अंतिम रूप से यह मान लेना चाहिए कि विचारधारा का दौर देश की राजनीति से ख़त्म हो चुका है और सत्ता में पहुंचने का कोई भी, कैसा भी, जैसे भी हो, रास्ता तलाशना ही अब एक नया सिद्धांत बन गया है. महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, दीन दयाल उपाध्याय और इसके आगे अगर कोई नाम लें, तो हम गुरु गोलवरकर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को भी इसमें शामिल कर सकते हैं. ये सारे लोग आज की राजनीति में अप्रासंगिक हो चुके हैं. इसीलिए इस निष्कर्ष पर पहुंच जाना चाहिए कि देश से विचारधारा के युग की पूर्णत: विदाई हो चुकी है.
शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी एक राय की हैं, चाहे वह राय हिंदुुत्व की हो, चाहे वह राय मुसलमानों को लेकर हो, चाहे वह राय विकास के तरीके को लेकर हो. ये दोनों वैचारिक रूप से इसीलिए साथ आई थीं कि एक अलग तरह की राजनीति करेंगे. पर इन दोनों में टूट विचारधारा को लेकर नहीं हुई, बल्कि सत्ता पर कौन काबिज होगा और किसे सत्ता से हटाकर पूर्णत: अपने दल को सत्ता पर काबिज कराया जा सकता है, मुख्य कारण अलग होने का यही रहा. दूसरी तरफ़ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के सिद्धांत लगभग एक थे, जिसकी वजह से ये साथ आए. इन सिद्धांतों में धर्मनिरपेक्षता थी, ग़रीबों को विकास की दौड़ में शामिल करना था और इन सिद्धांतों में कहीं न कहीं किसान थे, भले ही वे बड़े किसान रहे हों. इनके बीच भी महाराष्ट्र में टूट इसलिए हुई, क्योंकि सिद्धांत की जगह किसके ज़्यादा मंत्री हों और कौन मुख्यमंत्री बने और कौन दूसरे को लंगड़ी मारकर सत्ता के ऊपर पूरा का पूरा कब्जा कर ले, यह स्वार्थ हावी हो गया.
दरअसल एक भ्रम पैदा हो गया है. वह भ्रम यह है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर भारतीय जनता पार्टी विधानसभाओं की सारी सीटें जीत सकती है. दूसरी तरफ़ लोकसभा के बाद बिहार एवं उत्तर प्रदेश के परिणामों ने यह संकेत दिया है कि नरेंद्र मोदी का नाम राज्यों में उतना नहीं चलेगा. तो, शिवसेना यहां पर ज़्यादा सीटें जीत सकती है. कांग्रेस और एनसीपी को भी यह लगा कि लोकसभा चुनाव में पैदा हुआ आवेग समाप्त हो चुका है इसलिए वे ज़्यादा सीटें जीत सकती हैं और इस भ्रम ने विचार के आधार पर जुड़ी हुई पार्टियों को तोड़ दिया और फिर से इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया कि सत्ता को अपने हाथ में लेना ही एकमात्र सिद्धांत बन गया है.
जनता परिवार एक होने की बात कर रहा है. हरियाणा में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बहुत ही तार्किक ढंग से इस सवाल को खड़ा किया, लेकिन नीतीश कुमार के ही साथी जनता परिवार को एकजुट करने में बहुत उत्साहित नहीं हैं और इस वजह से जनता परिवार 1989 के बाद लगभग हर जगह धीरे-धीरे हाशिये पर चला गया. नीतीश कुमार की इस मसले में तारीफ़ करनी चाहिए कि उन्होंने बिहार में लालू यादव के साथ मिलकर एक गठबंधन बनाया, जिसका उन्हें परिणाम देखने को मिला. दरअसल जनता परिवार का सबसे बड़ा अंतर्विरोध एक-दूसरे को अपने समकक्ष न मानना है. जनता परिवार का हर नेता सबसे बड़ा और सबसे महान है और इन नेताओं ने यह भी साबित किया है कि जब वे भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के साथ होते हैं, तो उनका सारा इगो, उनका सारा अहम दूर हो जाता है और वे पिछलग्गुओं की तरह काम करते हैं, लेकिन जब वे आपस में बैठते हैं, तो सबसे बड़े सिद्धांतशास्त्री होेते हैं, सबसे बड़े नेता हो जाते हैं और देश के सबसे बड़े भावी भाग्यविधाता हो जाते हैं.
इस मानसिकता ने जनता परिवार की विचारधारा को भी तोड़ा है. ग़रीबों के लिए लड़ने के हौसले को भी तोड़ा है और एक सार्थक विपक्ष बनने की संभावनाओं को भी समाप्त किया है. दूसरी तरफ़ अफ़सोस इस बात का है कि जनता परिवार का कोई भी नेता अपनी किसी भी गलती से हुए नुक़सान से सीख लेने के लिए तैयार नहीं है. अब नीतीश कुमार ने जनता परिवार के एक होने की बात की है और शायद नीतीश कुमार से ज़्यादा इस बात को कोई नहीं जानता कि वे कौन लोग हैं, जो जनता परिवार को एक होने नहीं देना चाहते हैं. जनता परिवार को एक करने का दूसरा बड़ा काम मुलायम सिंह यादव कर सकते हैं. मुलायम सिंह यादव वादा करके भी जींद (हरियाणा) की रैली में नहीं पहुंचे, जहां उनके बाकी साथी पहुंचने वाले थे. शायद मुलायम सिंह यादव की तबीयत खराब थी. उन्होंने अपने भाई शिवपाल सिंह यादव को जींद भेजा और शिवपाल यादव ने वहां पर एक जोरदार भाषण भी दिया, पर उपस्थिति मुलायम सिंह की आवश्यक थी. शिवपाल यादव ने उस कमी को एक हद तक पूरा किया, पर यदि मुलायम सिंह यादव वहां पहुंच जाते, तो लोगों को विश्वास होता कि जनता परिवार के एक होने का रास्ता निकल रहा है.
क्या हम यह मानें कि अब किसी भी राजनीतिक दल में विचारधारा के आधार पर राजनीति करने की इच्छाशक्ति नहीं बची है या सारे राजनीतिक दल उस जगह पहुंच गए हैं, जहां से किसी भी प्रकार सत्ता में पहुंचने का रास्ता निकलता है. अगर यह बात सत्य है, तो फिर एक दिन भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस भी मिल सकते हैं और कम्युनिस्ट पार्टियों सहित जितने भी राजनीतिक दल हैं, वे किसी न किसी दल के साथ गठजोड़ बनाकर सत्ता में हिस्सेदारी कर सकते हैं. इसमें ख़तरा एक ही है कि इस सब कवायद के बीच जनता कहीं दूर हैं और जनता के लिए होने वाले काम कहीं दूर हैं. इस सारी कवायद में फ़ायदा स़िर्फ और स़िर्फ कॉरपोरेट सेक्टर को होने वाला है. दूसरा यह कि इस सारी कवायद को कराने के पीछे कहीं न कहीं देश के बड़े पूंजीपति या बड़े कॉरपोरेट घराने शामिल हैं. कॉरपोरेट घराने नहीं चाहते कि इस देश में 70 प्रतिशत के पास कुछ आए. हालांकि यह खेल बहुत ख़तरनाक है. अगर 70 प्रतिशत विकास की धारा से बाहर रहेगा और उसके पास कुछ नहीं पहुंचेगा, तो फिर इस देश की संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था चरमरा जाएगी. और, वह अपने अंतिम तार्किक परिणाम पर जा पहुंचेगी, जहां देश में लोकतंत्र के प्रति कम, तानाशाही के प्रति ज़्यादा विश्वास पैदा होगा.
अवसरवादी राजनीति का युग
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