सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भारत निर्वाचन आयोग द्वारा आदिवासियों के लिए आरक्षित की गई दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीट छीनकर मोदी सरकार ने देश में संवैधानिक संकट पैदा कर दिया है और खुलेआम सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना की है. ऐसी हालत में संविधान की रक्षा के लिए आदिवासी अधिकार मंच ने व्यापक और जुझारू संघर्ष का रास्ता अख्तियार कर लिया है. मंच की तरफ से 20 सितंबर को रॉबर्ट्सगंज कलेक्ट्रेट पर आदिवासियों की जोरदार सभा आयोजित हुई, विरोध प्रदर्शन हुआ, धरना दिया गया और प्रधानमंत्री को ज्ञापन भेजा गया. इसके पहले बभनी, धोरावल, दुद्धी, नगवां, म्योरपुर, ओबरा और चतरा में आदिवासियों का सिलसिलेवार सम्मेलन किया गया, जिसमें हजारों की संख्या में आदिवासी समुदाय के लोगों ने हिस्सा लिया. मंच ने कहा है कि केंद्र सरकार ने आदिवासियों के अधिकार नहीं दिए, तो दुद्धी से लेकर दिल्ली तक संघर्ष होगा.
आदिवासी अधिकार मंच के संयोजक व आईपीएफ के प्रदेश महासचिव दिनकर कपूर और आदिवासी नेता पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ ने कहा कि केंद्र सरकार संविधान की रक्षा करने में विफल साबित हुई है. संविधान के उद्देश्य में ही कहा गया है कि सरकार भारत के हर नागरिक के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकार की हर हाल में रक्षा करेगी. लेकिन इस सरकार ने संसद में 4 जुलाई 2014 को मसंसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा) 2013 वापस लेकर आदिवासी समाज को राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया. यह बड़ा सवाल है कि जिस समय मोदी सरकार संसद से बिल वापस ले रही थी, उस समय इस क्षेत्र के आदिवासी सांसद और भाजपा से जुड़े अन्य आदिवासी सांसद चुप्पी साधे बैठे थे. मोदी सरकार को इस पर पुनरविचार करना चाहिए और संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए अध्यादेश लाकर दुद्धी व ओबरा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित करनी चाहिए. दिनकर कपूर ने कहा कि आदिवासी समाज को विकास की मुख्यधारा से काट दिया गया है. सरकार लगातार दलितों और आदिवासियों के बजट में कटौती कर रही है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी केंद्र सरकार ने मनरेगा की मजदूरी का चार माह से भुगतान नहीं किया. परिणामतः भीषण सूखे और वर्षा के कारण संकटग्रस्त ग्रामीण परिवार भुखमरी के शिकार हैं. वृक्षारोपण के लिए कैम्पा कानून बनाकर वनाधिकार कानून को खत्म करने में केंद्र सरकार लगी हुई है. सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली का यह दलित-आदिवासी बहुल पहाड़ी अंचल उत्तर प्रदेश का कालाहांडी बना हुआ है. आजादी के साठ साल बाद भी चुआड़, नालों और बांधों का प्रदूषित पानी पीकर ग्रामीण बेमौत मर रहे हैं. आज भी इन क्षेत्रों में गांवों में जाने को सड़कें नहीं हैं और बीमारी की हालत में खटिया पर लादकर लोग इलाज के लिए ले जाते हैं. मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही आदिवासियों और दलितों के विकास के लिए बजट में आवंटित होने वाली धनराशि में भी 32,105 करोड़ रुपये की भारी कटौती कर दी. आदिवासियों के लिए 2014-15 में आंवटित 26,714 करोड़ को घटाकर 2015-16 में 19,980 करोड़ और 2016-17 में 23,790 करोड़ रुपये कर दिया गया है. इसके साथ ही आदिवासी जीवन के लिए जरूरी मनरेगा, शिक्षा, स्वास्थ्य व छात्रवृत्ति के बजट में भी भारी कटौती कर दी गई है. दस लाख से भी अधिक आदिवासी समाज के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का सरकार हनन कर रही है. वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को मिलने वाली ज़मीन के 92,406 दावों में से 74,701 अर्थात 81 प्रतिशत दावे रद्द कर दिए गए हैं और मात्र 17,705 दावों में ही ज़मीन दी गई है. इसमें सोनभद्र जनपद के 65526 प्राप्त दावों में से 53506 दावे खारिज किए जा चुके हैं. इसमें भी सत्तर प्रतिशत दावे दुद्धी तहसील के आदिवासियों के हैं. उच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी प्रदेश सरकार आदिवासियों ववनाश्रित जातियों को उनकी पुश्तैनी जमीन पर अधिकार देने को तैयार नहीं है. इससे उत्तर प्रदेश के आदिवासियों में घोर निराशा और आक्रोश व्याप्त है. इसके साथ ही सरकार वृक्षारोपण के लिए कैम्पा कानून बनाकर वनाधिकार कानून खत्म करने पर आमादा है.
आदिवासियों ने समवेत रूप से यह आवाज उठाई है कि दुद्धी व ओबरा विधानसभा सीट को आदिवासी समाज के लिए आरक्षित करने के आदेश को हर हाल में लागू किया जाना चाहिए. इसके अलावा वनाधिकार कानून के तहत जमीन पर अधिकार देने, कोल, धांगर समेत सात अन्य जातियों को आदिवासी का दर्जा देने व गो़ंड, खरवार समेत आदिवासियों का दर्जा पा चुकी 10 जातियों को चंदौली समेत पूरे प्रदेश में आदिवासी का आधिकारिक दर्जा देकर आबादी के अनुसार आदिवासियों को बजट में हिस्सा देने जैसे सवालों पर भी आदिवासी अधिकार अभियान शुरू करने का निर्णय लिया गया. आदिवासी अधिकार को लेकर हुए सम्मेलनों में हजारों की संख्या में जुटे आदिवासियों ने इस बात पर गहरा रोष जताया कि पिछले चौदह साल से केंद्र व प्रदेश में राज करने वाली भाजपा, कांग्रेस और सपा, बसपा की सरकारों ने आदिवासियों के अधिकार नहीं दिए. गोंड़, खरवार समेत दस जातियों को जब आदिवासी का दर्जा दिया गया था, उस समय केंद्र व राज्य में भाजपा की सरकार थी, पर उसने उनके लिए कोई भी सीट आरक्षित नहीं की. उसके बाद बनी सरकारों ने तो आदिवासियों के आरक्षण को ही रोकने की कोशिश की. 2010 में उच्च न्यायालय ने आदिवासियों के लिए पंचायत में आरक्षण देने का निर्णय दिया था, पर उस समय मायावती सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गईं और इसे स्टे करा दिया. बाद में आधे अधूरे मन से अखिलेश सरकार ने आंदोलन के दबाव में सीट आरक्षित की, पर इसमें भी बेईमानी हुई. कुशीनगर, जहां आदिवासी हैं ही नहीं, वहां आदिवासी आरक्षण दे दिया गया. भाजपा की मौजूदा सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना कर संसद से विधेयक वापस लेकर आदिवासी समाज के अस्तित्व को ही खत्म कर दिया. आदिवासी अधिकार मंच के संयोजक दिनकर कपूर ने कहा कि यह आंदोलन मात्र आदिवासी समाज के अधिकार का ही नहीं है, बल्कि यह इस देश के हर उस आम नागरिक का आंदोलन है, जिसके अधिकार सरकार और सत्ता द्वारा छीने जा रहे हैं. मोदी सरकार दलित, आदिवासी व पिछड़े समाज के सामाजिक न्याय के अधिकार को खत्म करने में लगी हुई है, इसका व्यापक विरोध किया जाएगा.