफ्त दे रही है) में भेजना नहीं चाहते. इसके हल के रूप में शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 12(1)(ग) के तहत सरकार ने निजी असहायतित स्कूलों में दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के बच्चों के लिए केवल 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर अपना दायित्व पूरा कर लिया. इस व्यवस्था के तहत भी सरकार देशभर के 24 प्रतिशत दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के बच्चों में से केवल 4 प्रतिशत बच्चों को ही निजी असहायतित स्कूलों में पढ़ाने की व्यवस्था कर सकी. शेष 20 प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा?

राष्ट्रीय अपव्यय से संबंधित आंकड़ा (2014-2015) बताता है देश के 50 या 50 से कम संख्या वाले 3,72,163 सरकारी स्कूलों के 8,38,385 शिक्षकों के वेतन पर सरकार ने 41,630 करोड़ रुपये खर्च किए. एक ओर इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले प्रत्येक बच्चे पर प्रति वर्ष 24,979 रुपए खर्च किया जा रहा है तो दूसरी तरफ सरकार निजी स्कूलों को भी दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के 25 प्रतिशत छात्रों की पढ़ाई की प्रतिपूर्ति के लिए भारी धनराशि दे रही है. इस तरह बच्चों की शिक्षा पर राज्य सरकारें इस देश के आयकरदाताओं की एक बहुत बड़ी धनराशि खर्च कर अपने राजकोष का दुरुपयोग कर रही है.

वर्तमान में भारत सरकार के साथ ही प्रदेश सरकारें भी अपने छात्र-छात्राओं को पहले से ही फीस की प्रतिपूर्ति तथा स्कॉलरशिप की धनराशि ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर’ (डीबीटी) के जरिए उनके खाते में भेज रही हैं. इसके साथ ही गैस सब्सिडी, खाद सब्सिडी, केरोसिन पर सब्सिडी आदि योजनाओं को भी सरकार डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के माध्यम से ही संचालित कर रही है, ताकि पारदर्शी तरीके से सीधे नागरिकों तक योजना का लाभ पहुंच सके. इसी तरह शिक्षा के लिए भी डीबीटी व्यवस्था के जरिए स्कूल वाउचर की व्यवस्था ‘नई शिक्षा नीति’ में शामिल होनी चाहिए.

 

शिक्षा के लिए तरसती जमात की आंखें अदालत पर टिकीं : संदीप पांडेय

वर्ष 1968 में कोठारी आयोग ने भारत में समान शिक्षा प्रणाली और पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा लागू करने की सिफारिश की थी. आज 48 वर्षों बाद देश में दो किस्म की व्यवस्था है. पैसे वाले अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेजते हैं जहां से पढ़कर बच्चा अपनी रोजी रोटी कमाने लायक हो जाता है. लेकिन देश की आम गरीब जनता अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकती, उसके बच्चे सरकारी विद्यालय में अपना जीवन नष्ट करने के लिए अभिशप्त हैं.

1991 में जब से नई आर्थिक नीति लागू हुई तब से शिक्षा में निजीकरण की प्रक्रिया काफी तेज हो गई. शिक्षा सिर्फ ज्ञान अर्जन का कार्यक्रम नहीं रह गया बल्कि पूरी तरह से व्यवसाय बन गया. अन्य क्षेत्रों की तरह विद्यालय भी कॉरपोरेट शैली में काम करने लगे. हाल में गाजियाबाद में डीएस पब्लिक स्कूल की छात्रा प्रियांशी सिंह ने जिस तरह तीन माह का शुल्क न दिए जाने के कारण स्कूल द्वारा उसके पिता को अपमानित किए जाने पर आत्महत्या कर ली थी, उससे ऐसा लगता है कि बच्चे की पढ़ाई की फीस नहीं दे पाने वाला अभिभावक अपराधी है और उससे जबरदस्ती वसूली कराया जाना उचित है.

शिक्षा का अधिकार अधिनियम को तहत 25 प्रतिशत गरीब परिवारों के बच्चों को निजी विद्यालयों में दाखिले की मंजूरी मिली. जबकि देश में गरीबी का प्रतिशत 75 है. निजी विद्यालयों का प्रतिशत 25 से बहुत कम है, लिहाजा गरीबों की बड़ी तादाद इस प्रावधान के बावजूद प्रस्तावित लाभ से वंचित रह गई. बहरहाल, इस व्यवस्था को कई प्रतिष्ठित या महंगे विद्यालय नहीं मानते. वे नहीं चाहते कि उनके यहां गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ें. कानूनी अधिकार बन जाने से अब विद्यालयों के लिए मुश्किल हो गया है कि वे दाखिले के आदेश के बाद प्रवेश से मना कर दें. लखनऊ के प्रतिष्ठित विद्यालय सिटी मांटेसरी ने पिछले वर्ष 31 बच्चे, जिनमें 23 वाल्मीकि परिवारों के थे तथा शेष 6 अन्य पिछड़ा वर्ग सहित 8 मुस्लिम परिवारों के, तो विद्यालय दाखिले से इंकार करते हुए न्यायालय चला गया. अंत में उच्च न्यायालय ने उन 13 वाल्मीकि परिवारों के बच्चों के दाखिले का आदेश दिया जो विद्यालय से एक किलोमीटर की दूरी के अंदर रह रहे थे, क्योंकि इस प्रावधान में विद्यालय के पड़ोस में रहने वाले बच्चे ही इसका लाभ प्राप्त कर सकते हैं. इस वर्ष फिर जब यह विद्यालय सर्वोच्च न्यायालय जाकर यह कहने लगा कि इन बच्चों को उनके घर के पास अन्य विद्यालयों में दाखिला दिला दिया जाए और अन्य विद्यालयों से इस बात का शपथ पत्र भी दाखिल करा दिया कि वे इन 13 बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार हैं तो न्यायालय ने विद्यालय को फटकार लगाते हुए कहा कि बच्चे कोई फुटबॉल नहीं हैं कि उन्हें इधर से उधर किया जाए. इस वर्ष भी यह विद्यालय 58 बच्चों जिनके दाखिले का आदेश बेसिक शिक्षा अधिकारी ने किया है, को नामांकन देने को तैयार नहीं. विद्यालय के सामने अभिभावक प्रदर्शन कर चुके हैं, थाने में शिकायत कर चुके हैं एवं जिलाधिकारी ने विद्यालय को उसकी मान्यता रद्द करने की चेतावनी दे दी है.

विडंबना यह है कि 18 अगस्त, 2015 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने यह फैसला दिया था कि सरकारी वेतन पाने वालों के बच्चे अनिवार्य रूप से अपने बच्चों को सरकारी विद्यालय में ही पढ़ाएं. लेकिन अदालत के इस फैसले पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. अदालत की सोच यह थी कि जब अधिकारियों, जन प्रतिनिधियों व न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ेंगे तो उनकी गुणवत्ता सुधरेगी और तभी भारत के आम इंसान के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम का लाभ मिल पाएगा. किंतु उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के फैसले को लागू नहीं किया. जब रायबरेली के एक अभिभावक ने सरकार के खिलाफ अवमानना का मुकदमा किया तो 8 अगस्त, 2016 को उच्च न्यायालय ने फैसले के वक्त मुख्य सचिव रहे आलोक रंजन को नोटिस भेजी है एवं वर्तमान मुख्य सचिव दीपक सिंघल को दो माह का समय दिया है ताकि वे फैसले को लागू करा सकें.

‘स्कूल वाउचर’ व्यवस्था के लाभ

  1. ‘स्कूल वाउचर’ गरीब छात्रों को सशक्त करता है कि वे अपनी पसंद के स्कूल में जाकर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकें. अगर बच्चों एवं उनके अभिभावकों की उम्मीद पर वह स्कूल खरा नहीं उतरता है तो अभिभावक अपने बच्चे को उस स्कूल से निकालकर किसी अन्य स्कूल में प्रवेश दिला सकते हैं.
  2. ‘स्कूल वाउचर’ व्यवस्था प्रत्येक दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के बच्चों को समानता का अवसर प्रदान करता है.
  3. बच्चों के अभिभावकों को सीधे ‘स्कूल वाउचर’ मिलने से उनके अंदर आत्मसम्मान की वृद्धि होगी कि उनके बच्चे स्कूल को फीस देकर पढ़ाई कर रहे हैं न कि किसी की दया के पात्र बनकर. इससे बच्चों के अंदर भी हीन भावना नहीं आएगी.
  1. ‘स्कूल वाउचर’ द्वारा मिलने वाली एक निश्चित धनराशि की आय को ध्यान में रखते हुए सभी स्कूलों के बीच अधिक से अधिक बच्चों का प्रवेश अपने यहां लेने के लिए प्रतिस्पर्धा होगी जिसका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से फायदा बच्चों को ही मिलेगा.
  2. स्कूल प्रबंधक ‘स्कूल वाउचर’ से मिलने वाली धनराशि को प्राप्त करने के लिए अपने स्कूल द्वारा बच्चों को दी जाने वाली गुणवत्ता को हमेशा बढ़ाने का प्रयास करते रहेंगे.
  3. एक निश्चित आय की गारंटी मिलने की दशा में देश के पिछड़े इलाके में निजी स्कूलों को खोलने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे एक ओर जहां युवाओं को नए रोजगार का अवसर मिलेगा तो वहीं उस क्षेत्र के दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के सभी बच्चों को इन नए निजी असहायतित स्कूलों के माध्यम से गुणात्मक शिक्षा भी मिल सकेगी.
  4. ‘स्कूल वाउचर’ मिलने से बच्चों के अभिभावक भी निजी स्कूलों की गुणवत्ता पर अपनी नजर रखेंगे जिसके परिणामस्वरूप उस स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठ शिक्षा देने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. इससे स्कूलों एवं शिक्षकों की जवाबदेही भी बढ़ेगी क्योंकि अच्छी गुणात्मक शिक्षा न मिलने पर अभिभावक अपने बच्चों को उस स्कूल से निकाल लेंगे.
  5. सरकारी स्कूलों से निकलकर निजी स्कूलों में बच्चों के प्रवेश लेने से सरकारी स्कूल के शिक्षकों पर यह नैतिक जिम्मेदारी बनेगी कि वे इसके लिए विचार करें कि आखिर सरकारी स्कूलों के बच्चे निजी स्कूलों में क्यों जा रहे हैं? इससे वे सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए भी प्रयास करेंगे.
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