देश में समय-समय पर पूर्वोत्तर के लोगों के साथ जिस तरह से सौतेला व्यवहार होता आया है, उससे वे खुद को शेष भारत से कटा हुआ महसूस करते हैं. अरुणाचल प्रदेश निवासी छात्र नीडो की मौत इसका ताजा प्रमाण है कि अपने ही देश में पूर्वोत्तर के लोग किस कदर बेगाने और असुरक्षित हैं.
हाल ही में दिल्ली में अरुणाचल प्रदेश के एक छात्र की जिस तरह से पीट-पीटकर नृशंस हत्या कर दी गई, वह पूर्वोत्तर के साथ हो रही नाइंसाफी की पोल खोलने के लिए काफी है. अगर राजधानी या उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में पूर्वोत्तर के लोगों, खासकर छात्र-छात्राओं से भेदभाव का अपना लंबा इतिहास नहीं होता, तो यह घटना साधारण अपराध मानी जाती. नीडो ताबयो अरुणाचल प्रदेश का रहने वाला था. उम्र महज 19 साल. ऊंची अट्टालिकाओं के शहर दिल्ली में नीडो अंजान था. किसी के घर जाना था. उसने लाजपत नगर में एक पनीर की दुकान पर पता पूछा. उसका रंग-रूप देखकर पनीर वाले दुकानदार ने नीडो का मजाक उड़ाया. नीडो और दुकानदार के बीच बात जब हद से ज़्यादा ब़ढने लगी, तो नीडो ने दुकान के शीशे तोड़ दिए. दुकान वालों ने उसकी पिटाई की. मामला पुलिस थाने पहुंचा. नीडो ने कांच तोड़ने के एवज में 10,000 रुपये भी दिए. आरोप यह भी है कि थाने से वापस आने पर रास्ते में दोबारा उसकी पिटाई की गई. इसके बाद नीडो वापस अपने कमरे पर लौट गया और सो गया. ऐसा सोया कि हमेशा-हमेशा के लिए सो गया. नीडो की मौत मानवता के समक्ष एक सवाल है, जिसका कोई जवाब नहीं दे सकता.
समय रहते अगर पुलिस और प्रशासन ने क़दम उठाए होते, तो नीडो आज जीवित होता, लेकिन हमेशा की तरह प्रशासन ने अकर्मण्यता का परिचय दिया, जो नीडो की मौत का कारण बना. नीडो की मौत के बाद पूर्वोत्तर के छात्र-छात्राएं आंदोलन पर उतर आए, क्योंकि उनका मानना है कि राष्ट्रीय राजधानी में उनके साथ न्यायपूर्ण और समानता का व्यवहार नहीं होता है. क्या एक संप्रभु राष्ट्र के लिए यह शोभनीय है? पूर्वोत्तर का हो या देश के किसी अन्य हिस्से का, है तो वह इंसान ही. ऐसे में मारपीट या झगड़े में किसी की जान चली जाए, तो कोई देश खुद को सभ्य कैसे कह सकता है? किसी देश की राजधानी में इस तरह की घटना का होना शर्मनाक और दु:खद है. दिल्ली किसी की जागीर नहीं है. यहां देश के विभिन्न हिस्सों के लोग आकर रहते हैं. यह मल्टी-कल्चर सिटी है. यहां हर कल्चर को स्पेस दिया जाता है. ऐसे में दूसरों के रूप-रंग, हाव-भाव, भाषा, रहन-सहन, मान्यताओं और आस्थाओं के प्रति सम्मान बरतना चाहिए. किसी खास वर्ग को निशाना बनाकर भद्दे मजाक और टिप्पणियां नहीं करने चाहिए. किसी ने अपने बालों का रंग पीला किया हो, नीला या फिर लाल, किसी ने अपनी मूंछें कटा ली हों या दा़ढी ब़ढाई हो, किसी ने अपने कान मेंे ईयर रिंग पहना हो या कुछ और, किसी को क्या फर्क प़डता है? हम औरों पर क्यों टिप्पणी करेंगे?
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पूर्वोत्तर के छात्र-छात्राओं के प्रति उत्तर भारत में एक खास तरह का पूर्वाग्रह है. पूर्वोत्तर के लोगों को चिंकी कहा जाता है और इन राज्यों से आई लड़कियों के साथ छेड़खानी की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं, लेकिन आज तक उनकी सुरक्षा के लिए सरकार या प्रशासन की तरफ़ से कुछ नहीं किया गया. जब कोई घटना घटती है, उस समय सरकार खुद को काफी गंभीर दिखाती है, लेकिन कुछ दिनों के बाद सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगता है. ये है पूर्वोेत्तर के लोगों के प्रति उदासीनता का आलम. आप अक्सर पूरी दिल्ली में पोस्टर पर लिखा हुआ पाएंगे और लोगों से या टीवी चैनलों पर भी सुनेंगे या देखेंगे कि दिल्ली दिलवालों की है, लेकिन सच्चाई कुछ और है. विदेशों और अपने देश में भी दिल्ली को रेप कैपिटल कहा जाता है. क्या दिल्लीवासियों को नहीं लगता कि इस कलंक को धोना चाहिए? अगर लगता है तो अपने से भिन्न रूप-रंग वालों से कैसे व्यवहार किया जाए, उनके साथ सामाजिक संबंध कैसे कायम किया जाए, उन्हें दिल्ली के सांस्कृतिक जीवन की मुख्य धारा में कैसे जोड़ा जाए, यह दिल्ली वालों को सीखना होगा. अन्यथा दिल्ली को मेरी दिल्ली, प्यारी दिल्ली के नारे से नहीं, बल्कि वहशी दिल्ली के नारे से नवाजा जाएगा.
दरअसल, मैं मूल रूप से पूर्वोत्तर यानी मणिपुर का निवासी हूं. मैं पिछले 10 सालों से बिहार, झारखंड, पंजाब एवं दिल्ली में रह रहा हूं. इतने सालों में आज तक मुझे किसी से कोई परेशानी नहीं हुई. मेरे कई दोस्त उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब से हैं. कुछ बातों पर मैं उनसे असहमति ज़रूर व्यक्त करता हूं और वे भी मुझे कई मुद्दों पर टोकते हैं, मगर आज तक कभी उन्होंने मुझ पर तंज नहीं कसे, न मैं उन पर कसता हूं. मैं दोस्तों से अपनी बात शेयर करता हूं. उनके दु:ख-दर्द का हिस्सा बनता हूं और वे भी मेरे दु:ख-सुख में भागीदार बनते हैं. इरोम शर्मिला के कैंपेन में जितना पूर्वोत्तर के लोगों का समर्थन है, उससे कहीं ज्यादा हिंदीभाषी राज्यों के लोगों का.
जैसे देश के अन्य हिस्से के लोग अपने समूह में रहते हैं, वैसे ही पूर्वोत्तर के छात्र-छात्राएं अपने समूह में रहते हैं. हालांकि पूर्वोत्तर के लोगोें को चाहिए कि वे अपने आसपास के लोगों से घुलें-मिलें, बातें करें, ताकि लोग उनकी सभ्यता-संस्कृति को जानें-समझें और उन्हें भी अपने बीच का मानें. समाज से कटकर रहना हमेशा दूसरों के मन में जिज्ञासा जगाता है, जो अपराध को ब़ढावा देता है. अगर हम एक-दूसरे को नहीं समझेंगे, एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करेंेगे, एक-दूसरे की सभ्यता-संस्कृति का सम्मान नहीं करेंगे, तो याद रखिए, आने वाले दिनों में नीडो जैसे और भी मामले हमारे सामने से गुजरते रहेंगे.
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