सीतापुर के बेरिहागढ़ का डीह आल्हा-ऊदल की ऐतिहासिक निशानी है, जो सरकारी उपेक्षा के कारण खतरे में है. शासन या पुरातत्व विभाग इस पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा. खुदाई के दौरान सोने-चांदी के सिक्के मिलने से लोभ में आए यहां के लोग चोरी छुपे डीह को खोदने में लगे रहते हैं. बेरिहागढ़ में खुदाई के दौरान एक विष्णु भगवान की मूर्ति मिली, जो पुरातात्विक दृष्टि से बेशकीमती बताई जाती है. मूर्ति के सिर पर शेषनाग बना हुआ है. खुदाई के दौरान वह टूट गया था. इतिहासकार इसे गांधार अथवा मथुरा शैली की बताते हैं. पाई गई मूर्तियों में मांसपेशियां स्पष्ट झलकती हैं और ‘थ्री-डायमेंशनल’ सिलवटें भी दिखती हैं. लोगों को वहां से यक्ष और यक्षणी की मूर्तियां भी मिली हैं. स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि करीब बीस साल पहले तकिया गांव के एक व्यक्ति को खुदाई में एक तलवार मिली थी. लोहारों की लाख कोशिश के बाद भी वह तलवार कट नहीं पाई, आखिरकार उसे गढ़ी के सूखे कुएं में डाल दिया गया था. स्थानीय लोगों की मांग है कि इस ऐतिहासिक स्थली को पुरातत्व विभाग अपने अधीन ले और दुर्लभ मूर्तियों को संग्रहालय में सुरक्षित कराने की पुख्ता व्यवस्था हो.

महोली तहसील मुख्यालय से करीब दस किलोमीटर उत्तर-पश्चिम की ओर बसे सील्हापुर गांव में मां सिलहट देवी का मंदिर है. जनश्रुतियों के मुताबिक वीर योद्धा आल्हा के आवाहन पर मां सिलहट देवी प्रकट हुई थीं. सिलहट देवी मैहर वाली शारदा माई का ही दूसरा रूप हैं. शारदा माई का मुख्य मंदिर मैहर तहसील इलाके में मिर्जापुर गांव में त्रिकूट पहाड़ी पर बना हुआ है. बात गांजर की लड़ाई के समय की है. आल्हा माड़ौगढ़ के राजा देशराज के पुत्र थे. इनकी माता का नाम देवल और भाई का नाम उदल था. दोनों भाइयों की वीरता का कोई सानी न था. स्वाभिमान के चलते जब आल्हा-ऊदल ने महोबा छोड़ा तो कन्नौज के राजा जयचंद्र ने उन्हें अपना सेनापति बनाया.

उस वक्त कन्नौज की रियासत नेपाल की सीमा तक फैली थी. यह इलाका गांजर कहलाता था. इस इलाके में करीब नब्बे गढ़ आते थे. पिसावां थाना क्षेत्र का रेतुहागढ़ वर्तमान में सेरवाडीह के नाम से प्रसिद्ध है, जबकि बेरिहागढ़ वर्तमान में महोली के बेरिहा और मितौली के हिन्दूनगर व सहिबानगर के नाम से जाने जाते हैं. ऐतिहासिक संदर्भों का उल्लेख करते हुए बुद्धिजीवी बताते हैं कि रेतुहागढ़ के राजा अरविंदसेन और बेरिहागढ़ के राजा हीर सिंह और बीर सिंह थे. इन गढ़ के राजाओं ने करीब बारह वर्ष से लगान नहीं दिया था. जयचन्द्र

ने अपने गोद लिए बेटे लाखन के साथ आल्हा-ऊदल को लगान वसूलने के लिए भेजा था. रेतुहागढ़ फतह करने के बाद आल्हा की सेना ने कठिना नदी के किनारे डेरा डाल दिया. हीर सिंह और बीर सिंह ने लगान न देकर युद्ध का ऐलान किया. बेरिहागढ़ जीतने के लिए आल्हा की सेना ने हीर सिंह से भयानक युद्ध किया. यह गिरधरपुर और जमुनिया गांव के बीच हुआ था. युद्ध तीन माह तेरह दिन चला, जिसमें आल्हा की सेना की भारी क्षति हुई. आल्हा ने अल्हना से पांच किलोमीटर पूरब एक जंगल में आकर पुत्रजयी के वृक्ष के नीचे अपनी आराध्य देवी शारदा माई का आह्‌वान किया. आल्हा की पूजा पर शारदा देवी जीवधारी शिला के रूप में प्रकट हुईं और आल्हा को जीत का वरदान दिया. वे वहीं विराजमान हो गईं. आल्हा ने उन्हें सिलहट देवी का नाम दिया था.

इसी शिला में नीचे पांच मन वजन सोने की जंजीर भी बंधी हुई है. स्थानीय लोग बताते हैं कि सिलहट देवी के मंदिर में आज भी चमत्कार हुआ करते हैं. यहां प्रतिदिन पहली पूजा कोई रहस्यमयी अदृश्य शक्ति करती है. सिलहट देवी के नाम पर सील्हापुर गांव बसा हुआ है. गांजर की लड़ाई में बेरिहागढ़ जीतने के बाद आल्हा की सेना आगे बढ़ी. सीतापुर जिला मुख्यालय से करीब 70 किलोमीटर आगे का इलाका आज भी गांजर कहलाता है. यहां के रेउसा इलाके के सेउता गांव में युद्ध के दौरान आल्हा की पत्नी मछला उर्फ सोनवा ने शारदा देवी की आराधना की थी. उनके आदेशानुसार सोनवा ने वहां एक शिला (पिंडी) स्थापित की थी. इस पिंडी पर सोनवा की उंगलियों के तीन गहरे निशान आज भी मौजूद हैं. यह मंदिर सोनासरि देवी के नाम से विख्यात है. अमावस्या को यहां भारी भीड़ उमड़ती है.

गांजर युद्ध के दौरान जिस जगह आल्हा की सेना ठहरी थी, वह गांव आज महोली कोतवाली क्षेत्र में अल्हना के नाम से प्रसिद्ध है. गांव के पश्चिम नदी के करीब तीस फिट ऊंचा एक टीला है, जो आज भी दुर्गन के नाम से प्रसिद्ध है. बताया जाता है कि आल्हा की सेना इसी टीले पर तोप रखकर बेरिहागढ़ पर गोले दागती थी. बताया जाता है कि इस टीले में खजाना गड़ा है. यही खजाना पाने की लालसा में यहां खुदाई की कोशिशें होती रहती हैं. इसी कोशिश में रहमतुल्ला को सुरंग दिखी थी.

लेकिन डर के कारण उन्होंने उसे नहीं खोदा. वे बीमार पड़ गए. इससे भय और फैला. अब लोग वहां खुदाई नहीं करते. बुजुर्ग सदानन्द बताते हैं कि इसी टीले के पास एक काला सांप है. जब वह बाहर निकलता है, तो आस-पास की घास जल जाती है. सुभान बताते हैं कि सिद्धन तालाब में करीब पचास वर्ष पहले मगरमच्छ आ जाते थे. अल्हना गांव से करीब चार किलोमीटर पहले बेरिहा गांव है. नदी के उस पार बेरिहा के राजा हीर सिंह और बीर सिंह का गढ़ था. इसलिए इसका नाम बेरिहागढ़ पड़ा. जनश्रुतियों और आल्हाखंड की पुष्टि के लिए ‘चौथी दुनिया’ की टीम नदी के उस पार गई और कामतादास गढ़ी में बने भगवती मंदिर के वयोवृद्ध पुजारी बाबा कामतादास से मुलाकात की.

उन्होंने कई एकड़ तक मिट्टी में धंसे ईंट के अवशेष और गहराई में बनीं नींव की श्रृंखला दिखाई, जो वहां भव्य भवन होने की गवाही देते हैं. पुरातत्व विभाग इसे अधिग्रहीत कर शोध को आगे बढ़ा सकता है. नदी के जीर्ण-शीर्ण पुल के सामने घुड़साल के ध्वंसावशेष हैं. नदी के किनारे ही बेरिहागढ़ के राजाओं की कुलदेवी नकटी देवी का स्थान है. यहां खुदाई करने पर जो ईंटें मिलीं हैं, उनकी लम्बाई एक फुट और चौड़ाई नौ इंच है. बुजुर्ग भी बताते हैं कि उस तरह की ईंटें बनते हुए उन्होंने कभी नहीं देखी. खुदाई में मिले नर कंकाल भी अभी की मानवाकृति के विपरीत काफी बड़े और विशाल हैं.

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