प्रफुल्ल बिदवई एक पत्रकार होने के साथ-साथ एक एक्टिविस्ट भी थे. उन्होंने वर्ष 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण का न केवल विरोध किया बल्कि तत्कालीन वाजपेयी सरकार को इस परीक्षण का पूरा श्रेय भी नहीं लेने दिया. उन्होंने परमाणु युद्ध और रेडिएशन के खतरों को अपने लेखों में बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया.
जाने-माने स्तंभकार, पत्रकार, शिक्षाविद और एक्टिविस्ट प्रफुल्ल बिदवई (1949-23 जून, 2015) का दिल का दौरा पड़ने की वजह से वर्ष 66 वर्ष की आयु में हॉलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में निधन हो गया. वे वहां एक कांफ्रेंस में हिस्सा लेने गये थे. उनके देहांत से चार दशकों से सक्रिय भारतीय मीडिया जगत का एक जगमगाता सितारा डूब गया. हालांकि छात्र जीवन के बाद वह कभी भी सक्रिय राजनीति में नहीं रहे लेकिन उनके लेख वामपंथी विचार धारा से प्रेरित थे. इसलिए उनके निधन से देश में कमज़ोर पड़ चुकी वामपंथी राजनीति को भी गहरा झटका लगा है. 1970 के दशक में भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान, मुंबई की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वह पत्रकारिता के मैदान में आए बिदवई राजनितिक, सामाजिक और पर्यावरण के विषयों पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अख़बारों और पत्रिकाओं में लगातार लिखते रहे. वामपंथी राजनीति पर उनकी द्वारा लिखी गयी किताब हाल ही में प्रकाशित होने वाली है. उन्होंने आम आदमी पार्टी की दिल्ली चुनावों में जीत को वामदलों के लिए आशा की किरण बताया था.
प्रफुल्ल बिदवई एक पत्रकार होने के साथ-साथ एक एक्टिविस्ट भी थे. उन्होंने वर्ष 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण का न केवल विरोध किया बल्कि तत्कालीन वाजपेयी सरकार को इस परीक्षण का पूरा श्रेय भी नहीं लेने दिया. उन्होंने परमाणु युद्ध और रेडिएशन के खतरों को अपने लेखों में बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया. साल 2014 में इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक लीक रिपोर्ट में भारत के परमाणु कार्यक्रम के प्रख्यात विरोधियों की सूची में उनका नाम भी शामिल था. वे दक्षिण एशिया में शांति अभियान के बड़े समर्थक थे. वह परमाणु निःशस्त्रीकरण और शांति गठबंधन (कोएलिशन फॉर न्यूक्लइर डिसआर्मामेंट एन्ड पीस) के संस्थापक सदस्य थे. विश्व शांति के लिए इस संगठन की स्थापना वर्ष 2000 में हुई थी. जेनेवा स्थित इंटरनेशनल पीस ब्यूरो की तरफ से उन्हें वर्ष 2000 में शीन मैकब्राइड अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इसके साथ ही उन्हें एम्स्टर्डम के ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूट का फेलो चुना गया था.
प्रफुल्ल कहा करते थे कि एक पत्रकार का काम भावी भविष्य को देखना होता है, भावी युद्ध, जलवायु परिवर्तन, सैन्यवाद, बढ़ती दौलत और भोगविलास, भयावह गरीबी, अन्याय, फासीवाद से मुक़ाबला करने के लिए पीस एक्टिविस्टों, नागरिक समूहों, वामदलों, महिला संगठनों, समाजवादियों और पर्यावरण आंदोलनों को एक छत के नीचे आना चाहिए. जिससे उम्मीदों की एक नई राजनीति की शुरूआत हो. आज देश जिन राजनीतिक चुनौतियों से गुजर रहा है उस वक्त ऐसे दूरदृष्टा पत्रकार और लोकहितवादी व्यक्तित्व की कमी भारत को हमेशा खलेगी.